29 October, 2010

मिड डे मील--- कविता

मिड -डे मील

पुराने फटे से टाट पर
स्कूल के पेड के नीचे
बैठे हैं कुछ गरीब बस्ती के बच्चे
कपडों के नाम पर पहने हैं
बनियान और मैली सी चड्डी
उनकी आँखों मे देखे हैं कुछ ख्वाब
कलम को पँख लगा उडने के भाव
उतर आती है मेरी आँखों मे
एक बेबसी, एक पीडा
तोडना नही चाहती
उनका ये सपना
उन्हें बताऊँ कैसे
कलम को आजकल
पँख नही लगते
लगते हैँ सिर्फ पैसे
कहाँ से लायेंगे
कैसे पढ पायेंगे
उनके हिस्से तो आयेंगी
बस मिड -डे मील की कुछ रोटियाँ
नेता खेल रहे हैं अपनी गोटियाँ
इस रोटी को खाते खाते
वो पाल लेगा अंतहीन सपने
जो कभी ना होंगे उनके अपने
फिर वो तो सारी उम्र
अनुदान की रोटी ही चाहेगा
और इस लिये नेताओं की झोली उठायेगा
काश! कि इस
देश मे हो कोई सरकार
जिसे देश के भविष्य से हो सरोकार

27 October, 2010

यादें ।

 यादें
बीस वर्ष का समय किसी की ज़िन्दगी मे कम नही होता मगर फिर भी कुछ यादें ऐसी होती हैं जिन्हें इन्सान एक पल को भी नही भूल सकता। आज 20 वर्ष हो गये बेटे को भगवान के पास गये मगर शायद ही कभी ऐसा दिन आया हो कि उसकी याद किसी न किसी बहाने न आयी हो। आज करवा चौथ का व्रत उसी दिन आया जिस रात को उसकी मौत हुयी थी। सोचा था कि आज उसे बिलकुल याद नही करेंगे। सुबह से ही नेट पर बैठ गयी। बेशक दिल के किसी कोने मे वो रहा । शाम को इन्हें किसी से बात करते सुना तो बाद मे पूछ लिया कि किस से इतनी लम्बी देर बात कर रहे थे तो बोले कि 'अर्श' से,समझ गयी कि बेटे की याद आ रही है। मन उदास हो गया उसके बाद चाँद निकला अर्ध्य दे कर जैसे तैसे दो कौर नम आखों से खाये।आऔर फिर याद करने लगी उस रात को। हमे पता चल चुका था कि वो अपनी आखिरी साँसें ले रहा है फिर भी मै उसका हाथ जोर से पकडे बैठी थी और जोर जोर से रो रही थी--- काश आज भगवान सुन ले मेरी जान ले ले मगर इस होनहार बेटे को बचा ले मगर भगवान कहाँ सुनता है,बस अपनी मर्जी किये जाता है और वो हमारे देखते देखते हाथों से फिसल गया। 28 वर्ष का हृष्ट पुष्ट जवान बेटा। लगता है जैसे ये आज की ही बात हो। जयप्रकाश नारायण का वो वार्ड किसी नर्क से कम नही था गन्द और बदबू आज भी नथुनो मे जैसे समाई हो। सब से कचोटने वाली बात वहाँ के स्टाफ का अमानवीय,असंवेदनशील व्यवहार।त्यौहार आते रहेंगे मनाते भी रहेंगे मगर वो खुशी और वो उल्लास शायद जीवन मे कभी नही आयेंगे।

25 October, 2010

आखिरी पडाव -- कविता

आखिरी पडाव पर

डोली से अर्थी तक के सफर मे
अग्नि के समक्ष लिये
सात वचनो को हमने निभाया
ज़िन्दगी के तीन पडाव तक
सात वचनो को पूरा करते हुये
आज हम जीवन के आखिरी पडाव पर हैं
मगर जब देखती हूँ तुम्हें
उधडी दीवारों के पलस्तर
पर आढी तिरछी आकृतियों को
सूनी आँखों से निहारते
विचलित हो जाती हूँ
तुम्हें दर्द सहते हुये देखना
मेरे दर्द को दोगुना कर देता है
हमने जिन्हें पाँव पर खडे होना सिखाया
उसी ने खींच लिये पाँव
हमने जिसे खुशियाँ दी
उसी ने छीन ली हमारी खुशियाँ
जिसे अपना हाथ पकडाया
उसी ने मिटा दी हमारे हाथ की लकीरें
लेकिन आखिरी पडाव पर
आओ एक वचन और लें
चलें फिर से उस मोड पर
जहाँ से शुरू किया था जीवन
अब चलेंगे विपरीत दिशा मे
सिखायेंगे सिर्फ एक दूसरे को
अपने पाँव पर खडे होना
कदमे से कदम मिला कर चलना
एक दूसरे का हाथ पकड कर
उकेरेंगे एक दूसरे के हाथ पर
कुछ नई लकीरें
खुशियों की प्यार की
जीयेंगे सिर्फ अपने लिये
इस लिये नही कि
इसमे मेरा अपना कुछ स्वार्थ है
या दुनिया से शिकवा है
बल्कि इस लिये कि
कहीं हमारे आँसू और दर्द देख कर
लोग ये न मान बैठें
कि कर्तव्यनिष्ठा और सच का फल
हमेशा दुखदायी होता है
इन्सानियत को
शर्मिन्दा नही करना चाहती
इसलिये आखिरी पडाव पर
चलो जीयें जीवट से
आँसू पोंछ कर
तभी पू्रे होंगे
सात्त फेरों के सात वचन
और
डोली से अर्थी तक का सफर