03 August, 2018

 गज़ल

रहे बरकत बुज़ुर्गों से घरों की
हिफाजत तो करो इन बरगदों की

खड़ेगा सच भरे बाजार में अब
नहीं परवाह उसको पत्थरों की

रहे चुप हुस्न के बढ़ते गुमां पर
रही साजिश ये कैसी आइनों की

ये  दिल के दर्द है जागीर मेरी
भरी संदूकची उन हासिलों की

मुहब्बत में मिले दुःख दर्द जो भी ।
भरी झोली सभी उन हासिलों की

न चोरों की हो'सरदारी अगर तो
बचे पाकीज़गी इन कुर्सियों की

न हम खोते कभी ईमान अपना
भले होली जले कुछ ख्वाहिशों की

26 September, 2017

  गज़ल

बेवफाई के नाम लिखती हूँ
आशिकी पर कलाम लिखती हूँ

खत में जब अपना नाम लिखती हूँ
मैं हूँ उसकी जिमाम लिखती हूँ

आँखों का रंग लाल देखूँ तो
उस नज़र को मैं खाम लिखती हूँ

ये मुहब्बत का ही नशा होगा
मैं  सुबह को जो शाम लिखती हूँ

फाख्ता होश कौन करता है
जब जमी को भी बाम लिखती हूँ

है बदौलत उसी की ये साँसें
ये खुदा का ही काम लिखती हूँ

जो सदाकत में ज़िंदगी जीए
नाम उसका मैं राम लिखती हूँ

हौसला बा कमाल रखता है
वो नहीं शख्स आम लिखती हूँ

बादशाहत सी ज़िंदगी उसकी
महलों की ताम झाम लिखती हूँ

दोस्त, दुश्मन मेरा है रहबर भी
किस्से उसके तमाम लिखती

06 September, 2017

 GAZAL

पिघल कर आँख से उसकी दिल ए पत्थर नहीं आता"
वो हर गिज़ दोस्तो मेरे जनाज़े पर नहीं आता

दिखाया होता तूने आइना उसको सदाक़त का
जो  आया करता था झुक कर, कभी तनकर  नहीं आता।


 मुझे विशवास है मेरे खुदा की राज़दारी पर 
चलूँगी जब तलक वो ले के मंज़िल पर नहीं आता


छुपा कर अपने ग़म देता है जो खुशियाँ ज़माने को
वो शिकवा दर्दका लब पर कोई रखकर नहीं आता


किनारे पर खड़ा तब तक तकेगा राह वो मेरी
सफीना जब तलक भी नाखुदा लेकर नहीं आता


सितारे गर्दिशों में लाख हैं तक़दीर के माना  
 मगर जज़्बे में कोई फर्क़ ज़र्रा भर नहीं आता


बिना उसके मुझे  ये ज़िंदगी दुश्वार  लगती  है
कोई झोका हवा का भी उसे  छूकर  नहीं  आता


 इजाज़त किस तरह देता है दिल ऎसी कमाई की
निकम्मे को  जो तिनका तोड़ कर दफ्तर नहीं आता)


ग़रीबी में वो रुस्वाई से अपनी डरता है निर्मल 
किसी के सामने यूँ शख्स वो खुलकर नहीं आता
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08 July, 2017


