20 July, 2009

मेरी नज़र से देखो------- कहानी------ गताँक से आगे

मैं सुबह उठते ही पहले अखबार देखती थी----- एक दिन अखबार पढते 2 एक खबर पर नज़र अटक गयी------- तो आँखों के आगे अँधेरा छा गया सुमित सुमित कारगिल मे शहीद हो गये थे------- मेरी दुनिया लुट गयी थी माँ बाप के घर का चिराग बुझ गया था------- मगर अभी यकीन करने का मन नहीं था------ उनकी युनिट से कोई खबर नहीं आई थी----अभी तो सुजान के सदमे से नहीं उभरे थे-----

किसी से बात करबे की स्थिती मे नहीं थी------ बेटा उठ गया था पर मुझे होश ही नहीं था मा बाहर आयी मुझे अखबार पकडे सदमे मे देखा तो मुझ से अखबार ले कर देखने लगी----फिर क्या था घर मे कोहराम मच गया ------ एक घन्टे बाद सिपाही भी खबर ले कर आ गया-------मुझे कुछ पता नहीं फिर क्या हुआ-------जब होश आया तो मेरे सामने सुमित की लाश थी------- तिरंगे मे लिपटी हुई------- कोई मुझे लाश से कपडा नहीं उठाने दे रहा था-----मैं बस एक बार सिर्फ एक बार सुमित का चेहरा देखना चाहती थी मुझे यकीन था कि ये सुमित नहीं हो सकता वो मेरे साथ इतना बडा धोखा नहीं कर सकता--------उसकी आँखों को देखना चाहती थी------ जिन्हें देख कर मेरे दिल की धडकन बढ जाती थी----- जिन्हें देख कर मैं खुद पर काबू नहीं रख पाती थी------ मैं सुमित से कहती ऐसे मेरी तरफ मत देखा करो ये आंम्खे किसी दिन मेरी जान ले लेंगी-------तो सुमित हँस पडते------- नहीं अनु---ये आँखें तो तुम्हें जीने की शक्ति देंगी------बस इब आंम्खों से बान्ध रखूँगा तुमको-------
आज उन आँखों की एक झलक देखना चाहती थी-------मगर वो आंम्खें तो सुमित दान कर गया था---- सुजान के लिये-------तो क्या सुजान मुझ से भी प्यारा था------ तो क्या मै फिर देख सकूँगी सुमित की आँखें------- आखिरी बार मुझे सुमित का चेहरा भी नहीं दिखाया गया------ पापा के कन्धे से लगी देख रही थी सारा शहर और युनिट के लोग----- सलामी के लिये फौज़ की टुकडी------- युनिट के साथी उस की बहादुरी की गाथा सुना रहे थे ---मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था ----- मेरा संसार उजड गया ये बडी बडी बातें मुझे सकून नहीं दे रही थी------पता नहीं क्या क्या हो रहा था------ कुछ याद नहीं मेरे तो दिन रात सूने हो गये थे--------
सुजान को सुमित की आँखे मिल गयी थी------ बहुत रोया था वो----- उसके दुख को कौन जान सकता था----- सब ने कहा कि रोना नहीं ये सुमित की आँखें हैं इन्हें कोई तकलीफ ना हो------- सुजान और उसकी मा हमारे घर मे ही थे----- सुजान ने तो जैसे अपने आप को इस घर के लिये समर्पित सा कर दिआ था दोनो मा बेटा रात को घर जाते थे मम्मी बीमार रहने लगी------ मैने तो अपने को कमरे मे जैसे कैद कर लिया था---- सुजान के मम्मी सरा काम करते वरुण को सम्भालते बाहर का सारा काम धीरे धीरे आँखें ठीक होते ही सुजान ने अपने जिम्मे ले लिया था------- मै बस शाम को कुछ देर उन लहरों को देखने लान मे आती उन से सुमित के बारे मे पूछती------ मगर कहीं से कोई जवाब नहीं मिलता---------वो मेरी हालत से आहत हो कर दरिया मे समा जाती-------
सुजान बहुत कोशिश करता मुझ से बातें करने की-------मेरा मन बहलाने की------ मगर ना जाने क्यों मुझे सुजान की तरफ देखते डर लगता था------ये सुमित की आँखें------- कहीं मुझे-------- नहीं नहीं-------ये सुजान की आँखें हैं------कई बार मन होता कि उन आँखों मे झाँक कर देखूँ---------- मगर हिम्मत नहीं होती------इन आँखों मे तो मैं रहती थी------ ओह सुमित ये क्या कर दिया तुमने/-------
एक वर्ष हो गया था सुमित को गये-------- मम्मी पापा जब मुझे बहलाते तब मै सोचती कि मुझे तो इन का सहारा बनना चाहिये-----सुमित की निशानी--- वरुण की जिम्मेदारी भी मुझे पर है-----कितने सपने थे सुमित के अपने बच्चे को ले कर मुझे जीना होगा----- वरुण के लिये मम्मी पापा के लिये-------
