शब्दजाल -------कहानी
------- गताँक से आगे
बैंगलोर आये हुये मुझे 4--5 दिन हो गये थे । पहुँच कर इन्हें फोन कर दिया था । कि ठीक ठाक पहुँच गयी हूँ------- उसके बाद चार पाँच दिन से कोई बात नहीं हुई।मन मे चिन्ता भी थी कि पता नहीं कैसे खाते पीते होंगे----- अकेले कैसे रहते होंगे------ सोचा आज फोन करती हूँ । फोन मिलाया--
*हेलो !* फोन उठाते ही इनकी आवाज़ आई
*हेलो ! कौन\ कृष्णा ! कैसी हो तुम । *
*मैं ठीक हूँ आप कैसे हैं----- खाना वगैहरा कैसे चल रहा है \* मन मे था कि अभी कहंगे कि तुम्हारे बिना कुछ अच्छा नहीं चल रहा।
*बहुत बढिया चल रहा है--- काम वाली है ना वो बना देती है ।*
*चलो फिर ठीक है ।*-------- सुनते ही मुझे पता नहीं एक दम क्या हुया मैने फोन ही रख दिया क्या इत्ना भी नहीं कह सकते थे कि तुम्हारे बिन अच्छा नहीं लग रहा-----दिल नहीं लग रहा---कभी दूर भी नहीं रहे थे----- फिर भी जनाब मजे मे हैं----- मन फिर उलझ गया इतने सालों बाद पहली बार घर से बाहर आयी हूँ---- इन्हें काम करने की आदत भी नहीं ह। एक् चाय का कप तो कभी बनाया नहीं फिर घर के और कितने काम होते हैं--।कैसे चलते होंगे। मुझे घर मे अपना वज़ूद ही नगण्य सा लगने लगा ।क्या मैने सारी उम्र घर को बनाते संवारते य़ूँ ही गवा। दी घर तो मेरे बिना भी बढिया चल रहा है ।क्या एक नौकरानी से काम नहीं चल सकता था । बस इस शब्द जाल मे ऐसा उलझी कि पता नहीं सोचें कहाँ कहाँ अपने को तलाश करने लगीं।
जितने दिन बैंगलौर रही मन उदास ही रहा-।सोचने लगी थी कि इन्हें शायद अब मेरी जरूरत ही नहीं है~ तो मैं क्यों घर जा रही हूँ।फिर भी बेटी के पास कब तक रहती। जाना ही था ।इन्हें फोन कर दिया था कि 9 बजे दिल्ली पहुँच कर बस लूँगी----और चार बजे तक घर पहुँच जाऊँगी
चार बजे बस से उतर कर आटो लिया और घर पहुँच गयी। मगर ये क्या ! घर मे ताला \ आज पता था कि चार बजे मैं आ रही हूँ तो भी चले गये । बस आधा घन्टा पहले पहुँच गयी थी । मन ही मन कुढते हुये पर्स मे से दूसरी चाबी निकाली क्यों की दोनो नौकरी मे थे तो दो चाबियाँ रखनी ही पडती थीं ।दरवाज़ा खोला सामान अन्दर पटक कर मै पँखे के नीचे लेट गयी । प्यास भी बहुत लगी थी मगर पानी भी नहीं पीया----बस एक ही बात मन पर हावी होने लगी कि इन्हें मेरी पर्वाह नहीं है । चंचल मन जिन्दगी भर की अच्छाईँयां भूल कर कुछ शब्दों के हेर फेर को ले कर उलझ गया था ।
पाँच मिन्ट बाद ही ये आ गये और आते ही रसोई मे घुस गये ।
यह क्या \ ना दुआ ना सलाम ---- हाल चाल भी नहीं पूछा और रसोई मे घुस गये जैसे रसोई इन के बिना उदास हो गयी हो। मेरी आँखें भर आयी ये आँसू तो हमेशा औरत की पलकों पर ही बैठे रहते हैं बस मौका देखते ही छलक आते हैं -----