गज़ल 1
मुहब्बत से रिश्ता बनाया गया
उसे टूटते रोज पाया गया
मुहब्बत पे उसकी उठी अँगुलियाँ
सरे बज़्म रुसवा कराया गया
यहाँ झूठ बिकता बड़े भाव पर
मगर सच को ठेंगा दिखाया गया
दिए घी के उनके घरों में जले
मेरा घर मगर जब जलाया गया
वही वक्त है ज़िंदगी का मजा
हँसी खेल में जो बिताया गया
मैं माँ का वो झूला न भूली कभी
जो बाहों में लेकर झुलाया गया
चुनौती मिली जो निभाया उसे
मेरा हौसला आजमाया गया
गुलाबी गुलाबी सा मौसम यहाँ
चमन को गुलों से सजाया गया
मिली काफिरों को मुआफ़ी मगर
कहर बेकसूरों पे ढाया गया
गज़ल2
सर आँखों पे पहले बिठाया गया
तो काजल सा फिर मैं बहाया गया
मिली काफिरों को मुआफ़ी मगर
कहर बे कसूरों पे ढाया गया
उड़ानों पे पहरे लगाए मेरी
मुझे अर्श से यूं गिराया गया
रादीफें खफा काफ़िए से हुईं
ग़ज़ल को मगर यूं सताया गया
वचन सात फेरों में हमने लिए
वफ़ा से वो रिश्ता निभाया गया
जिसे ज़िंदगी भर न कपड़ा मिला
मरा जब कफ़न से सजाया गया
शरर नफरतों का गिरा कर कोई
यहाँ हिन्दू मुस्लिम लड़ाया गया

03 July, 2017


 गज़ल

न समझे फलसफा इस ज़िन्दगी का
कभी तू ज़िन्दगी मुझ से मिली क्या?

गरीबी में मशक्कत और अजीयत
खुदा तकदीर तूने ही लिखी क्या।

न समझी फलसफा तेरा अभी तक
कभी तू जिंदगी मुझ से मिली क्या?

थपेडे वक्त के खाकर खडी हूँ
गिरी फिर सम्भली लेकिन डरी क्या?

जमाने हो गये हैं मुस्कुराये
कहीं पर मोल मिलती है हंसी क्या?

हकीकत कागज़ी जनता न चाहे
जमीनी तौर पर राहत हुयी क्या?


30 June, 2017

गज़ल



#अंतरराष्ट्रीय_हिन्दी_ब्लॉग_दिवस की आप सब को बधाई 1दूसरी पारी पहले की पारी से भी ऊंचाई पर जाये इसी कामना के साथ सब को शुभकामनाएं1

एक गज़ल 


ख्वाहिशें मैं कैसे रक्खूँ ज़िन्दगी के सामने"
हसरतें दम तोड़ती हैं मुफलिसी के सामने

ये तिरी शान ए करम है ऐ मिरे परवरदिगार"
अब भी हूँ साबित क़दम मुश्किल घड़ी के सामने।

ज़िंदगी की मस्तियों में भूल बैठा बंदगी"
आह क्या मुँह ले के जाऊँ अब नबी के सामने।

तीलियाँ लेकर खड़े हैं लोग घर के द्वार पर
बस उठे दिल से न धूंआँ अजनबी के सामने

चींटियों से सीख ले मंजिल मिली कैसे उन्हें
अड़चनों दम तोडें क्यों रस्साकशी  के सामने

उम्र  लंबी  हो  नहीं  ख्वाहिश  मेरी ऐसी रही

 पर खुशी इक पल भी अच्छी इक सदी के सामने

राहमतों की आस किस से कर रहा बन्दे यहां
आदमी  कीड़ा     मकोड़ा   है धनी के सामने

ताब अश्कों की नदी की सह न पायेगा कभी
इक समंदर कम पडेगा इस  नदी के सामने

प्यार  में क्या हारना और क्या है निर्मल जीतना"
बस मुहब्बत हो न शर्मिंदा किसी' के सामने।

22 December, 2016

 गज़ल

तमन्ना सर फरोशी की लिये आगे खड़ा होता
मैं क़िसमत का धनी होता बतन पर गर फना होता

अगर माकूल से माहौल में मैं भी पला होता
मेरा जीने का मक़सद आसमां से भी बड़ा होता

न कलियां खिलने से पहले ही मुरझातीं गुलिस्तां में
खिज़ाओं का अगर साया न गुलशन पर पड़ा होता

करें क्या गुफ्तगू उससे चुरा लेता है जो से नज़रें
बताता तो सही मुझसे अगर शिकवा गिला होता

कुरेदा है मिरे ज़ख्मों को अकसर तूने फितनागर
यकीं करते न अपना जान कर तो  क्यों दगा होता

