29 July, 2009

माँ की पहचान ---गतान्क से आगे ---कहानी

``देखिये जिस लडके की शिनाख्त के लिये आपको बुलाया है पता नेहीं कि वो आपका बेटा है या नहीं मगर हमारी जानकारी के अनुसार ये आपका बेटा ही लगता है।इसे किसी आतंकवादी घटना के जुर्म मे पकडा गया है ।अजकलातंकवादी और नशों के सौदागरऐसे भोले भाले लडकों को अपने जाल मे फंसा लेते हैं। एक मुठ्भेड मे उसे गोली लगी है।
``नहीं नहीं ---अपको कोई गलत फैहमी हुई है---मेरा बेटा ऐसा हो ही नहीं सकता। वो बहुत भोला है।``
``आज कल इन संगठ्नों का निशाना ये भोले भाले बच्चे ही हैं।यह सब काम इतने गुपचुप तरीके से होता है किकिसी को कानो कान खबर भी नहीं होती।अपका बेटा भी आर्थिक तंगी का शिकार था पकले नशे मे लगाया फिर संगठन के लिये उससे काम लेने लगे।अज भी एक वारदात को अंजाम देते हुये पोलिस की गोली लगी है।अप जाईये उसे पहचान लीजिये।``
ये मेरे साथ क्या हो गया?क्या माँ इतनी गयी गुजरी चीज़ हो गयी कि उसने एक बार भी उसके बारे मे नहीं सोचा माँ के दिये संस्कार भूल कर वोकिसी बेगाने के पीछे लग गया! मैं उसकी खातिर इतना संघर्ष करती रही वो क्या खुद के लिये भी जरा सा संघर्षना कर सका?
जो ढंग से अपने जीवन को ना संवार सकावो आतंकवादी बन कर किसी कौम,या महजब के लिये क्या कर सकता है? मन क्षोभ और दुख से भर गया।ान्दर से घृणा का एक लावा स उठा। तभी खून से लथपथ उसका शरीर आँखों के सामने घूम गया।खून ने खून को आवाज़ दी,उसे देखने को बेताब हो उठी एक पल के लिये घृणा का स्थान ममता ने ले लिया।ये ममता भी क्या चीज़ है?मगर कदम क्यों नहीं उठ रहे थे?-----
लडखडाते कदम,दम तोडती ममता, अपने माँ होने पर पश्चाताप करते आँसू,लोगों की भेदती नज़रों से झुकी गर्दन लिये चल पडी एक आशा लिये --शायद वो मेरा बेटा ना हो!
उसके साथ वाले बेड के पासेक औरत विलाप कर रही थी। किसी ने उसके बेटे को गोली मार दी थी। मैं धक से रह गयी--- कहीं ये मेरा बेटा हे तो नहीं था जिसने गोली मारी? मन और भी क्रोध से भर गया--।
सामने बेड पर लेटा था-- मेरा बेटा-- कलेजा मुँह को आ गया।अँखों पर सिर और टागों पर पट्टियाँ बन्धी थी। देखते ही मन छटपटा गया--- तडप उठी-- कितना खून बह गया था? चेहरा जर्द पड गया था ।अपने हाथ मे उसका हाथ पकडा---- काँपती थरथराती--- ममता कहाँ मानती है?--उसका हाथ जरा सा हिला शायद उसने मुझे पहचान लिया था--माँ थी ना! बिना देखे उसका एक सपर्श ही काफी होता है-- मगर कुछ बोल ना सका ।
अच्छा है नहीं देख सका नहीं तो उसकी याचना भरी निगाहें देख कर मैं और भी पिघल जाती---- माफ कर देती?---अगर वो आतंकवादी है तो मै भी उसकी माँ हूँ मुझे भी उसकी तरह कठोर बनना आता है---
``अच्छा हुया तेरी आँखों पर पट्टी बन्धी हैवर्ना जब तू मेरी तरफ देखता तो मैं शर्म से तुझ से नज़रें ना मिला पाती। क्यों कि मैने तुम्हें सिर्फ ममता प्यार दिया है धन दौलत ऐशो आराम ना दे पाई।``
``बेटा!जब तू इस दुनिया मे आया था तो मैने अपने ऐशो आराम और धन दौलत की बजाये तुम्हें ही अपनी दौलत और खुशी समझ लिया था। तुझी डाक्टर बनने भेजा तो तेरी माँ होने पर मैं गर्व करने लगी थी।पर आज मेरा सिर शर्म से झुक गया है क्यो?``
``तेरे नन्हें नन्हें कोमल हाथों को अपने हाथों मे ले कर ऐसे सहलाती तो अपने सारे दुख दर्द भूल जाती पर आज तेरे ये हाथ मुझे काटों की तरह जलन दे रहे हैं। मेरी टीस बढ गयी है।``
``और जब् तुमने आँखें खोल कर मुझे देखना शुरू किया था तो वारी न्यारी हो जाती---इनमे सपनों के रंग भरने लग जाती कि तू एक बडा आदमी बनेगा।राज करेगा दुनिया पर--ाउर तू बन्दूक के बल पर दुनिया पर राज करने चला है--- लानत है तेरे इस राज पर।
