22 December, 2016

 गज़ल

तमन्ना सर फरोशी की लिये आगे खड़ा होता
मैं क़िसमत का धनी होता बतन पर गर फना होता

अगर माकूल से माहौल में मैं भी पला होता
मेरा जीने का मक़सद आसमां से भी बड़ा होता

न कलियां खिलने से पहले ही मुरझातीं गुलिस्तां में
खिज़ाओं का अगर साया न गुलशन पर पड़ा होता

करें क्या गुफ्तगू उससे चुरा लेता है जो से नज़रें
बताता तो सही मुझसे अगर शिकवा गिला होता

कुरेदा है मिरे ज़ख्मों को अकसर तूने फितनागर
यकीं करते न अपना जान कर तो  क्यों दगा होता

परिंदे ने भी देखे थे बुलंदी के कई सपने
न दुनिया काटती जो पंख तो ऊँचा उड़ा होता

न हरगिज़ भूख लेजाती उन्हें कूड़े के ढेरों पर
गरीबों के  लिए सरकार ने गर कुछ किया होता\

4 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुकर्वार (23-12-2016) को "पर्दा धीरे-धीरे हट रहा है" (चर्चा अंक-2565) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

PRAN SHARMA said...

Har Sher Daad Ke Kaabil . Badhaaee .

दिगम्बर नासवा said...

बहुत ख़ूब ... लाजवाब शेर ज़िन्दादिल शेर ...

निर्मला कपिला said...

अद गुरूदेव प्राण शर्मा जी नमन 1 आपका आना एक अच्छी शुरुअत है आभार आपका1
आद नास्वा जी
आद शास्त्री जी व साधना जी आपका भी बहुत बहुत शुक्रिया1

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