10 July, 2010

अनन्त आकाश्


अनन्त आकाश-- भाग-- 4
पिछली कडी मे आपने पढाकि मेरे घर के आँगन मे पेड पर कैसे चिडिया और चिडे का परिवार बढा और कैसे उन्हों ने अपने बच्चों के अंडों से निकलने से ले कर उनके बडे होने तक देख भाल की---- पक्षिओं मे भी बच्चों के लिये इस अनूठे प्यार को देख कर मुझे अपना अतीत याद आने लगता है। ब्च्चों को कैसे पढाया लिखाया ।वो विदेश चले गयी बडे ने वहीं शादी कर ली पिता पुत्र की नाराज़गी मे माँ कैसे पिस रही है--| बडे बेटे के बेटा हुया तो उसने कहा माँ आ जाओ हमे आपकी जरूरत है। मगर तब भी ये जाने को तैयार नही हुये। मन उदास रहने लगा।-- अब आगे पढें-----

"राधा ऐसा करो तुम बेटे के पास हो आओ मै टिकेट बुक करवा देता हूँ। तुम्हारा मन बहल जायेगा। मगर मैं नही जाऊँगा।" 

" अकेली? मै आपके बिना क्यों जाऊँ? नही नहीं।"
 "मै मन से कह रहा हूँ। गुस्सा नही हूँ। बस मेरा मोह टूट चुका है और तुम अभी मोह त्याग नही पा रही हो। जानता हूँ वहाँ विदेशी बहु के पास भी अधिक दिन टिक नही पाओगी।इस लिये नही चाहता था कि तुम जाओ।।"
"सोचूँगी।" कह कर मै काम मे लग गयी।
रात भर सोचती रही-- इनकी बातें भी सही थी-- फिर क्या करूँ यही सोचते नींद आ गयी। कुछ दिन इसी तरह निकल गये। मगर कुछ भी निर्णय नही ले पाई। कई बार इन्हों ने पूछा भी मगर चुप रही 

उस दिन  ये सुबह काम पर चले गये और मै चाय का कप ले कर बरामदे मै बैठ गयी। चिडिया के बच्चे अब चिडिया के बच्चे उडने लगे थे मगर दूर तक नही जाते। चिडिया उनके पास रहती और चिदा अकेला दाना चुगने जाता था।  कितना खुश है ये परिवार फिर अपना ही क्यों बिखर गया। सोचते हुये आँख भर आयी।्रात को ये खाना खा रहे थे---
"देखो राधा मै मन से कह रहा हूँ तुम चली जाओ। मेरी चिन्ता मत करो। मै कोई न कोई इन्तजाम कर लूँगा। न हुया तो कुछ दिन की बात है मै़ ढाबे मे खा लूँगा। आज सोच कर मुझे बता देना कल टिकेट बुक करवा दूँगा।"
मै फिर कुछ न बोली। रात भर सोचती रही। सोच मे चिडिया का घोंसला आ जाता--  चिडिया कैसे घोंसले के पास बैठी रहती--- देखते देखते बच्चे फुदकने लगे हैं---चिडिया उन्हें चोंच मारना खाना और उडना सिखाती----धीरे धीरे जब वो पँख फैलाते तो चिडिया खुश होती--- हम भी ऐसे ही उनको बढते पढते देख कर खुश होते थे----- अब मुझे लगता कि चिडिया की खुशी मे एक पीडा भी थी-- अब उडने लगे हैं --- हमे छोड कर चले जायेंगे-----
आज वही पीडा सामने आ रही थी---
आज मैने देखा चिडा चिडिया और बच्चे इकट्ठे बैठे हुये हैं----चोंच से चोंच मिला कर बात कर रहे हैं--- "चीँ  चेँ चीं" चिडिया चिडे की आवाज़ मे उदासी थी।
" चीं  चेँ  चेँ" मगर बच्चों की आवाज मे जोश था--और उसी जोश से वो उड गये दूर गगन मे---
"चाँ चाँ चाँ----- बच्चो हम इन्तजार करेंगे लौट आना।" चिडिया की आवाज़ रुँध गयी थी। दोनो उदास ,सारा दिन कुछ नही खाया।मौसम बदल गया था प्रवासी पक्षियों का आना भी  सतलुज के किनारे होने लगा था। गोविन्द सागर झील के किनारों पर रोनक बढ गयी थी।
थोडी देर बाद चिडा चिडिया की चोंच से चोंच मिला कर चीँ चेँ चेँ कर रहा था---
"चीँ चीं चीं --रानी ऐसा कब तक चलेगा?बच्चे कब तक हमसे चिपके रहते? आखिर हम भी तो ऐसे ही उड आये थे। उनका अपना संसार है उन्हें भी हमारी तरह अपना घर बसाना है-- जो सब के साथ होता है वही अपने साथ हुया है। चलो सतलुज के किनारे चलते हैं। दूर दूर से हमारे भाई बहिन आये हैं उनका दुख सुख सुनते है।।" चिडे ने प्यार से चिडीया के परों को चोंच से सहलाया और दोनो सागर किनारे उड गये।
 हाँ ठीक ही बात है-- सारा देश अपना है लोग अपने हैं बस सोच कर उन्हें प्यार से अपनाने की बात है---
  मेरे भी आँसू निकल गये थे पोंछ् कर  सोचा कि यही संसार का नियम है तो फिर क्यों इतना मोह? आखिर कब तक बच्चे हमारे पल्लू से बन्धे रहेगे। आज कल नौकरियाँ भी ऐसी हैं कहां कहाँ उनके साथ भागते फिरेंगे?। चिडे चिडिया ने जीवन का सच सिखा दिया था।मुझे भी रिटायरमेन्ट के बाद जीने का रास्ता मिल गया था।
 सुबह जब नाश्ता कर के बस्ती मे जाने के लिये तैयार हुये तो मैं बोल पडी--
" मुझे भी अपने साथ ले चलें।"
"क्या सच?" इन्हें सहज ही विश्वास नहीं हुया। इनकी खुशी का ठिकाना नही था। इनकी आँखों मे संतोश की झलक देख कर खुशी से हुयी । बच्चों के मोह मे हम दोनो के बीच एक दूरी सी आ गयी थी -- आज उस दूरी को पाट कर हम दोनो एक हो गये थे---  मैं भी चिडिया की तरह उडी जा रही थी इनके साथ अनन्त आकाश की ओर---। समाप्त




