01 October, 2009

दोहरे माप दँड----
पिछली बार आपने पढा
कि रिचा और रिया दोनो स्कूल मे इकठी पढती थीं । दोनो सहेलियाँ थी। रिया शहर मे और रिचा साथ लगते गाँव मे रहती थी। जिस दिन स्कूल मे छुटियाँ हुई उस दिन जब रिचा स्कूल से घर नहीं पहुँची तो उसके घर वालों को चिन्ता हुई। उसके पिता पोलिस मे केस दर्ज नहीं करवाना चाहते थे। सभी इसी सोच मे थे कि क्या किया जाये उसे कहाँ ढूँढा जाये।

गताँक से आगे कहानी
अब आगे

अभी वो लोग कुछ और फैसला लेते तभी एक आदमी भागा भागा आया--* जल्दी चलिये ट्यूवेल के पास रिचा खून से लतपथ बेहोश पडी है।*
सभी आनन फानन मे उधर दौदे साथ वाला फौजी अपनी गाडी ले आया। ये ट्यूवेल इसी गाँव के आखिरी खेत पर था साथ मे दूसरा गाँव बेला पुर की जमीन पडती थी। वहाँ भी एक टयूवेल था।
रिचा को देख कर एक बार तो सब की रूह काँप गयी।शरीर पर कई जगह चाकू के निशान भी थी।सारे कपडे खून से सने थे मुँह पर खरोंचों से खून रिस रहा था। जल्दी से तीन चार लोगों ने उसे उठा कर गाडी मे डाला।ाउर अस्पताल ले गये। अस्पताल वलों ने पोलिस क्प सूचना भेज कर उसका इलाज शुरू कर दिया।जाँच मे पाया गया कि लडकी का बलात्कार किया गया है साथ ही चाकूओं कई जगह वार किया गया है। लडकी की हालत बेहद गम्भीर थी।माँ बाप को काटो तो खून नहीं।भाई बेबसी मे हाथ मल रहा था।बाप सोच रहा था कि पोलिस लडकी का ब्यान लेगीपता नहीं कितनी बार क्या क्या सवाल पूछे जायेंगे और फिर अदालत मे वकील जिर्ह करेंगे तो लडकी की और मिट्टी पलीत होगी कितनी बदनामी होगी । फिर वो बदमाश पता नहीं कौन होंगे और कितने ताकतबर होंगे,ाइसे मे दुशमनी मोल ले कर भविश्य के लिये मुसीबतें खडी करने से क्या फायदा। धन और इज्जत दोनो की बरबादी होगी।
इज्जत जानी थी सो जा चुकी।ाब चुपचाप कडवा घूँट ही पीना होगा।। उन्हों ने अपनी पत्नि को भी समझा दिया कि जैसे ही लडकी को होश आये उसेसमझा दे कि किसी का नाम नहीं लेना।ाउर कह दे कि मुझे बेहोश कर दिया गया था मैं शक्ल नहीं देख सकी।पत्नि ने विरोध करना चाहा मगर पति ने घुडकी दे कर चुप करवा दिया। शायद एक लाचार बाप यही कर सकता हो कह देना आसान है कि उनको सजा दिलवानी चाहिये थी मगर शायद बाप को भी अपनी इज्जत बेटी के दुख और आक्रोश से अधिक प्यारी थी।
अगले दिन लडकी को होश आया तो उसने माँ को सारी बात बताई।वो बदमाश साथ के गाँव के सरपँच का बेटा था।साथ मे उसके दो दोस्त थे । तीनो उसे उठा कर अपने खेत वाले टूवेल पर ले गयी थे।उसके साथ कुकर्म किया विरोध करने पर उसके चाकू मारे। और साथ मे धमकी दी कि अगर किसी को हमारा नाम बताया तो पूरे खानदान को खत्म कर देंगे। एक तो बार बार कह रहा था कि इसे मार दो मगर दूसरे ने मना किया कि ऐसे ही फेंक दो। शयद अपनी तरफ से मार कर ही फेंक गये थे। अगर अधा घँटा और वहाँ पडी रहती तो प्राण पखेरू उड गये होते।
बाप जानता था कि उस सरपंच के पास पैसे की ताकत तो थी ही ,उसके सम्बन्ध भी बडे बडे नेताओं से थे और आप भी वो बदमाश किस्म का आदमी थाीऐसी हालत मे उनसे लोहा लेना धन,समय और बची खुची इज्जत की बरबादी होगी।
पोलिस ने भी खाना पूर्ती कर के केस की फाईलें अलमारी मे बन्द कर दी उन्हें पैसा और सिफार्श ने काबू कर लिया था।फिर लडकी के ब्यान भी यही थे कि वो किसी को नहीं पहचानती।
इस तरह एक मासूम के साथ अत्याचार और इन्साफ थाने की फाईलों मे दब कर रह गये थे।इन्साफ की देवी तो खुद देख नहीं सकती उसकी आँखों पर तो पट्टी बन्धी रहती है,ापराधियों को सजा कैसे हो सकती है आम आदनी तो ऐसे राक्षसों से लड भी नहीं सकता।
वक्त के साथ साथ लोग समाज के उन दरिन्दों को तो भूल गये मगर ये नहीं भूले कि इस लडकी की इज्जत लुट चुकी है। उसे सहानुभूति रखने की बजाये उसे हेय दृश्टी से देखा जाने लगा। माँ बाप के लिये भी अब वो शाप बन गयी थी । जितने लोग उतनी बातें। कुछ का कहना था कि ये जान बूझ कर स्कूल से लेट आयी और खुद ही उन लडकों के साथ गयी होगी।
चाहिये तो ये था कि कोई उसकी भी भावनायें समझता, उसके दुख को सुनता, उसे हादसा भूलने मे मदद करता, मगर नहीं --- समाज ने औरत के साथ न्याय किया ही कब है। अगर किसी ने उसके भाई को एक थप्पड भी मारा होता तो शायद बाप बेटा दोनो मरने मारने पर उतारू हो जाते। मगर आज इनके लिये बेटी से अधिक अपनी इज्जत प्यारी हो गयी।बाकी लोग क्यों उसकी भावनाओं पर ध्यान दें जब घर वाले ही उसे कलंक समझने लगे थे।
मुझे इस हादसे से अधिक दिख उसके माँ बाप के रवैये को देख कर हुया।मन विद्रोह सा कर उठा था।। इस हादसे से दूसरे दिन ही हम लोग तो लुधियाना चले गयी थे क्यों की मेरी मम्मी के आप्रेशन की तारीख ले रखी थी। वहाँ भी मुझे रिचा की चिन्ता रहती बेचारी किस मानसिक कश्ट से गुज़र रही होगी कोई उससे बात करने वाला भी नहीं होगा। हमे लुधियाना मे एक महीना लग गया। अभी हमारी एक हफ्ते की छुटियां पडी थी। घर आते ही मैने रिचा से मिलने की सोची।
सुबह मैने नाश्ता करते हुये मां से पूछा
* माँ मैं रिचा से मिल आऊँ?*
*बेटी तुम्हारी सहेली है तुम्हें जरूर जाना चाहिये ।* मा जवाब देती इस से पहले हीपिताजी बोल पडे।
*ये क्या करेगी जा कर सुना नहीं लोग तरह तरह की बातें कर रहे हैं?* दादी एकदम बोल पडी
माँ लोगों का क्या हैकिसी को भी कुछ भी कह देते हैं । इसमे उस बेचारी का क्या कसूर है? हम लडकी वाले हैं कल को हमारी बेटी के साथ कुछ हो तो हमे भी ऐसे ही कहेंगे। दोस्त मित्र के दुख मे साथ देना हमारा कर्तव्य है।* पिता जी ने दादी को समझाया।
मै जानती थी कि मेरे पोता बहुत सुलझे हुये और अच्छे इन्सान हैं। काश कि समाज के सब लोग मेरे पोता जैसे हो जायें तो शायद समाज मे कोई समस्या ही ना हो।पिता जी ने मुझे कहा कि मै तुम्हें छोड आता हूँ दोपहर को ले आऊँगा। 2-3 कि मी तो गाँव है। क्रमश:

28 comments:

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत बढिया प्रवाह है आगे का इंतजार है.

रामराम.

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

ਇਕ ਹਾਦਸੇ ਦੀ ਸ਼ਿਕਾਰ ਕੂਦੀ ਤੇ ਏਕ ਸ੍ਮਾਜਿਕ ਬਦਨਮੀ ਦੇ ਘਬਰਾਏ ਹੁਏ ਕੁਨਬੇ ਦੀ ਭਾਵਨਾ ਨੂ ਤੁੱਸੀ ਚੰਗੇ ਢੰਗ ਨਾਲ ਪੇਸ਼ ਕਿੱਤਾ ਹੈਗਾ,ਤੁਹਾਨੂ ਬ੍ਢਾਈ,

अनिल कान्त said...

समाज की समस्याओं पर आपकी कहानियाँ बहुत बेहतरीन होती हैं...आगे का इंतजार

विनोद कुमार पांडेय said...

समाज के कई रूप होते है सच तो यह है की समाज हम जैसों से मिल कर बना है उसी मे दादी जी और गाँव वाले आते है और उसी समाज मे रिया और उसके पिता जी..

कहानी बहुत बढ़िया लगी...अगले भाग का इंतज़ार है.....धन्यवाद..

Mithilesh dubey said...

चरण स्पर्श

सामाजिक व्यथा को बखूबी दर्शाया आपने इस रचना के माधयम से। बहुत ही उम्दा कहानी रही। बहुत-बहुत बधाई आपको

दिगम्बर नासवा said...

कहानी ने एक नया मोड़ ले लिया है ........ भावनात्मक कहानी है ... आगे की प्रतीक्षा है .........

सदा said...

बहुत बढ़िया कहानी लगी...अगले कड़ी के इंतजार के साथ प्रस्‍तुति के लिये आभार

दर्पण साह said...

Sarpanch ke bete ko koi to saza milni hi chahiye...

