13 August, 2009

शहर की खुश नसीब औरत


वो हंसती है
मुस्कराती है और
शहर की सबसे
खुशनसीब, खुशहाल
और समझदार्
औरत कहलाती है
लोगों ने देखे हैं
उसके चमकते
मोती जैसे दाँत
शायद नहीं देख पाये
कि इनके पीछे
बिन्धी है उसकी जीभ
हर एक आन्त क्योंकि
वो हादसे, दुख, दर्द
सब की गोलियाँ बना
निगल जाती है
बिना दाँतों से छूआये
वो जानती है
एक कटु सत्य
कि सब सुख के साथी हैं
उसके दुख की गठरी
कोई नहीं उठायेगा
उसके जख्म कुरेदेगा
अपनी राह चला जायेगा
इस लिये वो हंसती है
खिलखिलाती है
और शहर की
खुशनसीब, खुशहाल
औरत् कहलाती है
वो नहीं जानते
एक बार समर्पण कर
किसी को दे दिये थे
अपने सब हक
उसके त्याग ने
निगल लिये थे सब सपने
और उसके फर्ज़ों ने
लील लिया था उसका वज़ूद
मगर अब तन मन
सब छलनी हो गया है
उसके पास बचा ही क्या है
पीडा टीस दर्द
और रिश्तों की
कुछ बची खुची किचरें
कहीं कोई घाव
रिसने ना लगे घाव
वो पी जाती है
इस दर्द से उपजे आँसू
और जोर से
ह्सती है मुस्कराती है
तभी तो शहर की
समझदार ,खुशनसीब
खुशहाल
औरत कहलाती है
मगर कितना महंगा पडता है
खुशनसीब कहलाना
ये सिर्फ वही जानती है


43 comments:

Unknown said...

bahut gahree
bahut marmik
bahut uttam
____________achhi kavita !

अनिल कान्त said...

आपकी रचना जिस तरह एक औरत को बयान करती है वो बहुत काबिले तारीफ है...बेहतरीन

P.N. Subramanian said...

आपने बिलकुल सही लिखा है. खुशनसीब कहलामे के पीछे कितने त्याग, कितने समझौते और क्या कुछ नहीं होता होगा.

विनोद कुमार पांडेय said...

शायद नहीं देख पाये
कि इनके पीछे
बिन्धी है उसकी जीभ
हर एक आन्त क्योंकि
वो हादसे, दुख, दर्द
सब की गोलियाँ बना
निगल जाती है
बिना दाँतों से छूआये

शहर की खुश नसीब औरत की त्याग को आपने बड़े सुंदर ढंग से दर्शाया...

बेहतरीन रचना..दिल को छू जाती है.

अविनाश वाचस्पति said...

सब जानते हैं
दुखों के भीतर
कितने जख्‍म भरे हैं
पर सामने खुशी के
मानिंद सजे हैं

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

तभी तो शहर की
समझदार ,खुशनसीब
खुशहाल
औरत कहलाती है
मगर कितना महंगा पडता है
खुशनसीब कहलाना
ये सिर्फ वही जानती है

औरत की विवेचना सुन्दर ढंग से प्रस्तुत की है।
बधाई।

Anonymous said...

बढ़िया!
मुखौटों की दुनिया की दास्तां ऐसी ही होती है

Yogesh Verma Swapn said...

dard ki sunder abhivyakti. nirmala ji aap aurat ke dard ko bakhoobi abhivyakti deti hain.

दर्पण साह said...

मोती जैसे दाँत
शायद नहीं देख पाये
कि इनके पीछे
बिन्धी है उसकी जीभ
हर एक आन्त क्योंकि
वो हादसे, दुख, दर्द
सब की गोलियाँ बना
निगल जाती है

wah....
moti jaise daant kyun moti jaise rehte hai....
..aur unko moti jaise rakhne ki mazboori !!

kya sahi pratikaatmak bhasha ka upyog kiya aapne...

...sehar ki ladki, wo kyun sehar ki bani, uska sundar dikhna uski 'hooby' hai ya uski mazboori?

संगीता पुरी said...

सच है .. यूं ही कोई खुशनसीब नहीं बन जाता !!

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत सशक्त और मार्मिक रचना. शुभकामनाएं

रामराम.

सदा said...

सब जानते हैं
दुखों के भीतर
कितने जख्‍म भरे हैं

बहुत ही बेहतरीन तरीके से प्रस्‍तुत किया आपने, आभार्

ओम आर्य said...

बहुत ही गहराई तक ले कर चली गयी आपकी रचना ......जिस मर्म को बयान करी है यह सिर्फ आपकी ही लेखनी कर सकती है .......बहुत बहुत आभार

ओम आर्य

vijay kumar sappatti said...

aadarniy nirmala ji , main pahle aapko naman karunga ki aapne naari ki vyatha ko bahut hi acche aur sashakt tareeke se ujagar kiya hai .. rachna bahut hi gahraai liye hue hai .aapki lekhni ko salaam maa....

namaskar.

vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/

सुरेश शर्मा . कार्टूनिस्ट said...

बहुत गहराई से लिखती हैं आप, सुन्दर प्रस्तुति...आभार ! संभव हो तो हमारे ब्लॉग पर भी आइये कभी--

http://pehchano.blogspot.com

vandana gupta said...

shahar ki aurat ki khushahali aur uske peeche chipe dard ko bahut hi satik roop diya hai aapne..........har kisi ke paas wo nigaah hi nhi hoti jo ye sab dekh sake...........behtreen.......badhayi sweekarein.

M VERMA said...