*लो कृष्णा जूस पीयो ---मैने सोचा तुम इतनी गर्मी मे आओगी और बस के सफर मे तुम्हें वोमिट भी आती है मुँह का स्वाद भी खराब हो जाता है इस लिये मैं ताज़ा जूस लेने चला गया । रास्ते मे सकूटर खराब हो गया उसे मकेनिक के पास छोड कर पैदल ही भागा आया।* एक ही साँस मे कह रहे थे-----
*कैसी हो तुम्\*
आँखों मे आये आँसू बह गये---- मैं ठीक हूँ आप कैसे हैं। गुस्सा कुछ ठँडा हुया और मैने जूस का गिलास ले कर पी लिया ।
*आप तो पीछे से मज़े मे थे ना ! * दिल की बात ज़ुबान पर आ ही गयी------ ।
*अरे क्या खाक ठीक था\ तुम्हारे बिना घर घर ही नहीं लगता था-। इतने दिन ना ढंग से खाया ना पीय़ा । इस घर की खुशियाँ तो तुमसे ही हैं।*
ये क्या\ क्या उस दिन फोन पर ये सब नहीं कह सकते थे । बस इनकी यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती थी--।शब्दों का मायाजाल देखिये इतने दिनों का गुस्सा परेशानी सब एक मिन्ट मे गायब----- अब अपने पर गुस्सा आने लगा---क्या मैं नहीं जानती थी कि ये मुझे कहें या ना कहें मगर मुझ से प्यार करते हैं। फिर क्यों पड जाती हूँ इस चक्कर मे। और इन्हें तो शब्दों का ये हेरफेर बिलकुल भी नहीं आता---मगर मेरे दिल की बात बिना कहे समझ लेते हैं---- और अब मैं क्या चाहती हूँ ये जान गये थे-----आपेक्षित शब्दों की फुहार तन मन भिगो गयी थी । वाह री पत्नि !
बैंगलोर आये हुये मुझे 4--5 दिन हो गये थे । पहुँच कर इन्हें फोन कर दिया था । कि ठीक ठाक पहुँच गयी हूँ------- उसके बाद चार पाँच दिन से कोई बात नहीं हुई।मन मे चिन्ता भी थी कि पता नहीं कैसे खाते पीते होंगे----- अकेले कैसे रहते होंगे------ सोचा आज फोन करती हूँ । फोन मिलाया--
*हेलो !* फोन उठाते ही इनकी आवाज़ आई
*हेलो ! कौन\ कृष्णा ! कैसी हो तुम । *
*मैं ठीक हूँ आप कैसे हैं----- खाना वगैहरा कैसे चल रहा है \* मन मे था कि अभी कहंगे कि तुम्हारे बिना कुछ अच्छा नहीं चल रहा।
*बहुत बढिया चल रहा है--- काम वाली है ना वो बना देती है ।*
*चलो फिर ठीक है ।*-------- सुनते ही मुझे पता नहीं एक दम क्या हुया मैने फोन ही रख दिया क्या इत्ना भी नहीं कह सकते थे कि तुम्हारे बिन अच्छा नहीं लग रहा-----दिल नहीं लग रहा---कभी दूर भी नहीं रहे थे----- फिर भी जनाब मजे मे हैं----- मन फिर उलझ गया इतने सालों बाद पहली बार घर से बाहर आयी हूँ---- इन्हें काम करने की आदत भी नहीं ह। एक् चाय का कप तो कभी बनाया नहीं फिर घर के और कितने काम होते हैं--।कैसे चलते होंगे। मुझे घर मे अपना वज़ूद ही नगण्य सा लगने लगा ।क्या मैने सारी उम्र घर को बनाते संवारते य़ूँ ही गवा। दी घर तो मेरे बिना भी बढिया चल रहा है ।क्या एक नौकरानी से काम नहीं चल सकता था । बस इस शब्द जाल मे ऐसा उलझी कि पता नहीं सोचें कहाँ कहाँ अपने को तलाश करने लगीं।