परिंदे ने भी देखे थे बुलंदी के कई सपने
न दुनिया काटती जो पंख तो ऊँचा उड़ा होता

न हरगिज़ भूख लेजाती उन्हें कूड़े के ढेरों पर
गरीबों के  लिए सरकार ने गर कुछ किया होता\

17 November, 2016

गज़ल
मुहब्बत को किसी भी हाल में सौगात मत कहिये

जो गुज़रे हिज्र में उसको सुहानी रात मत कहिये


खुशी से जो दिया उसने यही बस प्यार है उसका

खुदा की नेमतें कहिए  इन्हें खैरात मत कहिये *


कहीं पर भी न उलझेगी कहानी फिर मुहब्बत की

 किसी से तल्ख़ लहजे में ज़रा सी बात मत कहीए


कोई उसको दिल ए बीमार का दे दे पता जाकर"

तड़पती हूँ मैं उसके वास्ते दिन रात  मत कहिये


सियासत दिल में नफरत के हमेशा बीज बोती है

सियासत है ज़माने में किसी के(  साथ) मत कहिए

   
 ख्यालों के परिंदों को अगर परवाज़ से रोका"

 ज़ुबाँ पर फिर हमारी आएंगे  नगमात मत कहिये


शराफत आज तक ज़िंदा है जिसके दम से दुनियां में"

वो आला मरतबत है शख़्स कम औकात मत कहिये।


ग़रीबी असमतें भी ला के बाज़ारों में रखती है"

बहुत मजबूरियां होंगी उसे बदज़ात मत कहिये


मैं अपनी हर खुशी लिखती हूँ उसको नाम ऐ निर्मल

मुहब्बत में हो मेरी जीत उसकी मात मत कहिये

24 September, 2016

गज़ल 


वक्त से थोडा प्यार कर लेना
आदतों में सुधार कर लेना

बात हो सिर्फ प्यार की जानम
आज शिकवे उधार कर लेना

जो जहां ने दिए हैं खंजर वो
सुन तू सब्रो करार कर लेना

मत खुशी में बुलाना  चाहे तू
गम में मुझ को शुमार कर लेना

रोज तकरार से तो अच्छा है
फैसला आरपार कर लेना

देश के वास्ते अगर हो सके
तो दिलो जां निसार कर लेना

28 July, 2016


एक नई गज़लें
1
किसी को दर्द हो सहती नहीं मैं
हो खुद को दर्द पर कहती नहीं मैं

थपेडे ज़िन्दगी के तोड़ देते
नहीं इतनी भी तो कच्ची नहीं मैं
सलीका जानने का फायदा क्या
अमल उस पे अगर करती नहीं मैं
मुकद्दर के तसीहे नित सहे पर
यूं हाहाकार भी करती नहीं मैं
वफ़ा उनको न आये रास चाहे
जफ़ा लेकिन कभी करती नहीं मैं
न मेरे साथ तुलना हो किसी की
सुनो मैं भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ
जताऊँ जो किया उसके लिए था
मगर उनकी तरह हल्की नहीं मैं
मैं खुद की सोच पर चलती हूँ निर्मल
किसी के जाल में फंसती नहीं मैं
-------------------------------------------------------
इसी बह्र पर एक पुरानी गज़ल
कमी हिम्मत में कुछ रखती नहीं मैं
बहुत टूटी मगर बिखरी नहीं मैं
बड़े दुख दर्द झेले जिंदगी में
गो थकती हूँ मगर रुकती नहीं मैं
खरीदारों की कोई है कमी क्या
बिकूं इतनी भी तो सस्ती नहीं मैं-
रकीबों की रजा पर है खुशी अब
कहें कुछ भी मगर लडती नहीं मैं
बडे दिलकश नजारे थे जहां में
लुभाया था मुझे भटकी नहीं मैं
मुहब्बत का न वो इजहार करता
मगर आँखों में क्यों पढती नहीं मैं
अगर चाहूँ फलक को छू भी लूँगी
बिना पर के मगर उड़ती नहीं मैं