``जानता है तू पहला शब्द क्या बोला था?,'माँ``। मैं सुन कर धन्य हो गयी थी। तेरे तुतले स्वरों से ताल बनाती सुर सजाती और उन्हीं सुरों की सरगम पर लोरियाँ सुनाती।--ापनी बाहों के झूले झुला कर तुम्हें सुलाती-- तेरी ऊआँ ऊआँ सुनने के लिये अकेली ही तुझ से बतियाती रहती।तेरे स्वर मेरे कानों मे शह्द घोल देते। मुझ पर सू सू करते छी छी करते मैं हँस कर लँगोती पहनाती रहती तेरा गँद प्रसाद समझ कर कबूल करती ।तुम्हें सुन्दर कपडे पहनाती और तुम्हारी छोटी 2 शरारतों पर बलिहारी जाती भरी जवानी मे विधवा होने का गम तेरी हंसी मे भूल जाती
``तेरा एक एक पल खुद जी कर तुझीतना बडा किया।तू चाहे सो भी रहा होता मेरे कदमों की आहट से पहचान लेता आज तू इतना निष्ठुर हो गया कि माँ को ही भूल गया? क्यों पहचानेगा तू मुझे! अब तो तू आतँकवादी है एक बेटा नहीं--- कठोर,भावना रहित,जिसकी कोई माँ नहीं होती--कोई रिश्तेदार नहीं होता,बेत! जो दिल्दुख दर्द से ना पिघले,जो रिश्तों की पहचान भूल जाये,उसका धडकना किस काम का?
``तुम जानते हो कितुम्हें जरा सी तकलीफ होती,मैं तडप उठती।याद है एक दिन्तुम्हारी उँगकी मे चाकू लग गया था। मैने जल्दी से पट्टी बान्धी और रो पडी थी ।क्या तब भी तुम्हें समझ नहीं आयी कि मा को खून बहना बहाना अच्छा नहीं लगता!मैने तुम्हें केवल प्यार करना ही सिखाया था--पए उन जालिमों दुआरा सिखाई गयी नफरत क्या माँ के प्यार से बडी हो गयी?़``
``तू छोटे होते मेरी आँखों मे आँसू नहीं देख सकता था।अज कितनी माँओंकी कोख सूनी कर तू चुपचाप पडा है! माँ तो माँ ही होती है,तेरी हो या किसी और की--किसी भी देश जाती और मजह्ब की हो माँ --माँ ही होती है। माँ की पहचान प्यार और ममता है ।प्यार बिना मजहब देश जाति या धर्म कैसा?``
``जो बेटा माँ की कोख की रक्षा नहीं कर सकता वो किसी देश जाति या मजह्ब की क्या रक्षा कर सकता है?नफरतों के सौदागार तो सब के दुश्मन होते हैं।``बेटा जब से तुम ने मुझे पहचानना शुरू किया था मै अपनी पहचान भूल गयी थी।जीवन के हर लम्हें पर तेरा ही नाम लिख लिया था।मगर आज मैं तुम्हें अपने जीवन से अलग करती हूँअज तू मेरा बेटा नहीं है मै फिर से अपनी पहचान पा गयी हूँ।``
``जानते हो मेरी पहचान क्या है?मेरा कर्म क्या है़?````मेरी पहचान है
'माँ' 'वात्सल्य की देवी'। मेरा कर्म है 'सृ्ष्टी- सृजन' । जीवन देना मेरी 'पहचान' है फिर मैं जीवन लेने वाले को कैसे बेटा मान सकती हूँ-- कैसे अपना सकती हूँ?
तू मुझे चुनौती देने चला है़?तू एक माँ के सृजन का संहार करने चला है? ऐसे बेटे को जन्म देने वाली माँ के मुँह पर संसार थूकेगा।मुझे देख कर कोई भी माँ बेटे को जन्म देते हुये डर से काँप जायेगी।````जा भगवान के पास अपने गुनाहों की सजा पाने।``
``मैं एक मा--सृ्ष्टि की सृजन कर्ता किसी हत्यारे को माफ नहीं कर सकती। मेरे आँ सू भी अब तेरे लिये नहीं बल्कि उन निर्दोश लोगों के लिये हैं जोतेरी बन्दूक से मारे गये।--- कह कर मैने आँखें पोँछी और बाहर आ गयी।
``एस पी साहिब ! वो मेरा बेटा नहीं है।! बाहर आ कर मैने कहा और दृ्ढ कदमों से अस्पताल से बाहर निकल गयी।-----
समाप्त

18 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

"``एस पी साहिब ! वो मेरा बेटा नहीं है।! बाहर आ कर मैने कहा और दृ्ढ कदमों से अस्पताल से बाहर निकल गयी।----- "

सशक्त और प्रेरणादायी कथा के लिए,
बधाई।

श्यामल सुमन said...