31 comments:

Randhir Singh Suman said...

nice

Jandunia said...

शानदार पोस्ट

P.N. Subramanian said...

यही होना भी था. बेहतरीन. भावनाओं में हम भी बह गए थे. आभार.

Arvind Mishra said...

भावनापूर्ण !

seema gupta said...

कहानी के सुखद अंत ने एक अजीब ही ख़ुशी और संतोष का एहसास दिया....
regards

अजय कुमार said...

सुखांत कथा , सुकून आया

kshama said...

Bahut bhavuk katha..qudrat hame kayi baaten sikati hai,yahi jhalka is kathase..Sampoorn katha samras hoke padhi!

अंजना said...

good stroy

रश्मि प्रभा... said...

chidiyaa ne jeena sikha diya....aankhon mein wahi aapsi vishwaas laut aaya , bahut achhi kahani...jivan ka satya

पूनम श्रीवास्तव said...

aadarniya mam,
mai vyastataon ke karan iske pahle ki teen kist to nahi padh paai,par ye antim bhag padhkarhi laga jaise puri kahani ka chal chitra ki tarah aakhon ke aage ghum gaya.
iskahani ki antim panktiyon ne jaise
apne ko bhi vishwas se bhar diya ho.
antatah shri.mati ji ka faisala bilkul sahi tha.
chidiya ne hi sahi unhe jeene ka rasta dikha kar tanavmukt kar diya.
poonam

The Straight path said...

शानदार पोस्ट आभार

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर अंत किया इस सुंदर कहानी का, आप का धन्यवाद

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

कहानी बहुत ही सुखद और सुखान्त रही!
--
इसे पढ़वाने के लिए आपका आभार!

vandana gupta said...

इस कहानी का यही अंत होना था और बहुत सुखकर लगा…………बस मानव मन मानना नही चाहता मोह की बेडियाँ तोड्ना नही चाहता वरना आकाश अनंत है।

प्रवीण पाण्डेय said...

