चिँगारी (कहानी )
ये मेरी कहानी सरिता पत्रिका मे मई 15 के अँक मे छप चुकी हैैऔर मेरे कहानी संग्रह प्रेम सेतु मे भी
जीवन मंथन मे नारी के हाथ सदा विष ही लगा है1 आज निर्नय नही ले पा रही थी---------बच्ची का भविष्य ---समाज्के बारे मे सोचती तो नारी अस्तित्व के पहल कर्तव्य् त्याग और समर्पण मुझे रोक लेते----तभी भीतर से एक चिँगारी उठती -----पुरुष के अधिकारों के प्रति-------नारी के शोषण के विरुद्ध ---क्या करूँ-----मै ही क्यों घर और बच्चों की परवाह करूँ--------जब राजेश का कठिन् समय था मैने अपना कर्तव्य निभाया-------ापने सुख और इच्छाओं को त्याग कर अपने आप को पूरे परिवार के लिये समर्पित कर दिया-----मगर आज मेरे साथ क्या हो रहा है---अवहेलना-------तिरस्कार-----नहीं नहीं-----ये चिँगारी अन्दर से यूँ ही नहीं उठती-----इसने मेरा संताप देखा है----कहीं करीब से----जिसे अगर शाँत ना किया तो सब बर्बाद हो जायेगा------
मैने अपने अस्तित्व को बचाया या बर्बाद किया---पता नहीं------ये सोचना समाज का काम है मगर अब मैं अबला बन कर नहीं जीना चाहती--------चाय का अखिरी घूँट अन्दर सरकाया---मन कहीं सकून भी आया कि अन्याय सहन करने की कायरता मैने नहीं की ----ापना स्वाभिमान और अधिकार पाने का हक मुझे भी है-------
सब से अधिक बात जो मुझे कचोटती------एक तो बैठे बिठाये हुक्म चलानऔर दूसरा सब के सामने जरा जरा सी बात के लिये मुझे लज्जित करना-------घर की मेरी या बच्चे की कोई जिम्मेदारी नहीं समझना-----डाँटना जैसे मेरा कोई वज़ूद ही नहीं------मायके वालों के उल्लाहने----कभी मेरे मायके मे कोई शादी ब्याह आ जाता तो जाने के नाम पर सौ बहाने----ाउर खर्च की दुहाई-----दिन रात शराब के लिये पैसे थे------तब मन कचोट उठता ----जब मुझे अकेले जाना पडता-------जिस प्रेम प्यार और खुशियों की कामना की थी उनका तो कहीं अता पता ही नहीं था-------बस एक व्यवस्था के अधीन सब चल रहा था-------समाज के लिये ये छोटी छोटी बातें हैं मगर एक पत्नि के लिये बहुत कुछ-------लोग अक्सर कहते हैं कि पति पत्नि के बीच ये छोटी छोटी बातें तो होती रहती हैं---मगर ये नही सोचते कि पत्नि के लिये पति का प्यार और सतकार भी जरूरी हैउसके अभाव मे ये छोटी छोटी चिँगारियां अक्सर भयानक रूप ले लेती हैं---------
बचपन से माँ को देखती आई थी सुबह से शाम तक कोल्हू के बैल की तरह घर के काम मे जुटी रहती-----सब की आवश्यकताओं के लियी सदा तत्पर रहती --- ना खाने का होश ना पहनने की चिँता------शाम ढले जब पिताजी घर आते तो शुरू हो जाते-------- ये नहीं किया ---वो नहीं किया-----ये ऐसे नहीं करना था ---ये वैसे नहीं करना था------पता नहीं सारा दिन घर मे क्या करती रहती है--------एक रोटी सब्जी का ही तो काम है----उन्हें क्या पता कि रोटी सब्जी के साथ और कितने काम जुडे होते-------- हैं बच्चों की-- बज़ुर्गों की सब की जरूरतें---घर की साफ सफाई--------किसे कब क्या चाहिये कपडे धोना बर्तन साफ करना और बहुत से काम-------मगर माँ ने कभी उन्हें ये ब्यौरा नहीं दिया-------चुप चाप लगी रहती------मगर जब शाम को किसी दोस्त के साथ एक दो पेग लगा कर आ जातेतो माँ ही क्या दादा- दादी ाउर बच्चे भी सहम जाते-------पेग लगा कर बाकी केधिकार जताने का बल भी आ जाता---------माँ फिर भी सहमी सहमी स गरम गरम खाना परोसती---ेअपने लिये या बच्चों के लिये बचे ना बचे मगर्ुनकी थाली मे कोई कमी ना रहे जरा सी भी कमी हुई नहींकि भाशण शुरू--------ढंग से खाना भी नहीं खिला सकती------कैसी अनपढ मूरख औरत से पाला पडा है--------