मगर कितना महंगा पडता है
खुशनसीब कहलाना
ये सिर्फ वही जानती है
वाह सारी बात तो इन तीन लाईनो ने कह दिया.
बेहतरीन

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत उम्दा व मार्मिक रचना!!

Vinay said...

बहुत ही उम्दा, भावविभोर करने वाली रचना है

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

bahut achhi aur touching rachna hai aapki nirmala ji..
keep writing...

mehek said...

mann ko chu gayi rachana,bol na kitne gum hai,teri ek muskurahat ke piche.shayad koi aurat ye dard nahi bayan karegi,phir bhi hasti hi rahegi,sunder badhai.

आदित्य आफ़ताब "इश्क़" aditya aaftab 'ishq' said...

नतमस्तक हूँ निर्मला जी ,सादर चरण स्पर्श !

दिगम्बर नासवा said...

AURAT KE ANTARMAN KO DHAARA MEIN YTAR DIYA HAI AAPNE....... SHADON MEIN USKA MAN, USKE ANANT DUKHON KO SAHAJ HI LIKH DIYA HAI...
SACH MEIN AURAT KE TYAAG KE NIKAT KOI BHI NAHI JAA SAKTA....

Urmi said...

अत्यन्त सुंदर! श्री कृष्ण जनमाष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें!

hem pandey said...

वो हंसती है
मुस्कराती है और
शहर की सबसे
खुशनसीब, खुशहाल
और समझदार्
औरत कहलाती है
मगर कितना महंगा पडता है
खुशनसीब कहलाना
ये सिर्फ वही जानती है
- औरत की व्यथा का मार्मिक चित्रण.

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

खाने और दिखाने के,
दो अलग-अलग दांत...

रंजना said...

ghaneebhoot peeda को shabdon में dhaal drut pravaahmaan कर दिया है आपने अपनी इस रचना में.....

मन को chhootee बहुत ही सुन्दर रचना...

एक शब्द सही कर len...शब्द tankan में sambhavtah यह भूल andekha रह गया है शब्द " kirchen " की जगह kichren type हो गया है....

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) said...

maa prnaam yek dard bhari vedna vyakt karti bhut hi karunprd kavita
jivan ki is sachaai me jiti laakho aurto ka ptinidhitv karti naari ki gaatha man ko chhu gayi
उसके पास बचा ही क्या है
पीडा टीस दर्द
और रिश्तों की
कुछ बची खुची किचरें
कहीं कोई घाव
रिसने ना लगे घाव
वो पी जाती है
इस दर्द से उपजे आँसू
और जोर से
ह्सती है मुस्कराती है
mera prnaam swikaar kare
saadar
praveen pathik
9971969084

alka mishra said...

लगता है जैसे मेरी कहानी लिख दी

पूनम श्रीवास्तव said...

आदरणीय निर्मला जी ,
बहुत ही भावनात्मक ,यथार्थ को प्रस्तुत करने वाली
आपकी गजल मन को गहराई तक छू गयी .....
पूनम

Vinay said...

श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ। जय श्री कृष्ण!!
----
INDIAN DEITIES

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

"मगर कितना महंगा पडता है
खुशनसीब कहलाना
ये सिर्फ वही जानती है"
रचना बहुत अच्छी लगी....बहुत बहुत बधाई।

KK Yadav said...

Behad khubsurat...umda prastuti.

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें. "शब्द सृजन की ओर" पर इस बार-"समग्र रूप में देखें स्वाधीनता को"

दर्पण साह said...

एक बीज,
ऊपर आने के लिए,
कुछ नीचे गया ,
ज़मीन के .


कस के पकड़ ली मिटटी ,
ताकि मिट्टी छोड़ उड़ सके .

६३ बरसा हुए आज उसे ….

…मिट्टी से कट के कौन उड़ा ,
देर तक ?

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

पंकज सुबीर said...

दर्द की कविताएं जितनी अच्‍छी तरह से स्‍त्री लिख सकती हैं उतनी गहराई के साथ पुरुष नहीं । आपने मेरी इस बात को बल दिया है । सुंदर कविता

kshama said...

इतनी गहराई से मै कब ,कैसे निकल पाऊँगी?कितनी गहराई में आप पहुँच गयी हैं!

आज़ादी को हम सबने मिलके सुंदर बनाना है..इसकी क़ीमत हम नही तो और कौन चुकायेगा?
मुबारक हो..अजरामर रहे हमारी माता...! यही एक प्रण कर सकती हूँ..कि,चाहे मेरी जान जाए, इसपे आँच ना आए!

Arvind Mishra said...

वह विदीर्ण अबला कहीं भारत माँ तो नहीं ?

Arvind Mishra said...

वह विदीर्ण अबला कहीं भारत माँ तो नहीं ?

Arvind Mishra said...
This comment has been removed by the author.
Ria Sharma said...

ह्सती है मुस्कराती है
तभी तो शहर की
समझदार ,खुशनसीब
खुशहाल
औरत कहलाती है
मगर कितना महंगा पडता है
खुशनसीब कहलाना
ये सिर्फ वही जानती है

Speechless !!
Sashakt abhivyakti !!!
Saadar !!

Razi Shahab said...

बहुत सुन्दर रचना

श्रद्धा जैन said...

निर्मला जी आपकी कविता में बहुत कध्वा सच है
कई लोग उसकी उपरी ख़ुशी देख कर ही सोचते होंगे शायद कुछ जलते भी हों
मगर वो कितने तूफ़ान कितने दर्द छुपाये है कम ही समझ पाते होंगे

आपकी कविता ने मन मोह लिया

संजीव गौतम said...

निर्मला जी आपने झकझोरकर रख दिया. आपने बिल्कुल नये विषय को अनूठे ढंग से अभिव्यक्ति दी है. बधाई

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