कहानी
ये कहानी भी मेर पहले कहानी संग्रह् वीरबहुटी मे से है कई पत्रिकाओंओं मे छप चुकी है और आकाशवाणी जालन्धर पर भी मेरी आवाज मे प्रसारित हो चुकी है। जिस कहानी का पिछली पोस्ट मे वायदा किया था, उसे अभी टाईप नही कर सकी ।तब तक इसे पढिये।
अगर आप आदरणीय श्री प्रान शर्मा जी गज़लें पढना चाहते हैं तो यहाँ पढें।
http://www.mahavirsharma.blogspot.com/
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अनन्त आकाश-- भाग- 1
मेरे देखते ही बना था ये घोंसला, मेरे आँगन मे आम के पेड पर---चिडिया कितनी खुश रहती थी और चिडा तो हर वक्त जैसी उस पर जाँनिस्सार हुया जाता था। कितना प्यार था दोनो मे! जब भी वो इक्कठे बैठते ,मै उन को गौर से देखती और उनकी चीँ चीँ से बात ,उनके जज़्बात समझने की कोशिश करती।--
"चीँ--चीँ चीँ---ाजी सुनते हो? खुश हो क्या?"
"चीँ चीँ चेँ-- बहुत खुश देखो रानी अब हमारा गुलशन महकेगा जब हमारे नन्हें नन्हें बच्चे चहचहायेंगे।"" चिडा चिडिया की चोंच से चोंच मिला कर कहता ।
"चीँ चीँ चीँ-- तब हमारे घर बहारें ही बहारें होंगी।" चिडिया उल्लास से भर जाती।
दोनो प्यार मे चहचहाते दूर गगन मे इक्कठे दाना चुगने के लिये उड जाते। फिर शाम गये अपने घोंसले मे लौट आते।मक़ि सुबह उठ कर जब बाहर आती हूँ दोनोउडने के लिये तैयार होते हैं ।उनको पता होता है कि मैं उन्हेंदाना डालूँगी ,शायद इसी इन्तज़ार मे बैठे रहते हों। इसके बाद मैं काम काज मे व्यस्त रहती और शाम को ज्क़ब चाय पी रही होती तो लौट आते।
बरसों पहले कुछ ऐसा ही था हमारा घर और हम।37 वर्ष पहले शादी हुयी ,फिर साल बाद ही भरा पूरा परिवार छोड कर हम शहर मे आ बसे। इस शहर मे इनकी नौकरी थी। घर सजा बना लिया। दो लोगों का काम ही कितना होता है। ये सुबह ड्यूटी पर चले जाते मै सारा दिन घर मे अकेली उदास परेशान हो जाती। 3-4 महीने बाद मुझे भी एक स्कूल मे नौकरी मिल गयी। फिर तो जैसे पलों को पँख लग गये----समय का पता ही नही चलता। सुबह जाते हुये मुझे स्कूल छोड देते और लँच टाईम मे ले आते। बाकी समय घर के काम काज मे निकल जाता। रोज़ कहीँ न कहीं घूमने, कभी फिल्म देखने तो कभीबाजार तो कभी किसी दोस्त मित्र के घर चल जाते--- चिडे चिडी की तरह बेपरवाह----। अतीत के पन्नो मे खोई कब सो गयी पता ही नही चला
सुबह उठी तो देखा कि चिडिया दाना चुगने नही गयी चिडा भी आस पास ही फुदक रहा था। पास से ही कभी कोई दाना उठा कर लाता और उस की चोंच मे डाल देता। कुछ सोच कर मैं अन्दर गयी और काफी सारा बाजरा पेड के पास डाल दिया। तकि उन्हें दाना चुगने दूर न जाना पडे।उसके बाद मैं स्कूल चली गयीजब आयी तो देखा चिडिया अकेली वहीं घोंसले अन्दर बैठी थी।