...badi hridayak ghatna ghati richa ke saath !!

agli kadi(kadiyon) ka intzaar

दर्पण साह said...

hridya vidarak likhna chahraha tha

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

bhaavnaon ko bahut hi khoobsoorti se darshaya hai aapne..........

Mishra Pankaj said...


मार्मिक कहानी सजीव चित्रण

vandana gupta said...

ek samajik vyatha ka sajeev chitran kiya hai..........agli kadi ka intzaar hai.

ओम आर्य said...

bahut hi sundrta se samaajika samasyao ko darashati rachana ..........maramsparshi rachana ....agale kadi ka intajar rahega.........

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

"....-- समाज ने औरत के साथ न्याय किया ही कब है।....."

कहानी बहुत बढ़िया चल रही है।
अगली कड़ी की प्रतीक्षा है....।

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

u.ffff...

admin said...

जिंदगी की सच्ची दास्तान मालूम होती है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

राज भाटिय़ा said...

लेकिन इस मै लडकी का कया कसूर जो लोग उसे हेय से क्यो देखने लगे, क्यो नही सब ने मिल कर उस कुत्ते को मारा....
कहानि बहुत अच्छे जा रही है, ओर इस मै हमारे समाज की कमजोरी भी दिख रही है कि सब कमजोर को दवाते है, बदमाश को सब सलाम करते है, अगर सब मिल कर बदमाश को मारे तो कितना अच्छा हो....
धन्यवाद

प्रकाश पाखी said...

आदरणीय निर्मलाजी,
दोहरे मापदंड और अन्तर्विरोध भारतीय समाज में गहराई से उतरे हुए है.शायद युगों से यह दृष्टिकोण अनकहे नियम बनकर सामाजिक विद्रूपता उत्पन्न कर रहा है.हमने अपने नजरिये में नारी को अभी भी सम्पत्ति या पशु ही मान रखा है.आपने अपनी कहानी में मार्मिक ढंग से इस सत्य को उभारा है.विचित्रता यह है की पढने वाले भी ऐसी घटनाओं में भी पीडा की जगह कामुकता ढूँढने लगते है.यह विडम्बना भारतीय समाज से दूर होने में अभी बहुत समय लगेगा.
आपको बधाई और साधुवाद.

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

एक सामाजिक व्यथा का सजीव चित्रण करती इस कहानी का प्रवाह बना हुआ है!!
आगे की कडी की प्रतीक्षा......

mehek said...

samajh ke anek roop ko ujagar karti kahani,mann bhi kitna dolaymaan hota hai,aage intazaar rahega..

Kulwant Happy said...

औरतों ने ही औरत को कमजोर कर दिया। जब वो खून में लथपथ मिली होगी तो हर महिला ने कहा होगा कर दिया सबका मुंह काला, भले ही उसका दोष नहीं था, लेकिन उधर लड़के अपने दोस्तों में बड़ी बड़ी छोड़ रहें होंगे। लोग खुद ही कांटे बोते हैं, जब चुभते हैं तो दर्द होता है। अगर मर्द मर्द को हल्ला शेरी देना बंद कर दे तो शायद ऐसे हादसे न घटित हो। एक शानदार किस्सा याद आ गया, जब बस से एक लड़की उतरी उसका मुंह हमारी तरफ नहीं था, हमारे बीच खड़े लड़के ने कहा क्या पटाखा है यारो। लेकिन हैरानी की हद तब न रही, जब उसको पता चला कि वो उसकी बहन थी, जो सुबह उसके उठने से पहले घर से पढ़ने के लिए निकल गई थी और जो उसने कपड़े पहने थे, शायद वो बिल्कुल नए थे, जो उसने देखे भी न थे।

दिनेशराय द्विवेदी said...

कहानी पढ़ रहा हूँ। अब तक ठीक चल रही है। आप की कहानियां सामाजिक यथार्थ लिए होती हैं।

वाणी गीत said...

दोहरे मापदंडों के साथ ही एक व्यथित और
डरे सहमे परिवार की इस गाथा की अगली कड़ी का इन्जार है ..!!

Anonymous said...

बेहद उम्दा, अगली पोस्ट के इंतज़ार मे...

अनुज खरे said...

very nice, very emotional story.

keep it up...badhai...

anuj

मुकेश कुमार तिवारी said...

निर्मला जी,

यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिती है कि दोषी से ज्यादा दोष उसे भोगने वाले का हो जाता है।

कहानी का प्रवाह बिल्कुल भी पाठक को हिलने नही देता। कहीम तो ऐसा लगता है कि पूरी एक साथ एक बैठक में ही पढना चाहिये।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

rashmi ravija said...

कहानी बहुत ही सजीव और मार्मिक बन पड़ी है.रूपा और उसके परिवार की मनोव्यथा बहुत अच्छी तरह दर्शायी है आपने ....आगे की कड़ियों का बेसब्री से इंतज़ार है..

पूनम श्रीवास्तव said...

आपकी कहानियां भाषा,शिल्प और कथ्य ---तीनों ही स्तरों पर बहुत खूबसूरती से रची जाती हैं।--अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी।
पूनम

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