05 February, 2010

भूख
लघु कथा
मनूर जैसा काला, तमतमाया चेहरा,धूँयाँ सी मटमैली आँखें,पीडे हुये गन्ने जैसा सूखा शरीर ,साथ मे पतले से बीमार बच्चे का हाथ पकडे वो सरकारी अस्पताल मे डाक्टर के कमरे के आगे
लाईन मे खडा अपनी बारी की इन्तज़ार कर रहा था। मैं सामने खडी बडे देर से उसकी बेचैनी देख रही थी। मुझे लगा उसे जरूर कोई बडी तकलीफ है। वैसे तो हर मरीज बेचैनी और तकलीफ मे होता है मगर मुझे लगा कि उसके अन्दर जैसे कुछ सुलग रहा है, क्यों कि वो अपने एक हाथ की बन्द मुट्ठी को बार बार दबा रहा था-- और बच्चा जब भी उसकी उस मुट्ठी को छूता वो उसे और जोर से बन्द कर लेता।मुझ से रहा न गया,सोचा पता नही बेचारे को कितनी तकलीफ हो,शायद मैं उसकी कुछ सहायता कर सकूँ।---
*भाई साहिब क्या बात है?आप बहुत परेशान लग रहे हैं?* मैने उससे पूछा।
* बहन जी कोई बात नही,बच्चा बिमार है, डाक्टर को दिखाना है। * वो कुछ संभलते हुये बोला।
फिर आप बच्चे को  क्यों झकझोर रहे है, मुट्ठियाँ भीँच कर बच्चे पर गुस्सा क्यों कर रहे हैं?*
*क्या बताऊँ बहन जी, मेरा बच्चा कई दिन से बीमार है। और भरपेट रोटी न दे सकने से भूख से भी बेहाल है।कुछ खाने के लिये मचल रहा है।इस बन्द मुट्ठी मे पकडे पैसों को जो कि मेरा दो दिन की कमाई है इसकी भूख से बचा रहा हूँ।इसे समझा भी रहा हूँ कि बेटा तेरे पेट की भूख से बडी पैसे की भूख है इन पैसों से डाक्टर की पैसे की भूख मिटाऊँगा तब तेरा इलाज होगा। भला गरीब का क्या दो दिन न भी खाने को मिले जी लेगा। मुझे डर है कि मेरी बारी आने से पहले मुझे इसकी भूख तडपा न जाये और डाक्टर की भूख पर डाका डाल ले।* उसकी बात सुन कर मैं सोच रही हूँ कि जब डाक्टर को सरकार से तन्ख्वाह भी मिलती है फिर भी उसे पैसे की भूख है तो इस गरीब की दो दिन की कमाई केवल डाक्टर की फीस चुकाने मे लग जायेगी तो ये परिवार को खिलायेगा क्या???????????


42 comments:

अजित गुप्ता का कोना said...

निर्मलाजी, लघुकथा तो अच्‍छी है परन्‍तु डाक्‍टरों का ऐसा चरित्र-चित्रण?

कुलवंत कमीना said...

बहुत कुछ कहती है लघु कथा। एक प्रेरणा है उनके लिए जो जिन्दगी पर पैसे बचाने के चक्कर में हर रोज आधे भूखे सोते हैं, लेकिन जब बीमार होते हैं तो वो सब पैसा डॉक्टरों के यहाँ दे आते हैं।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

बहुत सुंदर. आज जीवन की सच्चाई यही है.

Udan Tashtari said...

मार्मिक कथा.

दिनेशराय द्विवेदी said...

यह कहानी प्रश्न पैदा करती है कि यह हालत क्यों है? कहीं उस का भी उत्तर मिलना चाहिए.

विनोद कुमार पांडेय said...

kisi ko aur adhik kamane ki hod lagihai aur koi bhukha pet mar raha hai yah hai rahan sahan me antar apane bharat desh ke pariwesh me ek bhavuk kahani sundar bhav..badhiya lagi....prnaam

Kulwant Happy said...

माँ कुलवंत कमीना ही तो लिखा है। मतलब कुलवंत कमी ना। प्यार की इस जहाँ में।

Mithilesh dubey said...

माँ जी चरण स्पर्श
आप का क्या कहना, आप तो हर विधा में पारंगत हैं , आज आपकी लघुकथा दिल को छु गयी , बेहद मार्मिक लगी ।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

मैंने स्वयं इस तरह की घटनाओं को देखा है और उसे लिखा भी है जहां डाक्टर अपने एजेन्ट से कहता है कि मरीज का मरना तो निश्चित है, पहले ही पैसे जमा करा लो.

Randhir Singh Suman said...

आज जीवन की सच्चाई यही है.nice

Apanatva said...

hrdaysparshee vratant..........
ek aur ye nazara doosaree aur hamare neta upchar karane videsh chale jate hai..........

ताऊ रामपुरिया said...

आज के जीवन की हकीकत है ये. कुछ अपवाद भी हो सकते हैं.

रामराम.

संगीता पुरी said...

आज के कटु सत्‍य को चिकत्रत किया है आपने !!

vandana gupta said...

jeevan ke katu satya ko chitrit kiya hai aur sath hi darshaya hai ki aaj insaan ke jameer ka kya haal ho gaya hai.......atyant marmik.

सदा said...