यही सब देखते हुये बडी हुई--------ये एक घर की बात नहीं थी पास पडोस -----रिश्तेदारी------मध्य्म और निम्न वर्ग मे तो बहुधा औरतों को घुट घुट कर जीते देखा है मन मे विद्रोह की एक चिँगारी सी सुलगती और मेरे भीतर एक आग भर देती -------मैं घुट घुट कर नेहीं जीऊँगी--------मैं पढुँगी लिखूँगी और पति के कँधे से कँधा मिला कर चलूँगी----मैं विद्रोह कर के जीना नहीं चाहती थी------बल्कि अपना एक व्ज़ूद कायम कर पति की मन मानी और प्रताडना के विरुद्ध एक कवच तैयार करना चाहती थी------शायद मै गलत थी----पुरुष के अधिकार क्षेत्र मे स्त्रि का हस्ताक्षेप---ताँक झाँक------एक अबला सबल का मुकाबला करे--------पुरुष को कहाँ मँजूर-------उस बचपन की चिँगारी ने यही इच्छा बलवती की कि मैं माँ की तरह अनपढ् नहीं रहूँगी-------- पर ये भी कहाँ उस समय की मध्यम वर्ग के परिवार की लडकी के वश मे था--------पिता जी एक मामूली क्लर्क थे--------घर मे हम दादा दादी --तीन भाई बहन और माँ और पिता जी थे सात सदस्यों के परिवार का एक कलर्क की पगार मे कैसे निर्वाह हो सकता था---उपर से पिता की शराब-------- उन के लिये दोनो लडकों को पढाना जरूरी था-------क्यों कि वो घर के वारिस थे और पराई लडकी का क्या वो तो मायका ससुराल दोनो मे पराई ही होती है-------इस मनमानी का अधिकार भी पिताजी के पास ही था और इसे मनना सब का कर्तव्य था--------- बाहर्वीं पास करने के बाद मुझे घर मे बिठा दिया गया-------ागले कर्तव्य की ट्रेनिँग ----घर के काम काज के लिये-------
मेरे अँदर की चिँगारी फिर दहकी और मैं घर पर ही बी ए की तयारी करने लगी------
- क्रमश---
20 comments:
काश् सभी के मन में दबी चिंगारी इसी प्रकार मुखरित हो जायें।
सुन्दर प्रेरणादायक कथा।
बधाई।
बहुत सीखने योग्य कथा!!
शिक्षाप्रद सुन्दर कथानक. आगे की बाट जोह रहे हैं.
बहुत शिक्षादायक और प्रेरणास्पद कहानी. शुभकामनाएं.
रामराम.
कहानी अच्छी लगी .. आगे की कथा का इंतजार रहेगा।
dabi huyi chingari sulge,aage ka intazaar hai
अच्छी लगी कहानी !
मैं भी चाहता हूँ कहानी लिखूँ , क्या यह प्रतिभा जन्मजात हो्ती है ?
हमें आगे का इंतजार रहेगा
बहुत सुंदर.
बहुत ही अच्छी कहानी . . . बधाई ।
mujh jaise ko bahut kuchh sikhati ....preranadayak katha....behatarin post
bahut hi prernadayi kahani hai.......agle bhag ka intzaar rahega.
बहुत अच्छी!!!
ररे विवेक जी अपकी प्रतिभा को तो बलाग जगत मानता है और आपकी कलम की शैली और शिल्प हे तो कहानी को चाहिये आप तो बहुत अच्छी कहानी लिख सकते है आशीर्वाद्
कहानी में ग़ज़ब की रवानगी है............. पर अंत आते आते टूट गयी आपका "क्रमश: " पढ़ने के बाद........... अगली कड़ी का इंतेज़ार है
ataynt bhavpurn kahani..
bahut badhiya kahani likhati hai aap
aap ki kahaniyan manan yogy hoti hai..
bahut sundar
badhayi ho!!!
बहुत ही अच्छी कहानी. बधाई!!!!!!!!
हौसला बढाती हुयी,बहुत ही भावपूर्ण कहानी ..हर नारी के दिल के अरमान को दिखाती .
दबी चिंगारी को जलाती ..आपकी कहानी हर नारी की कहानी होती है
बहुत खूब निर्मला जी !!
निर्मला जी कहानी बहुत सुंदर लगी, लेकिन इस का अन्त.... बस आप की अगली कडी का इंतजार है वेसब्री से. धन्यवाद
nirmla di ghar ghar ki khani ko samne rkh diya .ak khavat hai "ghar ghar me mitti ke chulhe "beshk inki jgh gais ke chulho ne leli hai par hai to chulhe hi .
agli kadi ka intjar .
Post a Comment