मुझे चिन्ता हुयी कि कहीं दोनो मे कुछ अनबन तो नही हो गयी? तभी चिडा आ गया और जब दोनो ने चोँच से चोँच मिलायी तो मुझे सकून हुया। देखा कि चिडा घोंसले के अन्दर जाने की कोशिश करता तो चिडिया उसे घुसने नही देती मगर वो फिर भी चिडिया के सामने बैठा कभी कभी उसे कुछ खिलाता रहता।मै उन दोनो की परेशानी समझ गयी चिडिया अपने अन्डौं को से रही थी दोनो अन्डों को ले कर चिन्तित थे। माँ का ये रूप पशु पक्षिओं मे भी इतना ममतामयी होता है देख कर मन भर आया।
कुछ दिन ऐसे ही निकल गयी मैं रोज बाजरा आदि छत पर डाल देती एक दोने मे पानी रख दिया था ताकि उन्हें दूर न जाना पडे।
उस दिन रात जल्दी नीँद नहीं आयी।सुबह समय पर आँख नहीं खुली, वैसे भी छुट्टी थी। चिडियों का चहचहाना सुन कर बाहर निकली तो देखा धूप निकल आयी थीपेड पर नज़र गयी तो वहाँ चिडियी के घोंसले मे छोटे छोटे बच्चे धीमे से चिं चिं कर रहे थी।चिडिया अन्दर ही उनके पास थी।चिडा बाहर डाल पर बैठ कर चिल्ला रहा था जैसे सब को बता रहा हो और् आस पास पक्षिओं को न्यौता दे रहा हो कि उसके घर बच्चे हुये हैं। मै झट से अन्दर गयी और घर मे पडे हुये लड्डू उठा लाई उनका चूरा कर छत पर डाल दिया--। इधर उधर से पक्षी आते अपना अपना राग सुनाते और लड्डूऔं खाते और चीँ चेँ करते उड जाते। आज आँगन मे कितनी रौनक थी--- ।
ऐसी ही रौनक अपने घर मे भी थी जब मेरा बडा बेटा हुया था।--- क्रमश:
"चीँ--चीँ चीँ---ाजी सुनते हो? खुश हो क्या?"
"चीँ चीँ चेँ-- बहुत खुश देखो रानी अब हमारा गुलशन महकेगा जब हमारे नन्हें नन्हें बच्चे चहचहायेंगे।"" चिडा चिडिया की चोंच से चोंच मिला कर कहता ।
"चीँ चीँ चीँ-- तब हमारे घर बहारें ही बहारें होंगी।" चिडिया उल्लास से भर जाती।
दोनो प्यार मे चहचहाते दूर गगन मे इक्कठे दाना चुगने के लिये उड जाते। फिर शाम गये अपने घोंसले मे लौट आते।मक़ि सुबह उठ कर जब बाहर आती हूँ दोनोउडने के लिये तैयार होते हैं ।उनको पता होता है कि मैं उन्हेंदाना डालूँगी ,शायद इसी इन्तज़ार मे बैठे रहते हों। इसके बाद मैं काम काज मे व्यस्त रहती और शाम को ज्क़ब चाय पी रही होती तो लौट आते।
बरसों पहले कुछ ऐसा ही था हमारा घर और हम।37 वर्ष पहले शादी हुयी ,फिर साल बाद ही भरा पूरा परिवार छोड कर हम शहर मे आ बसे। इस शहर मे इनकी नौकरी थी। घर सजा बना लिया। दो लोगों का काम ही कितना होता है। ये सुबह ड्यूटी पर चले जाते मै सारा दिन घर मे अकेली उदास परेशान हो जाती। 3-4 महीने बाद मुझे भी एक स्कूल मे नौकरी मिल गयी। फिर तो जैसे पलों को पँख लग गये----समय का पता ही नही चलता। सुबह जाते हुये मुझे स्कूल छोड देते और लँच टाईम मे ले आते। बाकी समय घर के काम काज मे निकल जाता। रोज़ कहीँ न कहीं घूमने, कभी फिल्म देखने तो कभीबाजार तो कभी किसी दोस्त मित्र के घर चल जाते--- चिडे चिडी की तरह बेपरवाह----। अतीत के पन्नो मे खोई कब सो गयी पता ही नही चला