जितने दिन बैंगलौर रही मन उदास ही रहा-।सोचने लगी थी कि इन्हें शायद अब मेरी जरूरत ही नहीं है~ तो मैं क्यों घर जा रही हूँ।फिर भी बेटी के पास कब तक रहती। जाना ही था ।इन्हें फोन कर दिया था कि 9 बजे दिल्ली पहुँच कर बस लूँगी----और चार बजे तक घर पहुँच जाऊँगी
चार बजे बस से उतर कर आटो लिया और घर पहुँच गयी। मगर ये क्या ! घर मे ताला \ आज पता था कि चार बजे मैं आ रही हूँ तो भी चले गये । बस आधा घन्टा पहले पहुँच गयी थी । मन ही मन कुढते हुये पर्स मे से दूसरी चाबी निकाली क्यों की दोनो नौकरी मे थे तो दो चाबियाँ रखनी ही पडती थीं ।दरवाज़ा खोला सामान अन्दर पटक कर मै पँखे के नीचे लेट गयी । प्यास भी बहुत लगी थी मगर पानी भी नहीं पीया----बस एक ही बात मन पर हावी होने लगी कि इन्हें मेरी पर्वाह नहीं है । चंचल मन जिन्दगी भर की अच्छाईँयां भूल कर कुछ शब्दों के हेर फेर को ले कर उलझ गया था ।
पाँच मिन्ट बाद ही ये आ गये और आते ही रसोई मे घुस गये ।
यह क्या \ ना दुआ ना सलाम ---- हाल चाल भी नहीं पूछा और रसोई मे घुस गये जैसे रसोई इन के बिना उदास हो गयी हो। मेरी आँखें भर आयी ये आँसू तो हमेशा औरत की पलकों पर ही बैठे रहते हैं बस मौका देखते ही छलक आते हैं -----
*लो कृष्णा जूस पीयो ---मैने सोचा तुम इतनी गर्मी मे आओगी और बस के सफर मे तुम्हें वोमिट भी आती है मुँह का स्वाद भी खराब हो जाता है इस लिये मैं ताज़ा जूस लेने चला गया । रास्ते मे सकूटर खराब हो गया उसे मकेनिक के पास छोड कर पैदल ही भागा आया।* एक ही साँस मे कह रहे थे-----
*कैसी हो तुम्\*
आँखों मे आये आँसू बह गये---- मैं ठीक हूँ आप कैसे हैं। गुस्सा कुछ ठँडा हुया और मैने जूस का गिलास ले कर पी लिया ।
*आप तो पीछे से मज़े मे थे ना ! * दिल की बात ज़ुबान पर आ ही गयी------ ।
*अरे क्या खाक ठीक था\ तुम्हारे बिना घर घर ही नहीं लगता था-। इतने दिन ना ढंग से खाया ना पीय़ा । इस घर की खुशियाँ तो तुमसे ही हैं।*
ये क्या\ क्या उस दिन फोन पर ये सब नहीं कह सकते थे । बस इनकी यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती थी--।शब्दों का मायाजाल देखिये इतने दिनों का गुस्सा परेशानी सब एक मिन्ट मे गायब----- अब अपने पर गुस्सा आने लगा---क्या मैं नहीं जानती थी कि ये मुझे कहें या ना कहें मगर मुझ से प्यार करते हैं। फिर क्यों पड जाती हूँ इस चक्कर मे। और इन्हें तो शब्दों का ये हेरफेर बिलकुल भी नहीं आता---मगर मेरे दिल की बात बिना कहे समझ लेते हैं---- और अब मैं क्या चाहती हूँ ये जान गये थे-----आपेक्षित शब्दों की फुहार तन मन भिगो गयी थी । वाह री पत्नि !
---------समाप्त्