सचमुच संवेदनाओं को झकझोरने वाली कहानी। "माँ तो माँ होती है" - सचमुच, लेकिन अन्त में "यह मेरा बेटा नहीं है" ने "मदर इण्डिया" फिल्म की याद दिला दी। बहुत बहुत बधाई निर्मला जी बेहतरीन कहानी के लिए।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Vinay said...
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Vinay said...

कलम की धार तेज़ होती जा रही है
----
ग़ज़लों के खिलते गुलाब

P.N. Subramanian said...

बधाई हो निर्मला जी. माँ के सही रूप के प्रस्तुति के लिए. आभार. .

ताऊ रामपुरिया said...

आपकी रचनाएं बडी सशक्त और मार्मिक होती हैं. बहुत शुभकामनाएं.

रामराम.

Unknown said...

main iski ek kisht nahin padh paaya
ioskaa mujhe afsos hai
lekin samaapan ka aanand avashya liya
ye mera saubhaagya hai

kyaa karun ?

puraani aadat hai..........bachpanh me bhi gurudware tab jaata tha jab bhog pad chuka hota aur prashaad mil raha hota .......

chalo ant bhala toh sab bhala....ha ha ha ha

umda kahaani
aur duniya k sabse umda patra maa ki vandnaa k liye aapko badhaai !

सदा said...

बहुत ही सशक्‍त कहानी, संवेदनाओं को झकझोरती प्रस्‍तुति के लिये बधाई ।

Razi Shahab said...
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Razi Shahab said...

बहुत खूबसूरत कहानी

Science Bloggers Association said...

इस प्रेरणप्रद रचना के लिए बधाई।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

vandana gupta said...

sahi mein maa ki pahchaan batayi hai........ek maa kaisi honi chahiye.........itni dridhta agar uske charitra mein hogi tabhi wo maa hogi...........ek sashakt charitra ko ujagar karti kahaani.........badhayi.

दिगम्बर नासवा said...

एस पी साहिब ! वो मेरा बेटा नहीं है

माँ कितनी कमजोर भी हो सकती है और वक़्त आने पर चंडी भी बन सकती है............... लाजवाब, भावौक, ह्रदय को छूने वाली कहानी है आपकी.............. आपको पढना हमेशा अच्छा लगता है ...........

दर्पण साह said...

"``एस पी साहिब ! वो मेरा बेटा नहीं है।! बाहर आ कर मैने कहा और दृ्ढ कदमों से अस्पताल से बाहर निकल गयी।----- "


...marmsparshi !!

:(

"अर्श" said...

हालाकि ये कहानी मैं पहले ही आपकी पुस्तक वीर बहती में पढ़ चुका हूँ ... और ना जाने कितनी बार... जब भी पढता हूँ आँखें नाम हो जाती है... आपकी इस पुस्तक में और भी बहोत सारी कहानियाँ है जो मानवीय दर्द को सच के साथ सामने रखती है ... मगर जब इस कहानी को मैंने पढ़ी तो बरबस ही अनैतिक कार्यों के लिए जब बच्चे अपनी हद को लाँघ जाते है तो वो एक रिश्ते को अपमानित कर देते है जो स्वभावतः तो नहीं होता मगर हाँ कहीं कहीं उनकी गलती तो होती है ... सच्चाई के बहोत ही करीब है ये कहानी पूरी तरह से सार्थक है .. मानवीय मूल की जड़ें बहोत ही मजबूती से एक रिश्ते को पकड़ के रखती है जिसमे सर्वोच्च स्थान माँ का होता है ... इससे पाक और कोई रिश्ता नहीं... सलाम आपको और आपकी लेखनी को .. सादर चरण स्पर्श ...


अर्श

अनिल कान्त said...

लाजवाब लेखन....लाजवाब कहानी

Urmi said...

शोभना जी, आपने माँ के सही रूप को इतने सुंदर और बखूबी प्रस्तुत किया है कि कहने के लिए अल्फाज़ कम पर गए!

kshama said...

Waah...kya shandaar kataha padhee...alfaaz nahee hain mere paas kuchh bhee pratikrya wyakt karne ke liye..

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