08 July, 2016


गज़ल

रेत हाथों से फिसलने मे भी लगता वक्त कितना
ज़िन्दगी को यूं सिमटने मे भी लगता वक्त कितना

चाहतों की बेडिओं मे उम्र भर  जकडे  रहोगे   ?
बेवफा  रिश्ते  बदलने मे भी लगता वक्त कितना

चाँदनी रातों के साये  मे है जुग्नू छटपटाता
सुख के आने गम छिटकने मे भी लगता वक्त कितना

चाह जन्नत की तुझे है गर  खुदा को याद तो कर
बोल रब का नाम जपने मे भी लगता वक्त कितना

जेब मे रखती हूँ ख्वाहिश लोगों को भी क्यों दिखाऊँ?
उनकी  नजरों को दहकने मे भी लगता वक्त कितना

हुस्न पे क्या नाज , चुटकी मे जवानी भाग जाये
सोच अब ये  उम्र ढलने मे भी लगता वक्त कितना

आशिआने की दिवारे पड रही छोटी अमीरों के लिये
मुफ्लिसों के घर  निपटने मे भी लगता वक्त कितना

19 May, 2016

फेसबुक पर अपने ग्रुप साहित्य संगम की फिल्बदीह 154  मे हासिल 4 गजलें


मेरे दिल की' धड़कन बनी हर गज़ल
हां रहती है साँसों मे अक्सर गज़ल

इनायत रफाकत रहाफत लिये
जुबां पर गजल मेरे दरपर गजल

कसक दर्द गम भी हैं इसमें बड़े
मगर है तजुरबों का सागर ग़ज़ल

मनाऊं तो कैसे बुलाऊँ भी क्या
जो रहती हो नाराज तनकर ग़ज़ल

है शोखी शरारत है नाज-ओ सितम
हसीना से कुछ भी न कमतर ग़ज़ल

लियाकत जहानत जलाकत भरी
मुहब्बत  से लाया है बुनकर ग़ज़ल

चिरागों से कह दो जरूरत नहीं
जलावत से आयी है भरकर ग़ज़ल

गजल 2

मुहब्बत से निकली निखरकर ग़ज़ल
खड़ी हो गयी फिर बिखरकर ग़ज़ल

कहीं तीरगी तो कहीं दर्द था
जिगर में चुभी बन के नश्तर ग़ज़ल

कशिश थी इशारे थे कहीं कुछ तो था
दिखा चाँद जैसे थी छतपर ग़ज़ल

न देखा जिसे और'  न जाना कभी
खड़ी आज मेरे वो दरपर ग़ज़ल

 मुहब्बत से छूआ उसे बार बार
बसी साँसों' में मेरी' हसकर ग़ज़ल

भले आज वल्लाह कहते हों लोग
थी दुत्कारी बेबह्र कहकर ग़ज़ल

लगी पाबंदी बह्र की और फिर
रही  काफियों में उलझकर ग़ज़ल

गजल 3
गिरी बादलों से छिटक कर ग़ज़ल
घटा बन  के बरसी कड़ककर ग़ज़ल

नजाकत बड़ी थी हिमाकत बड़ी
किसी ने भी देखी न छूकर ग़ज़ल

सहेली सहारा सभी कुछ तुम्ही
बनी आज मेरी तू रहबर ग़ज़ल

कभी दर्द कोई न उसने कहा
मगर आज रोई है क्योंकर ग़ज़ल

चुराए हैं आंसू कई मेरे पर
न अपना कहे दर्द खुलकर ग़ज़ल

शमा की तरह से जली रात दिन
सिसकती रही रोज जलकर ग़ज़ल

हरिक बार उससे मिली  आप मैं
न आयी कभी खुद से चलकर ग़ज़ल

गज़ल 4

मेरी हो गयी आज दिलबर ग़ज़ल
जो आयी है बह्रों से छनकर ग़ज़ल

रकीबो के पाले मे  देखा मुझे
लो तड़पी हुयी राख जलकर ग़ज़ल

मैं भौंचक खड़ी देखती रह गयी
गिरी हाथ से जब छिटककर ग़ज़ल

है दिल की जुबाँ एहसासो का सुर
कहीं रूह से निकली मचलकर ग़ज़ल

नहीं टूटी अब तक किसी बार से
रही मुस्कुराती है  खिलकर गज़ल

हुये दूर शिकवे गिले आज सब
मिली है गले आज लगकर ग़ज़ल

