07 September, 2009

पिँजरे का दर्द ----
कितनी कोशिश करती हूँ--- बस अब और नहीं मगर फिर भी बेसब्री से सुबह का इन्तज़ार रहता है---- उठते ही खिडकी से झाँकती हूँ--- उस पर नज़र पडते ही जैसे मन को एक स्कून सा मिलता है -- तपती रेत पर बारिश की दो बून्दें ----एक आशा मन मे जागने लगती है---- शायद---- पंख फडफडाता है और चीं चीं करने लगता है जैसे पूछ रहा हो-- मा कैसी हो?-- हाथ उठाती हूँ उसे आशीर्वाद देने के लिये और फिर जलदी से खिडकी की ओट मे हो जाती हूँ---- कहीं मेरी तृ्श्णा फिर से ना सर उठाने लगे---- मेरी आँख नम ना हो जाये वो चाहे कितना ही दूर दूर भागे मगर जानती हूँ मेरे आँसू देख कर आँख उसकी भी नम हो जायेगी ---- कम से कम उसे कोई तकलीफ नहीं पहुँचाना चाहती।---- वो जाते जाते फिर चीँ चीं करता है, जैसे कह रहा हो * अपना ध्यान रखना--- और मैं उदास हो कर अपने बिस्तर पर लेट जाती हूँ---- फिर बुझे से मन से काम मे लग जाती हूँ । काम के बाद फिर से उस खिडकी मे आ कर बैठ जाती हूँ --- एक झलक उसे देखने की चाह मिटा नहीं पाती --- दिखता नहीं है मगर जानती हूँ कि इसी कालोनी के किसी पेड पर बैठा है--- शायद मेरी खिडकी के सामने हो मगर पत्तों मे छिप जाता है देख लेती हूँ उसके पँखों की एक झलक ---- और दिन भार याद करती रहती हूँ उसकी मीठी 2 बातें---- उसका चहकना, उसकी उडान, खाना खाते हुये मुझे भी अपने साथ खिलाने का उसका अन्दाज़ याद कर के आँखें भर आती हैं अपनी चोंच मे रोटी का टुकडा उठा कर खिडकी के पास आ जाता जैसे बुला रहा हो कि मा आप भी खाओ न ! ----
उस दिन मैं खिडकी पर बैठी थी कि अचानक पास की एक डाली पर आ कर चीं चीं करने लगा जैसे पूछ रहा हो आप इतनी उदास क्यों हैं और मुझे अपनी प्यारी प्यारी शरारतों से लुभाने लगा--- और मैं उससे एक दो दिन मे इतना घुलमिल गयी कि मुझे लगा कि मेरे घर मे फिर से बहार लौट आयी है मेरे बच्चों के जाने के बाद ये घर एक दम सुनसान सा हो गया था जिस घर मे हर दम सन्नाटा पसरा रहता वहाँ अब रउनक ही रउनक थी---- फिर एक दिन जब वो खिडकी मे आया मैने उसे बाहर जाने ही नहीं दिया --- खिडकी पर बारीक जाली लगवा दी---- वो घर के कोने कोने मे घूमता--- खुशी से पंख फैलाता और मैं उसके साथ बच्ची सी बनी सारा दिन जैसे हवा मे ुडती फिरती--- कितना खुशनुमा हो गया था जीवन उससे अपने सारे गम कह लेती वो मेरे एक एक पल का साक्षी बन गया था मुझे लगता वो इस दुनिया से अलग है किसी भीड का हिस्सा नहीं ., काश कि ये इन्सान होता। मैं हैरान थी कि मेरे जीवन मे इतनी खुशियाँ कहाँ से आ गयी? अब जीवन मे कुछ नहीं चाहिये इस के सहरे जी लूँगी--- मगर कुछ दिन मे ही जैसे सब कुछ बदलने लगा था -- वो इस घर से उब गया । शायद बाहर बाकी पक्षियों की आवाज़ सुन कर उसे उनकी याद आती थी---- वो खिडकी से बाहर देखते देखते उदास हो जाता --- मैं अन्दर से डर जाती मुझे लगता अब इसके बिना जी नहीं पाऊँगी--- बच्चों की तरह उसे लुभने की कोशिश करती --- शायद अपने घर की जिम्मेदारियों के चलते अपने बच्चों का बचपन भी अच्चे से जी नहीं पाई थी ---- उसी को जीने की चाह ने इसके करीब कर दिया--- एक दिन उसे उदास देख कर मैने खिडकी से जाली उठा दी---- और वो एक पल गवाये बिना उड गया---- बहुत रोई थी उस दिन --- वो मुझे समझाना चाहता था कि कुछ दुनियादारी सीखो --- इतना मोह अच्छा नहीं फिर उसे अभी दुनिया देखनी है सब समझती थी जानती थी मगर समझ कर भी अनजान बनी रही---- कितने दिन रो रो कर उसे आवाज़ लगाती रही मगर उसका दिल ना पसीजा
चाहती हूँ घर बदल लूँ सामने खिडकी पर बैठा हो और मुझ से बात ना करे--- दिल से टीस सी उठती है--- बहुत दर्द होता है--- मगर
मेरे दुख मेरी तन्हाई से उसे क्या लेना उसका अपना जीवन है जब अपने ही अपने नहीं होते तो दूसरे से कैसे अपेक्षा की जा सकती है?--- मगर वो ये नहीं जानता था कि मै उसे इस भीड का हिस्सा नही समझती थी--- और ना ही मैं खुद इस भीड का हिस्सा हूँ---- सीख जाऊँगी धीरे धीरे जीना---- कितने हादसे सहे तब भी तो जिन्दा रही हूँ अब भी रह लूँगी---- कितना मुश्किल होगा जब कि पता हो वो सामने किसी पेड पर बैठा होगा---- अब उसका सुबह पेड पर आना भी एक दर्द दे जाता है, कितना परायापन होता है उसकी चीं चीं मे-- शायद उसे रहम आता है मेरी दशा पर और देखने आता हो कि जिन्दा हूं या नहीं उसके बिना?--- आखिर चाहता तो वो भी मुझे था---- इस बात को कैसे भूल सकती हूँ--- मेरा दिल कहता है|--- वो मेरे पास आ कर एक छोटा सा अबोध बालक सा बन जाता था----- इस का एहसास मेरी ममता ने किया है--- और ममता कैसे झूठ बोल सकती है----- शायद बच्चे उस ममता की मृगतृिश्ना को नहीं समझ सकते--------
जो उधार की खुशी के पल उसने दिये थे उनका कर्ज ज़िन्दगी भर चुकाती रहूँगी--- शायद उधार मे मिले प्यार, और रिश्तों का यही हश्र होता है----- और फिर जब उधार देने वाला पल पल सामने हो--- ओह कितना तक्लीफदेह है ---- आसमान से जब कोई जमीन पर धडाम से गिरता है---- चाहती हूँ खिडकी बन्द ही कर लूँ मगर-- अभी नहीं कर पा रही---- जब तक - ये आँसू सूख नहीं जाते--- पता नहीं कितने जीवन चाहिये इन्हें सूखने मे-- या शायद आशा की एक किरण बचा कर रखना चाहती हूँ---- कभी मन करे तो खिडकी खुली देख कर आ ही जाये या फिर --- बस उसकी एक झलक देखने के लिये ताकि दिन भर तन्हाई मे एक टीस तो साथ हो जिससे उसे महसूस कर सकूँ----- जीने का एक ये भी अंदाज़ है----- मुझे अच्छा लगता है---- पिँजरे का दर्द ऐसा ही होता है--- कोई उसमे है तो भी उसे कैद करने का अपराधबोध ---- उसे आज़ाद होने के लिये तडपते देखना भी तो दर्द देता है----- अगर पिंजरे ने उसे रिहा कर दिया तो भी विरह का दर्द--- उसे तो हर हाल मे दर्द सहेजना ही है------ ।
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34 comments:

समय चक्र said...

बहुत ही भावपूर्ण लगा पिंजरे का दर्द ..... आभार

Unknown said...

मन के भीतर .बहुत गहरे तक द्रवित कर गया पिंजरे का दर्द

वाह !
बहुत खूब.........

ओम आर्य said...

मेरे दुख मेरी तन्हाई से उसे क्या लेना उसका अपना जीवन है जब अपने ही अपने नहीं होते तो दूसरे से कैसे अपेक्षा की जा सकती है?
जिन्दगी के करीब बहुत है यह पंक्ति .....क्या कहूँ आप जो लिखती है उसमे जीवन कुटकर कुटकर भरा रहता है ...........सोलह आन्ने सच लगती है!

बहुत ही सुन्दर

श्रीमती अमर भारती said...

निर्मला जी।
आपने बहुत भावपूर्ण लिखा है। मन विभोर हो गया।
आभार!

विनोद कुमार पांडेय said...

कितने सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया आपने मनुष्य के मन की वेदना जो कभी क़ैद मे होने पर तड़पती है. साथ ही साथ .एक असीम प्यार की अनुभूति भी होती है जैसा आपने वर्णित किया...
सुंदर भाव पूर्ण...
बधाई!!!

Mishra Pankaj said...

सचमुच दर्द तो पंछी ही जाने

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

नितांत भावपूर्ण

दिगम्बर नासवा said...

BHAAV POORN ....... SACH HAI INSAAN KA DUKH USKA APNA HI HOTA HAI ..... NITAANT AKELA .....
JEEVAN KO BAHOOT KAREEB SE DEKHAA HUVA LAGTA HAI AAPKI HAR KAHAANI, LEKH AUR SANSMARAN MEIN .......

vandana gupta said...

