गज़ल
इस गज़ल को भीादरणीय प्राण भाई साहिब ने संवारा है। उनकी अति धन्यवादी हूँ।
गज़ल
हमारे नसीबां अगर साथ होते
बुरे वक़्त के यूँ न आघात होते.
गया वक़्त भी अपना होता सुहाना
सुहाने हमारे भी दिन रात होते
जलाते न हम आशियाँ अपने हाथों
सफ़र जिंदगानी के सौगात होते
कभी वो जरा देखते हमको मुड़कर
न बर्बाद होने के हालात होते
गरूर-ए-जबां यूँ न बेकाबू होती
न झगड़े अगर अपने बेबात होते
चली आंधियां,फासले बढ़ गये हैं
मेरे मौला ऐसे न हालात होते
तमन्ना अभी तक वो जिंदा है मुझमें
मुझे थामते हाथ में हाथ होते
बुरे वक़्त के यूँ न आघात होते.
गया वक़्त भी अपना होता सुहाना
सुहाने हमारे भी दिन रात होते
जलाते न हम आशियाँ अपने हाथों
सफ़र जिंदगानी के सौगात होते
कभी वो जरा देखते हमको मुड़कर
न बर्बाद होने के हालात होते
गरूर-ए-जबां यूँ न बेकाबू होती
न झगड़े अगर अपने बेबात होते
चली आंधियां,फासले बढ़ गये हैं
मेरे मौला ऐसे न हालात होते
तमन्ना अभी तक वो जिंदा है मुझमें
मुझे थामते हाथ में हाथ होते