बच्चों को उड़ानों के लिये गगन प्रस्तुत करना है, यही हमारा कर्तव्य हो ।

shikha varshney said...

वाह बहुत ही खूबसूरती से अंत किया है कहानी का ..बच्चों की उड़ान में हम बढ़ा क्यों बने उससे अच्चा है हम खुद को ही नए पंख लगा लें ..
बहुत बढ़िया.

दिगम्बर नासवा said...

Bahut hi achhaa ant kiya hai is kahaani ka aapne ... jitna jaldi ho sake ... is moh se choot jaana hi behtar hai ...

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

इंतजार कर रहे थे हम कि एक्के बार लिखेंगे... लेकिन एतना सुंदर और प्रेरक कहानी पढने के बाद मन बहुत भावुक हो गया... लेकिन सच्चाई से भरा और पोजिटिभ अंत की हैं आप…धन्यवाद!!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत भावपूर्ण अंत हुआ कहानी का...और सुखद भी...ज़रूरत है मोह भंग करने की ...

Sadhana Vaid said...

बहुत ही सुन्दर और तर्कपूर्ण समापन किया आपने कहानी का ! आज के बच्चों की जैसी महत्वाकांक्षाएं हैं और मानसिकता है उसके साथ इसी तरह अपना मोह त्याग कर और अपनी अपेक्षाओं को समाप्त करके ही सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है ! चिड़िया चिरौटे का मानवीकरण करके आपने बहुत ही अच्छा और सार्थक सन्देश दिया है ! मन पर गहरा प्रभाव छोडती है कहानी ! सशक्त लेखन के लिये बहुत बहुत बधाई !

Aruna Kapoor said...

बहुत सुंदर कहानी है...अंत में लिया गया निर्णय मन को छू गया!... बधाई निर्मला जी!

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसे 11.07.10 की चर्चा मंच (सुबह 06 बजे) में शामिल किया गया है।
http://charchamanch.blogspot.com/

rashmi ravija said...

अक्सर ऐसा होता है..जब तक हमारे मन लायक कुछ नहीं होता हमारा ध्यान उधर ही लगा होता है...और जब मनचाहा मिल जाता है,तब हम निरपेक्ष होकर सोच पाते हैं. इस मनस्थिति का बहुत सुन्दर चित्रण किया है..
बहुत ही बढ़िया रही,कहानी

पंकज मिश्रा said...

निर्मला जी!
शानदार और भावनापूर्ण पोस्ट। बधाई और धन्यवाद

विनोद कुमार पांडेय said...

बहुत भावपूर्ण... माता जी आपके कहानी की सबसे बढ़िया बात यहीं होती है की बिल्कुल अपने लोगों अपने समाज के पास से जाती हुई होती है तनिक भी अलग भाव या भटकाव नही लगता यह प्रस्तुति भी लाजवाब...

जब आप भारत से बाहर थी तो हम सभी ऐसे सुंदर भावपूर्ण कहानी को मिस कर रहे थे...अब देखिए सब कितने खुश है...ऐसे ही लिखते रहिए और हम सब भी कुछ आपसे अच्छा भावपूर्ण लेखन सीखते रहें....प्रणाम माता जी

रचना दीक्षित said...

बहुत भावपूर्ण अंत हुआ कहानी का जीवन में एक नई उर्जा का संचार करती कहानी

Dr.Ajmal Khan said...

शानदार पोस्ट,बधाई निर्मला जी...

अनामिका की सदायें ...... said...

अंत में यथार्थ के धरातल पर ला दिया कहानी को. और यही सत्य है...और शायद यही उचित भी.

सुंदर सशक्त लेखन और कहानी.

आभार.

दीपक 'मशाल' said...

यही कहूँगा कि आपसे काफी कुछ सीखा कहानी लेखन के बारे में.. अब आपकी क्या तारीफ़ करुँ??

gaurtalab said...

mere blog par aakar mera hausla badhane ka bahut-bahut shukriya nirmala ji...aapke blog se kuch sikh saku ab yahi prayas hai...PAWAN

देवेन्द्र पाण्डेय said...

मुझे विश्वास था की कहानी का अंत यही होगा. देर से आया आपके ब्लाग में लेकिन मुझे यह कहानी याद थी.
..आभार.

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