न भाता मुझे कुछ गज़ल के सिवा
रखूंगी मै दिल से लगाकर गज़ल


23 March, 2016

गज़ल होली पर



होली के तरही मुशायरे मे आद पंकज सुबीर जी के ब्लाग http://subeerin.blogspot.in/

देखिये मुहब्बत ने ज़िन्दगी छ्ली जैसे
लुट गया चमन गुल की लुट गयी हंसी जैसे

अक्स हर  जगह उसका ही नजर मुझे आया
हर घडी  तसव्‍वुर  मे  घूमता  वही  जैसे

कोई तो जफा से खुश और कोई वफा में दुखी
सोचिये वफा को भी  बद्दुआ मिली जैसे

वो चमन में आए हैं, जश्‍न सा हर इक सू है
झूम  झूम  नाचे  हर  फूल  हर कली  जैसे

खुश हुयी धरा देखी  रौशनी   लगा उसको
चांदनी उसी के लिये मुस्कुरा रही जैसे

बन्दिशे  इबारत में शायरी बड़ी मुश्किल
काफिये  रदीफों  से आज मै  लड़ी जैसे

उम्र भर सहे हैं गम दर्द मुश्किलें इतनी
हो न हो किसी की है  बद्दुआ लगी जैसे

पाप जब किये थे तब कुछ नहीं था सोचा पर
आखिरी समय निर्मल आँख हो खुली जैसे

18 March, 2016

गज़ल

         

   गज़ल
गुजारे गांव मे जो दिन पुराने याद आते हैं
सुहानी ज़िन्दगी दिलकश जमाने याद आते हैं

 वो बचपन याद आता है वो खेलें याद आती हैं
लुका छुप्पी के वो सारे ठिकाने याद आते हैं

कभी गुडियां पटोले भी बनाने याद आते हैं
 विआह उनके कभी खुश हो रचाने याद आते हैं

कभी तितली के पीछे भागना उसको पकड लेना
किसी के बाग से जामुन चुराने याद आते हैं

कभी सखियां कभी चर्खे कभी वो तीज के झूले
घडे पनघट से पानी के उठाने याद आते है

कभी फ़ुल्कारियां बूटे कढ़ाई कर बनाते थे
अटेरन से अटेरे आज लच्छे याद आते है

बडे आँगन मे सरसों काटती दादी बुआ चाची
वो मिट्टी के बने चुल्हे पुराने याद आते हैं

23 August, 2015

गज़ल

फिलबदीह 80- काव्योदय  से हासिल गज़ल
बह्र --फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन
काफिया आ रदीफ कौन है
 गज़ल निर्मला कपिला

अब मुहब्बत यहां जानता कौन है
रूह की वो जुबां आंकता  कौन है

मंजिलों का पता कागज़ों ने दिया
नाम से तो मुझे जानता कौन है

वक्त का हर सफा खोल कर देखती
कौन देता खुशी सालता कौन है

अब खुदा है या भगवान बोलो उसे
एक ही बात है मानता कौन है

ज़िन्दगी बोझ हो तो भी चलते  रहो
रुक के मंज़िल पे पहुंचा भला कौन है --- ये अशार विजय स्वरणकार जी को समर्पित

झूठ की भी शिनाख्त किसे है यहां
चोर को चोर पहचानता कौन है

आंख कोई दिखाये तो डरते नही
गर चुनैती मिले  भागता कौन है

हादसा हो गया लोग इकट्ठे  हुये
चोट लगती जिसे देखता कौन है

लापता कितने बच्चे हुये हैं यहां
सच कहूँ तो उन्हे ढूंढ्ता कौन है

वक्त बेवक्त वो काम आया मेरे
किसको मांनूं जहां मे खुदा कौन है

17 August, 2015

गज़ल

कल की फिलबदी 74 से हासिल गज़ल
बह्र -- फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
गज़ल -- निर्मला कपिला


