05 May, 2015

rishte--- कविता



ये रिश्ते
अजीब रिश्ते
कभी आग
तो कभी
ठंडी बर्फ्
नहीं रह्ते
एक से सदा
बदलते हैं ऐसे
जैसे मौसम के पहर
उगते हैं
सुहाने लगते हैं
वैसाख के सूरज् की
लौ फूट्ने से
पहले पहर जैसे
बढते हैं
भागते हैं
जेठ आशाढ की
चिलचिलाती धूप की
साँसों जैसे
फिर
पड जाती हैं दरारें
मेघों जैसे
कडकते बरसते
और बह जाते हैं
बरसाती नदी नालों जैसे
रह जाती हैं बस यादें
पौष माघ की सर्द रातों मे
दुबकी सी सिकुडी सी
मिटी कि पर्त् जैसी
चलता रहता है
रिश्तों का ये सफर् !!

12 comments:

  1. rishte ka safar yu hi chalta rahe... shubhkamnayen

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 7 - 5 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1968 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  3. रिश्तें जब अपनेपन से भरे होते हैं तो मन को ख़ुशी मिलती हैं लेकिन जब वे रिसने लगते हैं तो उनकी टीस चुभती रहती है हरपल .....
    बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना ....

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  4. सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
    शुभकामनाएँ।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  5. यूं चलता ही रहता है रि‍श्‍तों का सफर...उम्‍दा लि‍खा

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  6. सच ही कहा है जैसे मौसम बदलते हैं वैसे ही रिश्ते भी बदलते बनते बिगड़ते हैं
    आभार

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  7. रिश्ते यूँ ही रहें तो गहरा एहसास साथ चलता है ...

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  8. मन को झंकृत करते भाव। बधाई।

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