15 April, 2015

गज़ल्



दर्द के कुछ कौर खा कर भूख मिटा लेते रहे हैं
प्यास अपनी आंसुओं से ही बुझा लेते रहे हैं

इस जमाने ने दिया क्या है सिवा बस ठोकरों के
बिन ठिकाने ज़िन्दगी फिर भी बिता लेते रहे हैं

आसमा है छत जमीं बिस्तर नसीबों मे हमारे
पी गमों के जाम हम तो लडखडा लेते रहे हैं

वो हिसाब किताब क्यों  पूछे  मुहब्बत मे बताओ ?
लोग तो इस इश्क मे जां तक लुटा लेते रहे हैं

कौन कहता है जमाना लडकिओं का आ गया है
लोग बहुओं को अभी तक भी जला लेते रहे हैं

रात तन्हा दिल उदासी  से भरा सा हो कभी तो
बंद पलकों मे कई सपने बिठा  लेते रहे हैं

यूं तमन्ना तो बहुत है हर खुशी हम्को मिले पर
जो मिला आंखों पे उसको ही बिठा लेते रहे हैं