ज़िन्दगी को ज़िन्दगी से ही यहां धोखा मिला
जब यहां भाई से भाई ही कहीं लुटता मिला

दोस्ती  बेनूर बेमतलव  नही तो क्या कहें
जिस तरह से दोस्ती मे वो जहर भरता मिला

क्या कहें उसकी मुहब्बत की कहानी दोस्तो
रात की थी ख्वाहिशें  तो  चांद  भी जगता मिला

दर्द जो सहला नही पाये मेरे हमदर्द साथी
छेड दी सारी खरोंचें घाव कुछ गहरा मिला

ख्वाहिशें थी चाहतें थी बेडियां और आज़िजी
ज़िन्दगी पर हर तरफ तकदीर का पहरा मिला

जो खुदा के सामने भी सिर झुकाता था नही
मुफ्लिसी मे  हर किसी के सामने झुकता मिला

ख्वाब हों दिन रात हों आवाज़ देता दर्द मुझ को
भूलना जितना भी चाहा और भी ज्यादा मिला

गुणीजनो से सुधार की आपेक्षा है

16 August, 2015

 ब्लाग की दुनिया
 
बहुत सन्नाटा है
बडी खामोशी है
कहां गये वो चहचहाते मंजए
कहां गये वो साथी
जो आवाज दे कर
पुकारते थे कि आओ
सच मे मेरी रूह
अब अपने ही शहर मे
आते हुये कांपती है
क्यों की उसे कदमों की लडखडाहत नही
दिल और कदमों की मजबूती चाहिये
उजडते हुई बस्ती को बसाने के लिये
नया जोश और कुछ वक्त चाहिये 
तो आओ करें एक कोशिश
फिर से इस रूह के शहर को बसाने की
ब्लाग की दुनिया को
 हसी खुशी से
फिर उसी मुकाम पर पहुंचाने की


15 August, 2015

कविता

बहिनो भाईओ सब से पहले सब को स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभ्कामनायें1
उसके बाद  सब के भाजी स बी एस पावला जी का धन्यवाद जिन्हों ने मेरी समस्या का समाधान किया 1पूरी कहानी तो वही बता सकते हैं लेकिन मुझे इतना पता है कि वो शरारत किसने की नाम बताने की मजबूरी ये है कि वहां कुछ अच्छे लोग भी हैं जिनकी वजह से इस बार मै चुप कर गयी वो ये मत सोचें कि आगे से भी चुप रहूंगी1 सरकारें आती जाती रहती हैं  ये भी याद रखें 1किसी ने उसमे एक स्म्रिती इरानी की वीडिओ के साथ जगल नेट वर्क नाम से  कुछ डाउन्लोद कर दिया था1 इस कम्प्यूटर को मै या मेरे बच्चे ही चलाते हैं बच्चे तो आये नही और मै ऎसी चीज़ें डाउन लोड करती नही इस लिये उस शक्स का पता चल गया1लानत है ऎसे लोगों पर, जिनके मन मे इतनी बेईमानी है और जिसके कहने पर ये घ्रिणित काम किया गया उसे भी लानत है1 आज आज़ादी मनाने का दिन कैसे कहूँ कलम की आज़ादी ही छिनती जा रही है1 चलिये एक कविता जो 2006 मे छपी मेरी पुअस्तक से है -------

यथा राजा तथा प्रजा
 
जब समुदाय ,कुल और देश के प्रधान
अधर्म को देंगे अधिमान
 कर आदर्शों का परित्याग
प्रजा पर करेंगे अत्याचार
जब काम क्रोध मोह बढ जायेंगे
तो सत्युग त्र्ता दुआपर से
कलयुग ही आयेंगे
तब
प्रक्रितिक प्रकोप बढ जायेंगे
इन्द्र अग्नि वायू का प्रकोप
माहाप्रलय ही लायेगा
जो सारी मानवता को बहा ले जायेगा

