03 July, 2010

अनन्त आखाश--

 कहानी 
ये कहानी भी मेर पहले कहानी संग्रह् वीरबहुटी मे से है कई पत्रिकाओंओं मे छप चुकी है और आकाशवाणी जालन्धर पर भी मेरी आवाज मे प्रसारित हो चुकी है। जिस कहानी का पिछली पोस्ट मे वायदा किया था, उसे अभी टाईप नही कर सकी ।तब तक इसे पढिये।
अगर आप आदरणीय श्री प्रान शर्मा जी गज़लें पढना चाहते हैं तो यहाँ पढें।
http://www.mahavirsharma.blogspot.com/
अनन्त आकाश--  भाग- 1
मेरे देखते ही बना था ये घोंसला, मेरे आँगन मे आम के पेड पर---चिडिया कितनी खुश रहती थी और चिडा तो हर वक्त जैसी उस पर जाँनिस्सार हुया जाता था। कितना प्यार था दोनो मे! जब भी वो इक्कठे बैठते ,मै उन को गौर से देखती और उनकी चीँ चीँ से बात ,उनके जज़्बात समझने की कोशिश करती।--
"चीँ--चीँ चीँ---ाजी सुनते हो? खुश हो क्या?"
"चीँ चीँ चेँ-- बहुत खुश देखो रानी अब हमारा गुलशन महकेगा जब हमारे नन्हें नन्हें बच्चे चहचहायेंगे।"" चिडा चिडिया की चोंच से चोंच मिला कर कहता ।
"चीँ चीँ चीँ-- तब हमारे घर बहारें ही बहारें होंगी।" चिडिया उल्लास से भर जाती।
  दोनो प्यार मे चहचहाते दूर गगन मे इक्कठे दाना चुगने के लिये उड जाते। फिर शाम गये अपने घोंसले मे लौट आते।मक़ि सुबह उठ कर जब बाहर आती हूँ दोनोउडने के लिये तैयार होते हैं ।उनको पता होता है कि मैं उन्हेंदाना डालूँगी ,शायद इसी इन्तज़ार मे बैठे रहते हों। इसके बाद मैं काम काज मे व्यस्त रहती और शाम को ज्क़ब चाय पी रही होती तो लौट आते।
  बरसों पहले कुछ ऐसा ही था हमारा घर और हम।37 वर्ष पहले शादी हुयी ,फिर साल बाद ही भरा पूरा परिवार छोड कर हम शहर मे आ बसे। इस शहर मे इनकी नौकरी थी। घर सजा बना लिया। दो लोगों का काम ही कितना होता है। ये सुबह ड्यूटी पर चले जाते मै सारा दिन घर मे अकेली उदास परेशान हो जाती। 3-4 महीने बाद मुझे भी एक स्कूल मे नौकरी मिल गयी। फिर तो जैसे पलों को पँख लग गये----समय का पता ही नही चलता। सुबह जाते हुये मुझे स्कूल छोड देते और लँच टाईम मे ले आते। बाकी समय घर के काम काज मे निकल जाता। रोज़ कहीँ न कहीं घूमने, कभी फिल्म देखने तो कभीबाजार तो कभी किसी दोस्त मित्र के घर चल जाते--- चिडे चिडी की तरह बेपरवाह----। अतीत के पन्नो मे खोई कब सो गयी पता ही नही चला

सुबह उठी तो देखा कि चिडिया दाना चुगने नही गयी चिडा भी आस पास ही फुदक रहा था। पास से ही कभी कोई दाना उठा कर लाता और उस की चोंच मे डाल देता। कुछ सोच कर मैं अन्दर गयी और काफी सारा बाजरा पेड के पास डाल दिया। तकि उन्हें दाना चुगने दूर न जाना पडे।उसके बाद मैं स्कूल चली गयीजब आयी तो देखा चिडिया अकेली वहीं घोंसले अन्दर बैठी थी।मुझे चिन्ता हुयी कि कहीं दोनो मे कुछ अनबन तो नही हो गयी? तभी चिडा आ गया और जब दोनो ने चोँच से चोँच मिलायी तो मुझे सकून हुया। देखा कि चिडा घोंसले के अन्दर जाने की कोशिश करता तो चिडिया उसे घुसने नही देती मगर वो फिर भी चिडिया के सामने बैठा कभी कभी उसे कुछ खिलाता रहता।मै उन दोनो की परेशानी समझ गयी चिडिया अपने अन्डौं को से रही थी दोनो अन्डों को ले कर चिन्तित थे। माँ का ये रूप पशु पक्षिओं मे भी इतना ममतामयी होता है देख कर मन भर आया।
कुछ दिन ऐसे ही निकल गयी मैं रोज बाजरा आदि छत पर डाल देती एक दोने मे पानी रख दिया था ताकि उन्हें दूर न जाना पडे।
उस दिन रात जल्दी नीँद नहीं आयी।सुबह समय पर आँख नहीं खुली, वैसे भी छुट्टी थी। चिडियों का चहचहाना सुन कर बाहर निकली तो देखा धूप निकल आयी थीपेड पर नज़र गयी तो वहाँ चिडियी के घोंसले मे छोटे छोटे बच्चे धीमे से चिं चिं कर रहे थी।चिडिया अन्दर ही उनके पास थी।चिडा बाहर डाल पर बैठ कर चिल्ला रहा था जैसे सब को बता रहा हो और् आस पास पक्षिओं को न्यौता दे रहा हो कि उसके घर बच्चे हुये हैं। मै झट से अन्दर गयी और घर मे पडे हुये लड्डू उठा लाई उनका चूरा कर छत पर डाल दिया--। इधर उधर से पक्षी आते अपना अपना राग सुनाते और लड्डूऔं खाते और चीँ चेँ करते उड जाते। आज आँगन मे कितनी रौनक थी--- ।
   ऐसी ही रौनक अपने घर मे भी थी जब मेरा बडा बेटा हुया था।---  क्रमश:

29 June, 2010

श्री प्राण शर्मा जी की गज़लें
 बहुत दिन हुये प्राण भाई साहिब की पुस्तक "गज़ल कहता हूँ" मिली। मगर कुछ पारिवारिक व्यस्तताओं के चलते उस पर कुछ कह नही सकी। गज़ल के बारे मे कुछ कहने लायक भी नहीं हूँ, मगर जो गज़लें मुझे दिल के करीब लगीं उन्हें आपको पढवाना  चाहती हूँ। उनका परिचय किन्हीं शब्दों का मुहताज़ नही है। वो कई सालों से यू. के. मे रह कर हिन्दी की सेवा कर रहे हैं, मगर उनका अपनी माटी से प्र्यार और उसे छोड कर विदेश जाने का दर्द्, उनकी साफ गोई इस शेर मे देखिये
कहीं  धरती खुले  नीले गगन को  छोड आया हूँ।
कि कुछ सिक्कों की खातिर मैं वतन छोड आया हूँ
 एक  उस्ताद शायर की शायरी मे क्या है? लीजिये उनकी पहली गज़ल का लुत्फ उठाईये----
 गज़ल

आपको  रोका है कब  मेरे जनाब
शौक़ से पढ़िए मेरे दिल की किताब

बात सोने पर  सुहागा सी   लगे
सादगी के साथ हो कुछ तो हिजाब

साथ दुःख के होता है सुख कुछ न कुछ
कब जुदा  रहता है  कांटे   से  गुलाब

छोड़ अब दिन- रात का  गुस्सा   सभी
कम  न पड़  जाए  तेरे चेहरे की  आब

वास्ता  दुक्खों   से पड़ता  है    हजूर
कौन  रखता  है  मगर उनका   हिसाब

धुंध   पस्ती  की हटे  तो   बात   हो
कुछ नज़र  आये   दिलों के  आफताब

रोज़  ही   इक  ख्वाब से   आये  है तंग
" प्राण"   परियों   वालों  हो कोई तो ख्वाब

27 June, 2010

कर्ज़दार  अन्तिम  कडी।
अपने पति की मौत के बाद कितने कष्ट उठा कर बच्चों को पढाया प्रभात की शादी मीरा से होने के बाद प्रभात ने सोचा कि अब माँ के कन्धे से जिम्मेदारियों का बोझ उतारना चाहिये। इस लिये उसने अपनी पत्नि को घर चलाने के लिये कहा और अपनी तन्ख्वाह उसे दे दी। मगर माँ के विरोध करने पर तन्ख्वाह पत्नि से ले कर माँ को दे दी । बस यहीँ से सास बहु के रिश्ते मे दरार का सूत्रपात हो चुका था। अब छोटी बातें भी मन मुटाव के कारण बडी लगने लगी थी जिस से प्रभात और मीरा के रिश्ते मे भी दरार आने लगी------- अब आगे पढें------
माँ और पत्नि एक नदी के दो किनारे थे और वो इन दोनो के बीच एक सेतु था जो ममता की डोरियों पर झूल रहा था।सेतु के धरातल का कण- कण माँ के दूध का कर्ज़दार था। मगर पत्नी जो उसके लिये अपना सब कुछ छोद कर आयी थी उसके प्रति अपने फर्ज़ को भी जानता था। मगर उसे समझ नही आ रहा था कि करे तो क्या करेिसी लिये कभी जब पत्नि सेतु के एक छोर पर आ खडी होती और दूसरे पर माँ तो वो डर से थरथराने लगता। वो पत्नी के कदम वहीं रोक देता। वो ये भी जानता था कि वो पत्नी से अन्याय कर रहा है। पत्नी भी उस के प्यार और अधिकार की उतनी ही हकदार है जितनी माँ मगर अपनी बेबसी किस से कहे। दोनो पाटों की बीच वो छटपटा रहा था। उसे समझ नही आ रहा था कि क्या करे़? किसे नाराज करे और किसे खुश करे।