सुबह उठी तो देखा कि चिडिया दाना चुगने नही गयी चिडा भी आस पास ही फुदक रहा था। पास से ही कभी कोई दाना उठा कर लाता और उस की चोंच मे डाल देता। कुछ सोच कर मैं अन्दर गयी और काफी सारा बाजरा पेड के पास डाल दिया। तकि उन्हें दाना चुगने दूर न जाना पडे।उसके बाद मैं स्कूल चली गयीजब आयी तो देखा चिडिया अकेली वहीं घोंसले अन्दर बैठी थी।मुझे चिन्ता हुयी कि कहीं दोनो मे कुछ अनबन तो नही हो गयी? तभी चिडा आ गया और जब दोनो ने चोँच से चोँच मिलायी तो मुझे सकून हुया। देखा कि चिडा घोंसले के अन्दर जाने की कोशिश करता तो चिडिया उसे घुसने नही देती मगर वो फिर भी चिडिया के सामने बैठा कभी कभी उसे कुछ खिलाता रहता।मै उन दोनो की परेशानी समझ गयी चिडिया अपने अन्डौं को से रही थी दोनो अन्डों को ले कर चिन्तित थे। माँ का ये रूप पशु पक्षिओं मे भी इतना ममतामयी होता है देख कर मन भर आया।
कुछ दिन ऐसे ही निकल गयी मैं रोज बाजरा आदि छत पर डाल देती एक दोने मे पानी रख दिया था ताकि उन्हें दूर न जाना पडे।
उस दिन रात जल्दी नीँद नहीं आयी।सुबह समय पर आँख नहीं खुली, वैसे भी छुट्टी थी। चिडियों का चहचहाना सुन कर बाहर निकली तो देखा धूप निकल आयी थीपेड पर नज़र गयी तो वहाँ चिडियी के घोंसले मे छोटे छोटे बच्चे धीमे से चिं चिं कर रहे थी।चिडिया अन्दर ही उनके पास थी।चिडा बाहर डाल पर बैठ कर चिल्ला रहा था जैसे सब को बता रहा हो और् आस पास पक्षिओं को न्यौता दे रहा हो कि उसके घर बच्चे हुये हैं। मै झट से अन्दर गयी और घर मे पडे हुये लड्डू उठा लाई उनका चूरा कर छत पर डाल दिया--। इधर उधर से पक्षी आते अपना अपना राग सुनाते और लड्डूऔं खाते और चीँ चेँ करते उड जाते। आज आँगन मे कितनी रौनक थी--- ।
ऐसी ही रौनक अपने घर मे भी थी जब मेरा बडा बेटा हुया था।--- क्रमश:
31 comments:
इन्तजार है अगले भाग का।
चिडी चिडे के बहाने मनुष्य की रोचक /दर्दभरी दास्ताँ ?
वाह जी! बहुत बढिया,
इंतजार है अगले भाग का
शुभकामनाएं
agalee kadee kee pratiksha me.
कभी कभी मुझे लगता हॆ हिन्दी ब्लाग जगत मे मॆ तुम्हारा गाल बजाऊ मे तुम मेरा गाल बजाना वाली हालत हो गयी हॆ इसी लिये मॆ टिप्पणी से परहेज करता हू पर कभी कभी ऎसी रचना मिल जाती हॆ जो दिल को छू जाती हॆ..आप की रचना पढकर मुझे अपने दिन याद आ गये मेरे सुलतानपुर वाले घर मे मॆ जब से हर साल बुलबुल अपना घोसला बनाती थी ये सिलसला कब से चला आ रहा था मुझे याद नही..मॆ जब मादा बुलबुल घोसले मे रहती तब उसे भात ऒर अगूर खिलाता वो भी मेरे हाथ से खा लेती थी उसके बच्चे जब उडने लायक हो जाते तो मेरे कमरे मे खुब उडते...अभी १५ दिन पहले २-३ साल बाद सुलतानपुर वाले घर गया देखा अभी भी बुलबुल अपना घोसला बनायी हे पर अभी ३ अन्डे ही थे...
