13 August, 2009

शहर की खुश नसीब औरत


वो हंसती है
मुस्कराती है और
शहर की सबसे
खुशनसीब, खुशहाल
और समझदार्
औरत कहलाती है
लोगों ने देखे हैं
उसके चमकते
मोती जैसे दाँत
शायद नहीं देख पाये
कि इनके पीछे
बिन्धी है उसकी जीभ
हर एक आन्त क्योंकि
वो हादसे, दुख, दर्द
सब की गोलियाँ बना
निगल जाती है
बिना दाँतों से छूआये
वो जानती है
एक कटु सत्य
कि सब सुख के साथी हैं
उसके दुख की गठरी
कोई नहीं उठायेगा
उसके जख्म कुरेदेगा
अपनी राह चला जायेगा
इस लिये वो हंसती है
खिलखिलाती है
और शहर की
खुशनसीब, खुशहाल
औरत् कहलाती है
वो नहीं जानते
एक बार समर्पण कर
किसी को दे दिये थे
अपने सब हक
उसके त्याग ने
निगल लिये थे सब सपने
और उसके फर्ज़ों ने
लील लिया था उसका वज़ूद
मगर अब तन मन
सब छलनी हो गया है
उसके पास बचा ही क्या है
पीडा टीस दर्द
और रिश्तों की
कुछ बची खुची किचरें
कहीं कोई घाव
रिसने ना लगे घाव
वो पी जाती है
इस दर्द से उपजे आँसू
और जोर से
ह्सती है मुस्कराती है
तभी तो शहर की
समझदार ,खुशनसीब
खुशहाल
औरत कहलाती है
मगर कितना महंगा पडता है
खुशनसीब कहलाना
ये सिर्फ वही जानती है


11 August, 2009

ये गज़ल मैने पंजाबी मे लिखी थी अपने गुरुजी स. बलबीर सैणी जी के आशीर्वाद से और इसे हिन्दी मे भी लिखा है। इसे अर्श जी से पास करवाया है । अर्श को धन्यवाद नहीं आशीर्वाद है कि मेरा बेटा अब मुझे राह दिखाने के कबिल हो गया है।


अपना कोई हाल नहीं
साँसों मे सुरताल नहीं

मार गयी मंहगाई जब्
रोटी है तो दाल नहींAlign Centre
बेटों ने खुद बांटा घर
माँ का हल फिलहाल नही

गीत गज़ल सब झूठे हैं
जिसमे बह* र् ख्याल नहीं

जेब भले ही खाली हो
दिल का पर कँगाल नहीं

नेतायों पे फंदे हो
काम दिखें करताल नहीं

जो नेता ना खेल सके
ऐसी कोई चाल नहीं

तेरे झूठ बना दूँ सच
बद नीयत बदहाल नहीं

बात जमीनी संसद मे
लेकिन  रोज  बवाल नहीं

निर्मल जीवन *निर्मल* है
कोई और सवाल नहीं

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