07 February, 2009


फिज़ा अब बस करो
क्यों पीट रही हो लकीर
तेरी लुट चुकी है तकदीर
बेकार है हर तदबीर
क्या नहीं देखी थी
अखबार मे वो तस्वीर
जो भेजी थी चँद्र्यान ने
उसने ये भी बताया था
कि चाँद के सीने में
धडकता हुआ दिल नहीं है
वहाँ पथरीली चट्टाने है
और उसकी आँख मे कभी
जो पानी हुआ करता था
वो अब मर चुका है
उसी कि तलाश मे है चन्द्र्यान
उसने ये भी बताया था
चाँद अपनी सीमा के
अभेद्य सन्नाटे मे है
वो तो अपनी बाहरी
चमक दमक से
दुनिया को लुभाता रहा है
कभी मोहन बन कर
कभी मोहम्म्द बन कर
भरमाता रहा है
और उसकी सीमा
इतनी मजबूत है
कि कोई फिज़ा उसे
भेद नहीं सकती
अब सब्र कर
छोड चाँद छुने की जिद
इतना ही काफी है
तेरे लिये कि
तू सबक बन गयी है
लोगों के लिये
अब कभी कोई फिजा
किसी चाँद को पाने
उसकी सीमा पर
जाने से पहले घबरायेगी
चली भी गयी
तो तेरी मौत मर जायेगी

05 February, 2009


बचपन की कोई याद


मखमली खेतों पर
सुसज्जित हिमकिरणों की
अरुणाइ ने फिर
लालसा जगाई है
पावन पवन
निर्मल मधुर
झरनों की कलकल
केसर की भीनी महक
मुझे फिर खींच लायी है
बचपन की कोई याद
आज गाँव की देहरी पर आई है
शरद पूर्णिमा मे
ठिठुरते हंसते होंठ
आँखों की चंचलता पर
पलकों ने रोक लगायी है
मुझे देख तेरेगालों पर
लालिमा सी छाई है
बच्पन की कोई याद आज
गाँव की देहरी पर आई है
कुचालें उन्मुक्त हिरणी जैसी
रिमझिम बूँदों से भीगा
बदन लिये
मेरे सामने आयी है
तेरी काली जुल्फें देख
कली घटा शरमाई है
बच्पन की कोई याद आज
गाँव की देहरी पर आई है
मुझे देख शर्माना
छलावा बन छुप जाना
कभी तिड बगीचे से
आम अम्रुद जामुन खाना
मुझे लग पेड के पीछे से
निकल मेरे सामने आई है
फिर अपनी कल्पना पर
आँख मेरी भर आई है
बच्पन की कोई याद
आज
गाँव की देहरी पर्
आई है
आज
अतीत और वर्तमान में
समन्वय नही बिठा पाऊँगा
एक अभिलाषा एक लालसा
फिर वैसे ही ले जाऊँगा
शायद फिर ना आ पाऊँगा
तुझे क्यों नहीं आज्
याद मेरी आयी ह
जीवन संध्या मे
ये कैसी
रुसवाई ह
वचपन की कोई याद
आज गाँव की देहरी पर आई है !!

03 February, 2009


  • इन्सानियत के किस दौर मे इन्सान है
    आज आदमी से आदमी परेशान है

  • लम्हा लम्हा है बेहाल जिन्दगी
    बन गयी है इक सवाल जिन्दगी
    बेहाल जिन्दगी इक सवाल जिन्दगी

    गरीब का हक हडपती है जिन्दगी
    तंदूर मे सुलगती तड्पती है जिन्दग
    कचरे के ढेर पर तरसती है जिन्दगी
    दरिण्दगी से हुई हैमलाल जिन्दगी
    बेहाल जिन्दगी--
    नोट पर रख के खाते हैं हीरोइन
    वाँदी के गिलास मे परोसते हैं"जिन"
    बिन साँप नही कोई भी आस्तिन्
    ऐश परस्ती बनी है चाल जिन्दगी
    बेहाल जिन्दगी--
    ना संस्कार ही रहे ना दीन और धर्म
    ना रिश्तों की मर्यादा नआँख की शर्म
    प्रधान बनता है जो कर बुरे कर्म
    दौलत की भूख रह गयी खयाल जिन्दगी
    बेहाल जिन्दगी---

01 February, 2009


धर्म करता है
आन्तरिक प्राकृ्ति
मानवता गुण सचेत
शिव और मानव्
हो जाता है एक
साम्प्रदाय करता ह
बाह्म अमानवता गुण
सचेत
शिव और आत्मा
हो जाते हैँ अचेत
और्
ब्राह्मन्ड
एक से अनेक् !!