और उधर मीरा? उसने ससुराल मे आते ही सब को कितना प्यार दिया घर की जिम्मेदारी को सम्भाला। सास को कभी काम नही करने दिया। मगर अब जब उसे जरूरत है तो कोई उसकी तरफ ध्यान नही देता। उसके भी कुछ सपने थे। मगर घर की जिम्मेदारियों के बीच उसने अपने मन को मार लिया था। लेकिन अब हद हो चुकी है ।प्रभात को भी हर बात मे मेरा ही कसूर नज़र आता है। । तो फिर जीना किस के लिये । माँ बाप को भी क्या बताये? वो उसे यही कहेंगे कि जिस तरह भी हो एडजस्ट करो। फिर माँ और बाप खुद  अपने बेटे पर आश्रित हैं भाभियों के ताने सुनने से अच्छा है वो उनको कुछ भी न बताये। दो दिन दोनो की बोलचाल बन्द रही। वो जान चुकी थी कि इस एक छत्र साम्राज्य मे उसका पति  उसके साथ न्याय नही कर सकता।वो घुट घुट कर जीना नहीं चाहती थी।
दूसरे दिन रात को मीरा ने कीडे मारने की दवा खा कर अपना जीवन समाप्त कर लिया।

प्रभात उसकी माँ बहन पर केस बन गया मगर सभी से ये ब्यान दिलवा दिये कि माँ और बहन उस दिन घर मे नहीं थी प्रभात ने भी यही ब्यान दिये। दूसरे दिन रात को मीरा ने कीडे मारने की दवा खा कर अपना जीवन समाप्त कर लिया। प्रभात ने किसी तरह माँ और बहन को बचा कर शायद दूध का कर्ज़ उतार दिया था।
 वो पोलिस वैने मे बैठे हुये सिर्फ मीरा के बारे मे सोच रहा था।जो उसके प्यार मे बन्धी अपने माँ बाप अपनाघर छोड ल्कर उसके पास आयी थी --- उसके भरोसे एक निस्सहाय गाय की तरह। उसने उसकी कितनी इच्छाओं का गला घोंटा था ताकि माँ नाराज़ न हो।, जहाँ तक कि कितनी बार उसे डाँटा फटकारा भी था। क्यों वो माँ को कभी कुछ नही कह सका। आज इसी कारण वो मीरा की मौत का कारण बन बैठा।
वो सोच रहा था----  अब वो अपनी पत्नि का कर्ज़दार है। माँ का कर्ज़ तो उसने चुका दिया है।उसका एक छत्र राज्य बचा कर । अब वो जैसे चाहे रह सकती है। कोई उससे उसका कुछ नही छीनेगा।
 और अचानक उसने अपने साथ बैठे सिपाही की पिस्तौल छीनी और खुद को गोली मार ली------ "मीरा मैं आ रहा हूँ तुम से अपने गुनाहों की माफी माँगने।"
क्या आदमी की ऐसी  ज़िन्दगी औरत के दुख से भी दर्दनाक नही? क्यों वो खुद को माँ और पत्नी के बीच  असहाय पाता है? आप सब क्या सोचते हैं इस समस्या के बारे मे।

और सब सोच रहे थे कि एक माँ बेटे  के लिये जो संघर्ष करती है उसका खामिआज़ा अपनी बहु से क्यों बसूलना चाहती है। अगर बेटों की माँयें इतनी बात समझ जायें तो कितने ही घर तबाह होने से बच जायें। समाप्त।
नोट-- ये कहानी मैने वीर बहुटी पुस्तक मे इसी रूप मे छपवाई थी मगर एक बार दैनिक जागरण को भेजी तो उसके सम्पादके श्री अजय शर्मा जी ने इसका अन्त बदल दिया कि इसका अन्त प्रभात की मौत नही बल्कि सजा तक ही सीमित रहना चाहिये। ये 2006 की बात है मै उन दिनो अमेरिका मे थी और मैने उनसे कह दिया कि जैसे वो चाहें अन्त कर दें। आज मुझे वो अखबार नही मिला ,इस लिये जस की तस यहाँ लिख दी। मगर इसमे अन्त जो भी हो दुखद ही रहेगा। ये असल मे भी इसी तरह थी कहानी केवल पात्र और कुछ घटनायें बदली हैं।
अगली कहानी दहेज हत्या मे वकीलों की भूमिका पर होगी। धन्यवाद।