मोह के पिन्जर मे क़ैद
पन्छी हो या इन्सान
दर्द के सैलाब मे
डूबना तो पडता ही है
पिंजरे में क़ैद मन का पन्छी
कभी फ़ड्फ़डाता है
कभी कसमसाता है
मगर मोह की क़ैद से
ना आज़ाद हो पाता है
आपकी रचना बहुत पसन्द आयी।

सदा said...

सत्‍यता के बेहद निकट बहुत ही गहरे भावों के साथ बेहतरीन प्रस्‍तुति, आभार्

Anonymous said...

इस मार्मिक अभिव्यक्ति को पढकर मन भावुक हो गया। मैं बस इतना ही कहना चाहूंगी- जाके पांव न फटी बेवाईं, सो का जाने पीर पराई।
वैज्ञानिक दृ‍ष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।

Yogesh Verma Swapn said...

jaise kisi ne dard se bhari matki phod di ho.

nirmala ji, bahut khoob likha hai.

संजीव गौतम said...

निर्मला जी नमस्कार माफ करियेगा मैं कुछ दिन से आपके ब्लाग पर उपस्थित नहीं हो पाया. खैर पिंजरे का दर्द महिलाओं से बेहतर कौन समझ सकता है. अच्छा और डूबकर लिखा है आपने.

राज भाटिय़ा said...

पिंजरे का दर्द बहुत ही मर्मिक लगा.. दिल के किसी कोने को छू गई आप की यह कहानी
आप का धन्यवाद

दर्पण साह said...

wah !! padh to kal hi liya tha...
..phir padha aur phir comment kiya !!
abki baar blog main...

...rachna aapki hamesha dil ko bhati hai.

Kulwant Happy said...

आप ने बहुत सही बात लिखी है।

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

आदरणीया निर्मला जी,
आपकी यह रचना वाकयी बहुत अच्छी लगी भाषा और कथ्य दोनों के स्तर पर ।इसकी भाषा तो सरल और प्रवाहमयी है ही…॥कथ्य के स्तर पर भी इसमें पाठक को कहानी,कविता और शब्दचित्र तीनों का ही आनन्द आता है।
हेमन्त कुमार

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

निर्मला जी, आपके लेखन में वो कमाल है कि पढने वाला भी अपने आप में उसी भाव की अनुभूति करने लगता है...
इस पोस्ट के माध्यम से आपने जिस दर्द को उकेरा है,पढने के बाद उसी की अनुभूति हो रही है।।

Asha Joglekar said...

bBhut hee bhawook hokar likha hai aapne par aapke dard se uska dard bada tha tabhee to aapne use aajad kar diaya.

Asha Joglekar said...

Bahut

Mithilesh dubey said...

हे माँ मै क्या कहूँ आपने इस रचना के बारे मे। आप की रचनायेँ तो लाजवाब होती है। एक और बेहतरीन रचना के लिए बधाई।

Urmi said...

पिंजरे का दर्द..बहुत ही भावुक और सुंदर रचना लिखा है आपने जो दिल को छू गई!
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com

उम्मीद said...

aap ki rachna bhut achchhi lagi......aap ne to rul hi diya ....sach hi kaha aap ne udhar ke pyar main bas dard hi milta hai .....kas ki vo hame samaj jate jinhe hum pyar karte hai par yahi niyati hai shyad ,.....hum jinhe pyar karte hai vo hamare pyar ki kadr nahi kar pate or jab unhe pata chalta hai ki koi unhe itna pyar karta hai to fir vapas ane ke sare raste band ho jate hai ....par aap ne uske liye khidki ab tak khuli rakhi hai age bhi rakhiye ga shayad waqt rahte vo samaj jay

उम्मीद said...

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उम्मीद said...

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अशरफुल निशा said...

मर्मस्पर्शी वर्णन।
Think Scientific Act Scientific

Udan Tashtari said...

बहुत भावपूर्ण..आपकी लेखनी बहा ले जाती है अपने साथ. बहुत बढ़िया.

रंजना said...

भुक्तभोगी हूँ...सो एक एक शब्द में बसी पीडा को अनुभूत कर सकती हूँ.......और क्या कहूँ...

रंजू भाटिया said...

बहुत मार्मिक दिल के करीब लगा आपका लिखा हुआ ..

Mumukshh Ki Rachanain said...

पिंजरे में रहने पर पिंजरे का दर्द हो या पिंजरे से आजाद कर देने पर बिरह का दर्द, हर दर्द को बहुत ही अच्छी तरह उकेर कर मार्मिकता को महसूस कर ही दिया.

आपके लेखन शैली, भाव-विचार को सलाम.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

pinjre ka dard......?????/

dil ke gahrai mein utar yeh rachna...

Ravi Prakash said...

Bhavatmak


चर्चा

Sudhir (सुधीर) said...

एक और सवेदनशील एवं भावपूर्ण अभिव्यक्ति ....

"मेरे दुख मेरी तन्हाई से उसे क्या लेना उसका अपना जीवन है जब अपने ही अपने नहीं होते तो दूसरे से कैसे अपेक्षा की जा सकती है?"

साधू!!

Anonymous said...

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