बिल्‍कुल सही, सत्‍य का बोध कराते हुये यह शब्‍द अन्‍तर्मन को झंझोड़ के रख देते हैं, आपकी लेखनी को सलाम जो हर रचना में एक संदेश देती है ।

अनिल कान्त said...

मार्मिक !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

काश कि हमारे मौन सिंह जी इस कहानी को पढ़ पाते !

Razi Shahab said...

bahut achchi story...hamare aaj ki zindgi ki ek talkh haqeeqt...

अन्तर सोहिल said...

कारुणिक
और हकीकत को बयां करती कहानी

प्रणाम स्वीकार करें

ghughutibasuti said...

भयंकर मजबूरी है. किन्तु भूखे पेट कौन सी दवा काम करेगी?
मेरी एक बहुत ही प्रिय सहेली भी नंगल की ही थी.हर बार आपक ब्लॉग पढ़ उसकी याद आती है.
घुघूती बासूती

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

जीवन की सच्चाई के साथ... बहुत अच्छी लगी यह लघु कहानी...

मनोज कुमार said...

दीदी,
बेहद मार्मिक व्यंग्य है।
पक्के मकान वालों के खुलते कहां हैं राज़
बेपर्दा हो ही जाती है कच्चे घरों की बात

वाणी गीत said...

जीवन क्या है ...इन लोगों से पूछे ....
बहुत मार्मिक लघुकथा ...!!

Khushdeep Sehgal said...

पैसे की है पहचान यहां पर,
इंसान की कीमत कोई नहीं,
बच के निकल जा इस बस्ती से,
करता मुहब्बत कोई नहीं...

जय हिंद...

दीपक 'मशाल' said...

मासी मुझे तो आप ये पहले भी पढ़ा चुकी हैं.. :) लेकिन यहाँ पढ़ कर और भी अच्छा लगा..
जय हिंद...

Yashwant Mehta "Yash" said...

जब भी कोई भावनात्मक कथा सामने आती है
तो अन्दर से एक आवाज उठती है
........आखिर कब तक....

sonal said...

सीमित सब्दों में भावनाओ का अनुपम चित्रण.....आभार
http://sonal-rastogi.blogspot.com

Arvind Mishra said...

ओह कितनी कारुणिक कथा

दिगम्बर नासवा said...

बहुत मार्मिक ...... ऐसे कितने ही प्रसंग हमारे आस पास बिखरे रहते हैं पर अपनी कलम से उसमे संवेदना सिमेटना बस आपके बस की ही बात है ...... बहुत भावौक कहानी ..........

डॉ. मनोज मिश्र said...

ह्रदय-स्पर्शी कहानी....

rashmi ravija said...

ओह्ह बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना है ये..हृदयविदारक..

ओम आर्य said...

तभी तो साठ साल हो गए आजादी को और...

ज्योति सिंह said...

bahut hi maarmik rachna aur vicharniye bhi ,ye dekh dukh hi hota ,kab dasha sudheregi dekhe .par aapne likha umda hai .

Amrendra Nath Tripathi said...

निर्मला जी !
आप संवेदनशील लेखिका हैं .. आज आप को
पढ़ते हुए अच्छा लग रहा है .. यह लघु -कथा
अच्छी है ..
चिकित्सक - वर्ग ही ऐसा है ! रक्षक ही भक्षक सा !
आगे भी आपको पढने में अच्छा लगेगा ! आभार !

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

आज के समाज की तल्ख हकीकत ब्याँ करती कथा....
बेहद मार्मिक,करूणकथा!!

राजकुमार ग्वालानी said...

ये अपने हिन्दुस्तान के हर घर की कहानी है
हर गरीब की आंखों में दर्द का पानी है
क्या करें यही गरीबों की जिंदगानी है
डॉक्टरों ने तो पैसे ही कमाने की ठानी है

Asha Joglekar said...

गरीबी का सच !
बहुत दिनों से आप के ब्लॉग पर ( किसी के भी ) नही आ पाई इधर तबीयत कुछ ढीली थी

Akanksha Yadav said...

बेहद मार्मिक लघुकथा.
____________
शब्द-शिखर पर इस बार काला-पानी कहे जाने वाले "सेलुलर जेल" की यात्रा करें और अपने भावों से परिचित भी कराएँ.

Pawan Kumar said...

निर्मला दी
बड़ी ही बेहतरीन लघु कथा...मन को झकझोरने वाली

कडुवासच said...

...गरीबी...गरीबी....मजबूरी-लाचारी....बेहद मार्मिक अभिव्यक्ति !!!

mukti said...

बहुत ही मार्मिक कहानी है. दिल दहल गया इसे पढ़कर. शुक्र है, दिल्ली में सरकारी अस्पताल ऐसे नहीं है. या हो भी सकते हैं, मैंने देखा न हो. लेकिन, राजधानी होने के कारण यहाँ के सरकारी डॉक्टर तो ऐसा नहीं कर पाते. गरीबी रेखा से नीचे के लोगों के लिये येलो कार्ड बना है, जिस पर उन्हें मुफ़्त में कुछ दवायें भी मिल जाती हैं. पर लाइन इतनी लम्बी लगती है कि पूछो मत. लेकिन प्राइवेट क्लीनिक्स में तो गरीब आदमी जाने की सोच ही नहीं सकता.

Himanshu Pandey said...

बेहतरीन कहानी ! आभार ।

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