15 April, 2015

गज़ल्



दर्द के कुछ कौर खा कर भूख मिटा लेते रहे हैं
प्यास अपनी आंसुओं से ही बुझा लेते रहे हैं

इस जमाने ने दिया क्या है सिवा बस ठोकरों के
बिन ठिकाने ज़िन्दगी फिर भी बिता लेते रहे हैं

आसमा है छत जमीं बिस्तर नसीबों मे हमारे
पी गमों के जाम हम तो लडखडा लेते रहे हैं

वो हिसाब किताब क्यों  पूछे  मुहब्बत मे बताओ ?
लोग तो इस इश्क मे जां तक लुटा लेते रहे हैं

कौन कहता है जमाना लडकिओं का आ गया है
लोग बहुओं को अभी तक भी जला लेते रहे हैं

रात तन्हा दिल उदासी  से भरा सा हो कभी तो
बंद पलकों मे कई सपने बिठा  लेते रहे हैं

यूं तमन्ना तो बहुत है हर खुशी हम्को मिले पर
जो मिला आंखों पे उसको ही बिठा लेते रहे हैं

16 comments:

  1. बहुत खूब ... हर शेर आज के सन्दर्भ में है ... बहुत शशक्त है ...
    लाजवाब ग़ज़ल ...

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  2. खुशी की तमन्ना है तो खुशी बाँटने हम चले हैं!
    वाह!

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  3. आपकी ग़ज़ल अच्छी लगी "वो हिसाब किताब क्यों पूछें ...."

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  4. सच्ची ,,दिल की बातें......

    मैंने तो चाह था, वो आ के गले लग जाए मेरे
    पर क्यों, वो तो दूर से हाथ अपना हिलाते रहे हैं...

    शुभकामनायें |

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  5. दिल से निकली लाजवाब गजल .
    कई माह बाद आपकी रचना पढ़ने को मिली ...यूँ ही कभी कभार लिखते रहिएगा ..अच्छा लगता है ..
    सादर

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  6. बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल..सभी अशआर बहुत सटीक और उम्दा..

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  7. बहुत बढ़िया गज़ल

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  8. वाह! बेहतरीन ग़ज़ल है !

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  9. बहुत गहरे जज़्बातों को बयान किया है आपने इस ग़ज़ल के माध्यम से . बधाई

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  10. बहुत गहरे जज़्बातों को बयान किया है आपने इस ग़ज़ल के माध्यम से . बधाई

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