जब जुल्मों की हवाय्रं
तूफां बन जाएंगी
प्रेम प्यार मानवता की
किश्तियां  डूब जायेंगी
धरा हिचकोले खायेगी
भुकम्प की त्रास्दी आयेगी
ऋतु विकार तांडव दिखायेगा
कण कन शोर मचायेगा

यथा राजा तथा प्रजा
नही कहा किसी ने बेवजह
अभी वक्त रहते इसको जान लो
खुद गर्ज़ी के लिये
न मानवता के प्राण लो

अधर्म का कर परित्याग
मानवता और जनपद से कर सद्व्यवहार
तो प्रक्रिति
तुझ पर रहम खायेगी
नही तो  सच मान
कि अब  जल्दी
महा प्रलय ही आयेगी

14 August, 2015

कविता -----ज़िन्दगी

बहुत दिनो बाद आना हुया1 मेरी रूह का शहर कितना सुनसान  पडा है! असल मे जब से इसका टेमलेट बदल गया है तब से यहाण आना अच्छा नही लगता सजावट न हो तोक्या करें इतनी लायक नही हूँ कि खुद इसका टेम्लेट बदल लूँ दूसरी जब पिछली बार खुद कोशिश की तो ब्लाग लिस्ट उड गयी1 उसके बिना भी मुश्किल लगता है1 दूसरा अधिक देर बैठने की समस्या1 देखती हूँ कैसे निपट पाती हूँ इन समस्याओं से1 लीजिये मेरी सब से पहली रछना जो इस ब्लाग पर पोस्ट की थी 1


कविता (जिन्दगी)
खिलते फूल सी मुसकान है जिन्दगी
समझो तो बडी आसान है जिन्दगी
खुशी से जियें तो सदा बहार है जिन्दगी
दुख मे तलवार की धार है जिन्दगी
पतझर बसन्तो का सिलसिला है जिन्दगी
कभी इनायतें  तो कभी गिला है जिन्दगी
कभी हसीना की चाल सी मटकती है जिन्दगी
कभी सूखे पते सी भट्कती है जिन्दगी
आगे बढने वालों के लिये पैगाम है जिन्दगी
भटकने वालों की मयखाने मे गुमनाम है जिन्दगी
निराशा मे जी का जन्जाल है जिन्दगी
आशा मे सन्गीत सी सुरताल है
कहीं मखमली बिस्तर पर सोती है जिन्दगी
कभी फुटपाथ पर पडी रोती है जिन्दगी
कभी होती थी दिल्बरे यार जिन्दगी
आज चौराहे पे खडी है शरमसार जिन्दगी
सदिओं से मा के दूध की पह्चान है जिन्दगी
उसी औरत की अस्मत पर बेईमान है जिन्दगी
वरदानो मे दाऩ क्षमादान है जिन्दगी
बदले की आग मे शमशान है जिन्दगी
खुशी से जीओ चन्द दिन की मेहमान है जिन्दगी
इबादत करो इसकी भगवान है जिन्दगी

05 May, 2015

rishte--- कविता



ये रिश्ते
अजीब रिश्ते
कभी आग
तो कभी
ठंडी बर्फ्
नहीं रह्ते
एक से सदा
बदलते हैं ऐसे
जैसे मौसम के पहर
उगते हैं
सुहाने लगते हैं
वैसाख के सूरज् की
लौ फूट्ने से
पहले पहर जैसे
बढते हैं
भागते हैं
जेठ आशाढ की
चिलचिलाती धूप की
साँसों जैसे
फिर
पड जाती हैं दरारें
मेघों जैसे
कडकते बरसते
और बह जाते हैं
बरसाती नदी नालों जैसे
रह जाती हैं बस यादें
पौष माघ की सर्द रातों मे
दुबकी सी सिकुडी सी
मिटी कि पर्त् जैसी
चलता रहता है
रिश्तों का ये सफर् !!

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