वरुण ढेड साल का हो गया था------ सुजान से काफी हिलमिल गया था पापा ने और सुजान ने मिल कर पैट्रोल पम्प खोल लिया था------ दोनो व्यस्त हो गये थे------सुजान शाम को पापा को घर छोड कर थोडी देर वरुण के साथ खेलता फिर अपने घर चला जाता --- सुबह फिर पापा को लेने आ जाता------ मै और मम्मी सुमित की बातें ले कर बैठ जाती------ पापा चाहते थे कि मैं कहीं नौकरी ज्वाईन कर लूँ---ताकि मेरा ध्यान बँट सके----- मगर सुमित के बिना मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता था-------
पिछले दो तीन महीने से देख रही थी कि सुजान मुझ से बार करने की बराबर कोशिश करता-----उस दिन कह रहा था------- अनुजी मुझे जाने क्यों एक अपराधबोध सा रहता है----अप मुझ से बात नहीं करती तो लगता है कि आप मुझ से नाराज़ हैं------- क्या आपको अच्छा नहीं लगा कि सुमित की आँखें मुझे मिल गयी हैं--------
नहीं नहीं ---- ऐसी बात नहीं है-----बस सुमित के बिन कुछ अच्छा नहीं लगता------ आपसे कोई नाराज़गी क्यों होगी------ मै उसे कैसे बताती कि मैं इन आँखों की तरफ नहीं देख सकती------- ये आँखें तो मुझे बेकाबू कर देती हैं-----
मैं समझ सकता हूँ------ मुझे देख कर आपको सुमित की याद आती होगी------
मैं क्या जवाब दूँ------हाँ चोर नज़रों से उन आँखों को देखने की हसरत बनी रहती-------
आज सुमित की बहुत याद आ रही थी------ मम्मी पापा गाँव गये हुये थे-------शाम ढलने लगी थी----- चाय का कप ले कर बालकनी मे आ कर बैठ गयी वरुण सो रहा था-------सूरज की किरणे धीरे धीरे जा रही थी------मगर दो चार किरने अभी भी लहरों के साथ खेल रही थी कितना कठिन होता है बिछुडना------- इन का भी मन लहरों से दूर जाने का नहीं है मगर समय को कौन बान्ध सका है ------ सब चलायमान है -------
अनु देख रही हो ना इन किरणो को मेरा मन भी इन किरणो की तरह तुम से दूर जाने का नहीं होता------- सुमित मेरा हाथ पकड कर अक्सर कहते----
हाँ मै भी तुम्हारे जाने पर उदास हो जाती हूँ----- इन लहरों की तरह------ सुमित हसरत भरी निगाह से देखते और मैं उनकी बाहों मे समा जाती------
अनुजी कहाँ खोई हैं आप----- मैं यहाँ कब से खडा हूँ-----सुजान की आवज़ सुन कर चौँक पडती हूँ ------
ओह तुम आओ बैठो-----मैने कुरसी की तरफ इशारा करते हुये कहा-------सुमित की यादों मे खोई सुजान के आने की आहट सुन ही ना पाई थी-------बैठो मैं पानी लाती हूँ-------मैं उठते हुये बोली-----
पानी नहीं मै आज आपके हाथ की चाय पीना चाहता हूँ------- बहुत दिन से आपके हाथ की बनी चाय नहीं पी---- सुजान ने सीधा मेरी आँखों मे देखते हुये कहा---तो अन्दर से काँप गयी ------ वही चमक थी आँखों मे------ मैं कैसे धोखा खा सकती हूँ -------
अभी बन कर लाती हूँ मुझे तो वहाँ से उठने का बहाना चाहिये था------ मै तो सुजान की आँखों से दूर रहना चाहती थी------- उस के आते ही मै असहज हो उठी थी
नहीं पहले बैठो मै आपसे कुछ बात करना चाहता हूँ------ बैठो-----
मै उठते उठते बैठ गयी------
क्रमश:

20 comments:

दर्पण साह said...

.....kitna accha laga do baag ek saath padhne ko mile.
....ab utshkta badhti ja rahi hai...

दर्पण साह said...

aasnkhein wahi hai....
...aur kuch kuch anumaan sa ho gaya hai ki ab kya hoga....

...lagta hai kahani ka ant sukhant hi hoga !!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

कहानी में अच्छा प्रवाह है,
उत्सुकता बनी हुई है।
अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।

निर्मला कपिला said...

