उस दिन हम मौसम का आनन्द लेते हुये लेडी डाक्टर से गीत सुन रहे थे।अचानक बडे जोर से हवा चलनी शुरू हो गयी। देखते देखते बदे तूफान का रूप धारण कर गयी सब ओर अन्धेरा छा गया हम सब कमरे मे बन्द हो गए। इतना भयंकर तूफान पहली बार देखा था। अब याद नहीं कि कितनी देर इसका ताँडव चला मगर जैसे ही क्छ थमा हम लोग एमर्जेन्सी मे आ गये। पता था कि इस से बहुत बडी तबाही हुयी होगी। हम लोग एमर्जेन्सी मे सामान तैयार करने लगे । 10 मिनट भी नहीं बीते थे तूफान थमे हुये, कि घायल लोग आने शुरू हो गये। एक घन्टे मे एमर्जेन्सी के अंदर बाहर भीड ही भीड जमा हो गयी आसपास के हिमाचल और पंजाब के गाँव इसी अस्पताल पर निर्भर थे। जो मरीज सब से अधिग गन्भीर हालत मे थे पहले उन सब को अंदर रखा गया सारे स्टाफ को डय़ूटी पर बुला लिया गया। ैतना चीख चिहाडा था कि एक दूसरे की बात सुनना भी मुश्किल था। देखते देखते उन घायलों मे 10 --12 मरीज़ अपना दम तोड चुके थे। बाकी गम्भीर चोटों से चीख रहे थे कुल मिला कर वो दृष्य किसी भी इन्सान को हिला देने के लिये काफी था।
उस समय हमे ये होश नही रही कि हमारे घरों का बच्चों का क्या हुया होगा। मैं तो जैसे जड हो गयी थी मगर उस समय ना जाने कहाँ से इतना साहस आ गया कि झट से हम मरीज़ों को संभालने लगे। उस दिन पहली बार मैने घावों पर टाँके लगाये वो भी पूरे 30। मुझे जरा भी डर नहीं लगा । हाथ कपडे सारा दिन खून से लथपथ रहे 100 से उपर मरीज़ों को राहत दी गयी थी। जो निस्सँदेह स्टाफ की मेहनत के कारण ही हुया था । और मैं खुद को उस दिन धन्य समझ रही थी कि आज मुझ मे सेवा भाव जगा था और उस दिन सोच लिया था कि अब ये नौकरी कभी नहीं छोडूँगी। नहीं तो मैं सोचा करती कि मैं ये काम नहीं कर सकूँगी। मरीज़ के सूई चुभेगी तो दर्द मेरे होगा। उस दिन मैने जाना कि हमारी संवेदनायें मरती नहीं बल्कि दूसरों को राहत पहुँचाने मे हमे शक्ति देती हैं।
हमारे भी घर का बहुत नुक्सान हुया था ।सभी स्टाफ कर्मचारियों के कुछ ना कुछ हुया ही था मगर उन्हें समय नहीं था कि अपने घरों की सुध ले सकते।देखने वाले को जरूर लगता है कि ये लोग पत्थर दिल हैं। और दीदी की वो बात धीरे धीरे वाली याद आ गयी। किसी को देख कर ही संवेदन हीन कह देना कितना आसान होता है। मैं भी तो पहले दीदी को ऐसे ही समझती थी। उस तूफान मे क्या क्या हुया ये बहुत बडी कहानी हो जायेगी। इस लिये इसे यहीं विराम देती हूँ मगर ये बता दूँ कि उस दिन सारा दिन हम लोगों ने कुछ भी खाया पीया नहीं । सुबह आठ बजे से रात के आठ बज गये थे मगर अभी पोस्टमार्टम भी सब का नहीं हुया था लगता था कि आज शायद सारी रात यहीं लगेगी। सारा शहर इन मरीज़ों की सहायता के लिये इकठा हो गया था । मुझे तो अब चक्कर आने लगा था । इतना काम कभी किया ही नहीं था । अब भूख भी बहुत जोरों से लगी थी। हम लोगों ने चाय मगवाई और सुबह के जो समोसे मंगवाये थे वही खाने लगे। बाहर अभी भी 5 लाशें पडी थीं। उस दिन फिर मुझे अपनी वो बात याद हो आयी।जब मैं दीदी को पोस्टमार्टम से आते ही चाय पीते देखा था कि दीदी आप ऐसे कैसे चाय पी लेती हो । मुझे समझ आया कि जिसे मैं संवेदन्हीनता समझ रही थी वो मजबूरी थी ,समय की माँग थी। कितना आसान होता है दूसरों की संवेदनहीनता को चिन्हित करना समझ तभी आती जब खुद उनमे से गुज़रना पडता है।---
फिर भी लोगों मे गुस्सा था कि सब को पूरी सहायता नहीं मिली जब कि सारा स्टाफ अपने घर की परवाह किये बिना काम कर रहा था। अगले दिन अस्पताल के खिलाफ नारे भी लगे। मैं ये नहीं कहती कि अस्पताल मे लापरवाही नहीं होती मगर हर बार उन्हें ही दोशी ठहरा देना सही नहीं है। आप लोगों से भी यही प्रार्थना है कि जब भी आपको ऐसा लगे तो नारेबाजी करने से पहले तथ्य जरूर देख लें कहींिस तरह आरोप लगा कर आप कर्मनिष्ठ कर्मचारियों के साथ अन्याय तो नहीं कर रहे और फिर कई बार क्षुब्ध हो कर कर्मचारी काम के प्रति उदासीन होने लगते हैं।
कुछ दिनो मे ही मुझे महसूस होने लगा कि मैं पहले से भी अधिक संवेदनशील हो गयी हूँ । काम से जब भी समय मिलता किसी ना किसी मरीज के दुख दर्द जरूर सुनती। मेरी ये कहानियां उसी संवेदना की देन है। अभी भी बहुत से पात्र मेरे दिल मे हैं जिन्हें लिखना है। कुल मिला कर कहूँ कि जितनी मुश्किल मेरी ज़िन्दगी रही थी मायके ससुराल मे जवान मौतों के कारण जिम्मेदारियां बढी थी उनका मुकावला शायद मैं इन्हीं संवेदनाओं के कारण कर सकी। ये मरीज़ मेरे दुख सुख के साथी रहे। और मेरे पिताजी मेरे पथप्रदर्श क जिन्होंने कभी मेरे साहस को ढ्हने ना दिया।इसी लिये मेरी सारी रचनायें संवेदनाओं और जीवन के बारे मे ही होती हैं। बस यही है मेरे पास। और भी बहुत से संस्मरण ऐसे हैं जिनसे मैने बहुत कुछ सीखा है फिर कभी कहूँगी।
समाप्त ।