08 July, 2010

आनन्त आकाश

अनन्त आकाश--भाग -3
पिछली कडी मे आपने पढाकि मेरे घर के आँगन मे पेड पर कैसे चिडिया और चिडे का परिवार बढा और कैसे उन्हों ने अपने बच्चों के अंडों से निकलने से ले कर उनके बडे होने तक देख भाल की---- पक्षिओं मे भी बच्चों के लिये इस अनूठे प्यार को देख कर मुझे अपना अतीत याद आने लगता है। ब्च्चों को कैसे पढाया लिखाया ।वो विदेश चले गयी बडे ने वहीं शादी कर ली पिता पुत्र की नाराज़गी मे माँ कैसे पिस रही है-- अब आगे पढें-----

बेटे के बेटा होने की खुशखबरी जब इन्हें सुनाई इनके चेहरे पर खुशी की एक किरण भी दिखाई नही दी--- मैने बात आगे बढाने की कोशिश की---
:" देखिये बहु भी अभी बच्ची ही है वो अकेली कैसे बच्चे को सम्भालेगी? इस समय उन्हें हमारी जरूरत है हमे जाना चाहिये"। मैने डरते हुये इनसे कहा। मगर वही बात हुये इनको गुस्सा आ गया--
"हाँ आज उन्हें हमारी जरूरत है तो हम जायें मगर बहन की शादी पर हमे भी तो उसकी जरूरत थी तब क्यों नही आया था।"
तब उसे गये समय ही कितना हुया था हो सकता है कि उसके पास तब इतने पैसे ही न हों फिर उसने कहा भी था कि इतनी जल्दी मै नही आ सकता आप शादी की तारीख छ: आठ माह आगे कर लें मजबूरी थी उसकी।" मैने बेटे का पक्ष लेने की कोशिश की।
"देखो मै तुम्हें नही रोकता तुम्हें जाना है तो जाओ मगर मैं अभी नही जा सकता। तुम देख रही हो मै बीमार हूँ बी पी कितना बढ रहा है। फिर वहाँ कुछ हो गया तो उनके लिये मुसीबत हो जायेगी। मुझे फिर कभी कहना भी नही मैने मन को पक्का कर लिया है । उनके बिना भी जी लूँगा ।वो वहीं मौज करें।"
गुस्सा इनका भी सही था। मगर माँ का दिल अपनी जगह सही था। माँ भी किस तरह कई बार बाप और बच्चों के बीच किस को चुने वाली स्थिती मे आ जाती है
 पति की बात जितनी सही लगती है बच्चों की नादानी उतनी ही छुपाने की कोशिश मे खुद पिस जाती है। भारतीय नारी के लिये पति के उसूल बच्चों की मोह ममता पर भारी पड जाते हैं। मै भी मन मसूस कर रह गयी । समझ गयी कि अब बेटा हाथ से गया। अगर अब हम चले जाते तो भविष्य मे आशा बची रहती कि वो कभी लौट आयेगा। अब शायद वो भी नाराज़ हो जाये।

मन आज कल उदास रहने लगा था। जब से रिटायर हुयी हूँ तब से तो बहुत अकेली सी पड गयी हूँ।पहले तो स्कूल मे फिर भी दिल लगा रहता था। चार लोगों मे उठना, बैठना, दुख सुख बँट जाते थे। अब घर मे अकेलापन सालता रहता है बच्चों की याद आती है छुप कर रो लेती हूँ। मगर ये जब से रिटायर हुये हैं इन्हों ने एक नियम सा बना लिया है-- सुबह उठ कर सैर को जाना,नहा धो कर पूजा पाठ करना ,फिर नाश्ता कर के किसी गरीब बस्ती की ओर निकल जाना। वहाँ गरीब बच्चों को इक्ट्ठा कर के पढाना और सब की तकलीफें सुनना ,ागर किसी के काम आ सके तो आना।दोपहर को आराम करना फिर शाम को सैर,पूजा पाठ, खबरें सुनना खाना खा कर टहलना और सो जाना। मगर मै कुछ आलसी सी हो गयी थी। मै अभी अकेलेपन की ज़िन्दगी और बच्चों के मोह से अपने आप को एडजस्ट नही कर पा रही थी।---
" क्या बात है आज नाश्ता पानी मिलेगा कि नहीं।"इनकी आवाज़ सुन कर मै वर्तमान मे लौटी। पक्षी अभी भी चहचहा रहे थे।
नाश्ता बना कर इनके सामने रखा और खुद भी वहीं बैठ गयी।
"ापना नाश्ता नही लाई क्या आज नाश्ता नही करना है।"
"कर लूँगी, अभी भूख नही।"
ये कुछ देर सोचते रहे फिर बोले--
"राधा,तुम सारा दिन घर मे अकेली रहती हो-- मेरे साथ चला करो। तुम्हारा समय भी पास हो जायेगा और लोक सेवा भी।"
" सोचूँगी--- अपने बच्चों के लिये तो कुछ कर नही पाई, बेचारों को मेरी जरूरत थी। आखिर मे कन्धे पर तो वो ही उठा कर ले जायेंगे।" मन का आक्रोश फूटने को था।
मुझे किसी से उमीद नही जो देखना है जिन्दा रहते ही देख लिया मर कर कौन देखता है। बाके कन्धे की बात  तो जब मर ही गये तो कोई भी उठाये नही उठायेंगे तो जब पडौसियों को दुर्गन्ध आयेगी तो अप-ाने आप उठायेंगे। मै इन बातों मे विश्वास नही करता।"
मेरी आँखें बरसने लगी और मै उठ कर अन्दर चली गयी। ये नाश्ता कर के अपने काम पर चले गये।"
रात को जब खाना खाने बैठे तो बोले---
"राधा ऐसा करो तुम बेटे के पास हो आओ मै टिकेट बुक करवा देता हूँ। तुम्हारा मन बहल जायेगा। मगर मैं नही जाऊँगा।"  क्रमश:

41 comments:

वाणी गीत said...

रोचकता और उत्सुकता बनी हुई है ...!

ओम आर्य said...

यहीं हूँ निर्मला जी,
कहानियों को पढने के लिए जिस कैफियत की जरूरत होती है..वो कई बार नहीं होती. तो उसमें छूट जाती हैं कई अच्छी रचनाएं. हाँ मुझे फिर से सक्रिय होना है और उसके लिए ऊर्जा जुटा रहा हूँ...

प्रज्ञा पांडेय said...

kahani bahut rochak ban rahi hai ..aisa lagata hai ki ant kuchh adbhut samaa bandhega ..

seema gupta said...

रिश्तो का ताना बाना कुछ ऐसा ही होता है , बेहद रोचक लग रही है कहानी और आज की कड़ी में कुछ दर्द भी उभर आया है आगे का इंतजार.....
regards

देवेन्द्र पाण्डेय said...

hm panchhiyon se hii siikh kyon nahin lete..?
chuga ke daana, sikha ke udna
tode mayajal panchhi tode mayajal.
..achhi lag rahi hai kahanii.

Udan Tashtari said...

कहानी बांधे हुए है..जारी रहिये.

Smart Indian said...

रोचक! दोनों पक्ष अपनी अपनी जगह सही दिख रहे हैं.

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

is bhaag ke saath saath pichhle do bhaag bhi padhe abhi....achha laga!

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

रोचकता और उत्सुकता बनी हुई है... बहत अच्छी लग रही है कहानी.... अब आगे का इंतज़ार है...

सदा said...

कहानी में उत्‍सुकता बरकरार है, अब आपकी अगली कड़ी का इन्‍तजार है,बधाई सुन्‍दर लेखन के लिये ।

kshama said...

Kayi maaon dilon ki yah daastan hai..! Bahut sahajtaa aur khoobsoorti se bayaan ho rahi hai..kautuhal bana rahta hai..!

P.N. Subramanian said...

मै सोच रहा था जिनके बेटे नहीं हैं उन्हें कौन कन्धा देगा. अच्छी लग रही है.

Ria Sharma said...

Nirmala ji

Zindagii ka sach hai...samajhna hee padega ...

mooh apnee jagah theek hai...lekin ek umra ke baad pati ke saath hee taalmel bana lena hoga ..

vahee to mitr rah jaten hain, vahee dukh -sukh ke sathee bhee !

bachche apnee zindagii main vyast. maa ke sneh aur ashirvaad se saraboor !

Aurat ke dil kee kashmash aur chatpatahat, sneh aur dayitv ko nibhati aurat.

sundar abhivyakti !

इस्मत ज़ैदी said...

निर्मला जी ,
कष्ट दायक सत्य है लेकिन जिस के जीवन में जो है उसे तो स्वीकार करना पड़ता है ,औरत हमेशा ही दोराहे पर होती है एक रास्ता पति की ओर जाता है दूसरा बच्चों की ओर,
कहानी की अगली कड़ी का इंतेज़ार रहेगा

Rajeev Bharol said...

रोचक कहानी. अगले अंक का इन्तज़ार है.

रश्मि प्रभा... said...

dard aur mamta...bahut hi saargarbhit kahani hai

arvind said...

रोचकता और उत्सुकता बनी हुई है... अब आगे का इंतज़ार है...

Aruna Kapoor said...

जब बच्चे बडे बन जाते है...वे भी माता-पिता बन जाते है तो उन्हें अपने मां-बाबा याद आते है!...इसलिए आते है कि उनमें अभी भी अपनत्व शेष है!...जरुरत पडने पर सहारा देने वाले वही होते है!... आज की 80% पिढी इसी राह पर चल रही है!...लेकिन मां-बाबा का गलत फायदा उठाना बहुत ही गलत है!..कहानी यही वास्तविकता सामने रख रही है. धन्यवाद निर्मला जी!

vandana gupta said...

बात तो सही है कि जब बच्चों को परवाह नही तो ? मगर एक माँ तो हमेशा एक माँ ही होती है बच्चे बेशक ना समझें मगर माँ हर परिस्थिति को समझती भी है और पति और बच्चों के बीच पुल का काम करती है……………कहानी बेहद रोचक चल रही है अब अगली कडी का इंतज़ार है।

रचना दीक्षित said...