चिड़िया के माध्यम से जीवन की सरस कथा ,आगे का इंतजार ।
कहानी तो बहुत रोचक चल रही है………अगली कडी का इंतज़ार है।
Badi manbhavan katha shuru kee hai!
Mera bhi man kar raha hai,ki,yah chun chee ruke nahi...!
मार्मिक कथा रोचकता अन्त तक बरकरार रही!
बहुत अच्छी लाघी अगली कडी का इंतजार है
जिंदगी को छूती ही रचना, अगली कड़ी का इंतजार रहेगा।
................
अपने ब्लॉग पर 8-10 विजि़टर्स हमेशा ऑनलाइन पाएँ।
JAADOO JAGAATEE AAPKEE LEKHNEE KO
PRANAAM.
अच्छी कथा. अगली कडी का इंतजार है...
वाह्! कहानी की शुरूआत तो बहुत दमदार है....आगामी भाग की प्रतीक्षा रहेगी.
कहानी की शुरुआत बहुत ही रोचक है...आगे का इंतजार है!
कहानी बहुत रोचक चल रही है. अगली कडी का इंतज़ार है......।
शुरुआत यो बहुत रोचक है अब आगे......
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसे ०४7.0७.10 की चर्चा मंच (सुबह 06 बजे) में शामिल किया गया है।
http://charchamanch.blogspot.com/
आपकी कहानिया पढ़ने की इतनी आदत हो गयी है की कुछ दिन न दिखे तो इंतज़ार होने लगता है.
बहुत बहुत शुक्रिया निर्मला जी ,
आपकी कल्पनाओं .सपनों और कहानियों के ख़ूबसूरत और रूहानी शहर ने तो मेरी रूह को भी जैसे
क़ैद कर लिया है और वो रिहा होना भी नहीं चाहती ,मुन्तज़िर है .........
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
कहानी बहुत रोचक चल रही है. अगली कडी का इंतज़ार है !
रोचक प्रारम्भ ।
एक माँ की दृष्टि कहाँ कहाँ अपने जायों को देख लेती है, प्रकृति के कण कण से जुड़ जाती है, संवेदनशील हो जाती है...........आपकी पूरी सोच काफी कोमल और प्रभावशाली है
अगली कडी का इंतजार है ..
कहानी बहुत रोचक चल रही है. :-)
manmohak dhang se badh rahi hai kahani..bahut khoob.
बहुत ही प्यारी कहानी है और आपका अपनी कहानी के परिप्रेक्ष में इसे कहना तो अति सुंदर । बधाई । अगली कडी का इन्तज़ार है ।
आप बहुत संवेदनशील लिखती हैं ... शुरुआत से ही दिलचस्पी बन जाती है कहानी में ... अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी ....
निर्मला माँ,
पैरी पौना!
तुहाडी एही आदत मैनू बिलकुल वी पसंद नी है! हुन फिर छड दित्ती हैगी कहानी बीच में!! जदों वी स्वाद आन लगदा है, तुस्सिं प्लेट ही चक लेने हन!!!
कोई नी अप्पा वी अँखियाँ उडीकेंगे अगले भाग दे लई.....
आशीष, फिल्लौर
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इट्स टफ टू बी ए बैचलर!
ये चिड़ा चिड़ी की प्यार भरी दास्ताँ सच में रोमांचित कर गयी.....और बहुत सी मीठी यादे ताजा भी....
regards
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