दर्पण इसका अन्त या कहानी का कथानक नहीं इस कहानी को लिखने का मन्तव ये था कि अगर किसी को किसी की आँखें लग जायें तो भावनात्मक रूप मे उसका क्या असर होता है कल्पना की उडान तो आसमान से ऊँची होती है और दूसरा मकसद था कि जिस दिन मैने अपनी आँखें दान की थी उस दिन चाहा था कि मेरी आँखें किसी वीर जवान को मिलें तो धन्य हो जाउँगी तथा आँखें दान करने के लिये प्रेरित करने के लिये ये कहानी लिखी थी मरने के बाद किसने देखा है कि क्या होगा उसकी दान की गयी आँखें एक इन्सान को मिल जाने से कितने जीवन जो उस इन्सान से तल्लुक रखते हैं संवर सकते हैं उन आँखों के प्रति भावनायें ही इस कहानी का मूल मकसद है जो मुझे अभी भी लगता है कि अधूरा है एक कहानी और लिखूँगे इसके लिये सब का आभार जो मुझे उत्साह दे रहे हैं

Urmi said...

वाह निर्मला जी बहुत बढ़िया लगा! अब अंत क्या होगा ये तो अनुमान लगाना थोड़ा कठिन है पर आपके अगले पोस्ट का इंतज़ार रहेगा!

mehek said...

bhwana pravah mein baha gayi kahani,aage intazar hai.......

विनोद कुमार पांडेय said...

behad samvedansheel.
maine abhi puri kahani to padhi nahi parantu jitana bhi padha.kya bataun ..dil ko bhavukta se bhar dene wali kahani hai..
samay milane par mai pura padhunga..

bahut hi behatreen bhavuk abhivyakti hai aapki..

hame bahut achcha laga..aur ab to bas intzaar rahata hai.
dhanywaad

मुकेश कुमार तिवारी said...

आदरणीय निर्मला जी,

कहानी में भावुकता का ऐसा प्रवाह अहि जो अपने पाठक को भी साथ बांधे लिये चलता है।

एक कसी हुई कथा के लिये बधाईयाँ, रोचकता बरकरार है, अगली किश्त का इंतजा़र है।

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

vandana gupta said...

nirmala ji
sach kah rahi hain aap...aankhein daan karne par ek alag hi sukun mahsoos hota hai.......agar hum jeete ji kisi ke kaam na aa sake to kam se kam marne ke baad to kisi ki duniya ko roshan kar sakein.........ye sukun hi kafi hai..........kahaani bahut hi rochak bani hai,,,agle part ka intzaar hai..........bahut hi gahri samvednayein hain aapki.

सदा said...

बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

Razi Shahab said...

bahut achcha lag raha hai ...blog kholne ke baad sab se pahle aap ke updates par nazar padti hai...kahani achchi chal rahi hai ... saman bandha hai...aage ka intezaar hai ...

ओम आर्य said...

ek achchha sandesh deti huee kahanee
rochakata apane charmotkarsh par hai
............bas intjar hai age ki ...........bahut hi sundar lekhan .....naman karata hu

दिगम्बर नासवा said...

आपकी कहानी में gazab की rawaani होती है............ aisee rochakta जो ant तक bani rahti है............ pratikshaa rahegi agle ank की........

Science Bloggers Association said...

Rochak evam hriday sparshi.
Aage ki pratichha.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

P.N. Subramanian said...

बहुत ही अच्छा लग रहा है. अंतिम कड़ी आ जाने के बाद एक बार पुनः पढेंगे जिससे मष्तिष्क में आने वाले विचारों में निरंतरता आ जायेगी. आभार.

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) said...

माँ प्रणाम मैं पूरी कहानी बहुत अच्छी लगी जब तक दोनों भाग पढ़ नहीं लिए तब तक आँखे नहीं हटाई पर अंत में उत्सुकता और बाद गयी अब समझ पा रहा हूँ की आप हमेसा कहानी की एकरसता पर क्यूँ जोर देती है और अनावश्यक रूप से भरी शब्दों का प्रयोग क्यूँ नहीं करती है मुझे अगली कड़ी का इन्तजार रहे गा उम्मीद है आप जल्दी ही पोस्ट करेंगी मेरा प्रणाम स्वीकार करे
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत सुंदर कहानी है. पुए समय बांधे रखती है. आगे का इंतजार है.

रामराम.

Murari Pareek said...

waah kahaani me dard ke sath ek utsukukta hai aage kyaa mod leti hai ?

Udan Tashtari said...

बेहतरीन कल्पनाशीलता और जबरदस्त प्रवाह के साथ बहते जा रहे हैं, आप जारी रहें.

गौतम राजऋषि said...

रोचकता बरकरार है....ये एक सफल कहानीकार की पहचान है....मैं सोच रहा हूँ की कहीं सुनित की कुरबानी जान-बूझ कर की हुई तो नहीं?
खैर आग पढ़ता हूँ...

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