दर्द, ममता, मर्म रोचकता का समिश्रण. उत्सुकता बरक़रार है. अगली कड़ी का बेसब्री से इन्तजार है.

shikha varshney said...

दर्द भरी किश्त रही ये ..रोचकता बरक़रार है.

दिगम्बर नासवा said...

कहानी में यथार्थ छिपा है ...काड़ुवा सच है ... माँ की वेदना और पिता के आसूलों में माँ की वेदना अक्सर हार जाती है .... पर पुत्र का गर्म खून इस बात को समझ नही पाता ... इंतज़ार है आगे की कड़ी का ...

Shah Nawaz said...

2000 करोड़ की संपत्ति की मालकिन, एक नव-यौवना को तलाश है मिस्टर राइट की!

क्या अब आपका नंबर है? ;-)

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

यथार्थ से जुडी अच्छी कहानी....शायद हर माँ ऐसी ही स्थिति से गुज़रती है..

rashmi ravija said...

उत्सुकता बनी हुई है...पिता और बच्चे के बीच माँ की स्थिति को बहुत अच्छी तरह बताया है...

gaurtalab said...

आपकी अगली कड़ी का इन्‍तजार है,बधाई सुन्‍दर लेखन के लिये...

Unknown said...

आपकी लेखनी में जो प्रवाह और लयबद्धता है वह पाठक के आनन्द को दुगुना कर देती है......

आभार

ज्योति सिंह said...

do patan ke beech aksar aurat anaj ki tarah dheere dheere ,thodi thodi peesati jaati hai ,doosaro ko jodne ki lalak liye .phir bhi gaanth suljha nahi paati ,haan khud jaroor uljha jati hai .sundar katha .

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

Marmik prastuti.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

कथा की यह कड़ी भी सुन्दर रही!

Mithilesh dubey said...

vyasata hone ke karan pichla bhag nahi padh paya, pahle use padhta hun, aaj ki post badhiya lagi

सूर्यकान्त गुप्ता said...

यथार्थ का चित्रण। हमारे बच्चे अभी महाविद्यालय व उच्चतर माध्यमिक विद्यालय मे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं देखें आगे क्या होता है। हमे भी गर्व होता है। आई आई टी निकाल ले अच्छा पढ़ ले और अच्छी नौकरी कर ले। परिणाम देखकर अब थोड़ी थोड़ी झिझक हो रही है, डर लग रहा है क्या होगा। बहुत सुन्दर प्रस्तुति। आभार्……

Sadhana Vaid said...

आज के शिक्षित समाज की जीवन शैली के निर्मम सत्य को उजागर करती एक यथार्थपरक एवं मर्मस्पर्शी कहानी ! उत्सुकता बनी हुई है ! अगली कड़ी की प्रतीक्षा है !

S.M.Masoom said...

कहानी रोचक है,अंदाज़ भी बड़ा प्यारा है. आगे क्या?

मनोज कुमार said...

रोचकता और उत्सुकता बनी हुई है ...!

राजेश उत्‍साही said...

निर्मला जी आपके ब्‍लाग में बार आता हूं पर लौट जाता हूं। कारण यह है कि यह पूरी तरह दिखने में बहुत समय लगाता है। आप अन्‍यथा न लें,तो एक बात कहना चाहता हूं कि इसका टेम्‍पलेट कृपया बदलिए। इसमें बहुत सारी डिजायन हैं जिनके कारण यह लोड होने में समय लेता है। दूसरी बात कहानी को पढ़ने में ज्‍यादा एकाग्रता की जरूरत होती है। मूल पाठ के दोनों तरफ यह डिजायन एकाग्रता में बाधा पहुंचाती है। अगर टेम्‍पलेट सादा हो,जैसे कि आपके दूसरे ब्‍लाग का है, तो मुझ जैसे पाठकों को बहुत मदद मिलेगी।
निर्मला जी यह केवल एक पाठकीय और आत्‍मीय सुझाव है। शुभकामनाएं।

निर्मला कपिला said...

राजेश जी आपके सुझाव के लिये शुक्रिया। मगर इसके लिये अभी कुछ दिन लगेंगे ये काम मेरे बस का नही जब बच्चे आयेंगे तभी हो पायेगा। सुझाव सही है। धन्यवाद।

ZEAL said...

कहानी रोचक है..उत्सुकता बनी हुई है!

Ashish (Ashu) said...

अरे आप ने क्रमशः क्यू लगा दिया...वॆसे आपने सच कहा कि बच्चो की नादानी में मां खुद पिस जाती हॆ।....मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गये...

हरकीरत ' हीर' said...

निर्मला जी ,

आपकी ही अपनी आपबीती hai n ....?

स्त्री कहाँ कहाँ समझौते नहीं करती .....सब समय का फेर है ....हमसे तो पक्षी achhe hain ...उम्मीद तो नहीं रहती ....!!

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

कहानी दिल को छू रही है....आगामी कडी जरा शीघ्र पोस्ट कीजिएगा.

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