ये रिश्ते
अजीब रिश्ते
कभी आग
तो कभी
ठंडी बर्फ्
नहीं रह्ते
एक से सदा
बदलते हैं ऐसे
जैसे मौसम के पहर
उगते हैं
सुहाने लगते हैं
वैसाख के सूरज् की
लौ फूट्ने से
पहले पहर जैसे
बढते हैं
भागते हैं
जेठ आशाढ की
चिलचिलाती धूप की
साँसों जैसे
फिर
पड जाती हैं दरारें
मेघों जैसे
कडकते बरसते
नहीं रह्ते
एक से सदा
बदलते हैं ऐसे
जैसे मौसम के पहर
उगते हैं
सुहाने लगते हैं
वैसाख के सूरज् की
लौ फूट्ने से
पहले पहर जैसे
बढते हैं
भागते हैं
जेठ आशाढ की
चिलचिलाती धूप की
साँसों जैसे
फिर
पड जाती हैं दरारें
मेघों जैसे
कडकते बरसते
और बह जाते हैं
बरसाती नदी नालों जैसे
रह जाती हैं बस यादें
पौष माघ की सर्द रातों मे
दुबकी सी सिकुडी सी
मिटी कि पर्त् जैसी
बरसाती नदी नालों जैसे
रह जाती हैं बस यादें
पौष माघ की सर्द रातों मे
दुबकी सी सिकुडी सी
मिटी कि पर्त् जैसी
चलता रहता है
रिश्तों का ये सफर् !!
रिश्तों का ये सफर् !!
सुंदर रचना ।
ReplyDeleterishte ka safar yu hi chalta rahe... shubhkamnayen
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 7 - 5 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1968 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
रिश्तें जब अपनेपन से भरे होते हैं तो मन को ख़ुशी मिलती हैं लेकिन जब वे रिसने लगते हैं तो उनकी टीस चुभती रहती है हरपल .....
ReplyDeleteबहुत ही मर्मस्पर्शी रचना ....
सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
यूं चलता ही रहता है रिश्तों का सफर...उम्दा लिखा
ReplyDeleteसच ही कहा है जैसे मौसम बदलते हैं वैसे ही रिश्ते भी बदलते बनते बिगड़ते हैं
ReplyDeleteआभार
खूबसूरत रचना
ReplyDeleteरिश्ते यूँ ही रहें तो गहरा एहसास साथ चलता है ...
ReplyDeleteमन को झंकृत करते भाव। बधाई।
ReplyDeleteसुंदर रचना !
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