सच्ची साधना--- कहानी
कल आपने पढा कि शिवदास अपनी जिम्मेदारियों से भाग कर साधु बन गया और 20-25 साल बाद वो साधु के वेश मे अपने गाँव लौटता है। उसका मन साधु के रूप मे भी अब नही लगता था। आगे पढिये\---------
शिवदास मेहनती नही था । बी.ए. करने के बाद उसने कई जगह हाथ पाँव मारे मगर उसका मन किसी काम में न लगता । तो माँ-बाप ने उसकी शादी कर दी । दो--तीन साल बाद पिता जी के साथ दुकान पर बैठने लगा । उसके दो बेटे भी हो गये मगर उसका मन स्थिर न था न ही उसे कठिन परिश्रम की आदत थी । अब दुकान से भी उसका मन उचाट होने लगा ।
उन्ही दिनों गाँव के मंदिर में एक साधु आकर ठहरे । शिवदास रोज िआश्रम को उनकी सेवा के लिए जाने लगा । घर वाले भी कुछ न कहते । उन्हें लगता शायद साधु बाबा ही उसे कोई बुद्धि दे दें । संयुक्त परिवार में अभी तो सब ठीक-- ठाक चल रहा था मगर शिवदास के काम न करने से भाई भी खर्च को लेकर अलग होने की बात करने लगे थे ।
साधु बाबा की सेवा करते--करते वह उनका दास बन गया । अब उसका सारा दिन मंदिर में ही व्यतीत हो जाता । अब घर वालों को चिन्ता होने लगी । पत्नि भी दुखीः थी । वह पत्नि से भी दूर-दूर रहने लगा । वह साधु लगभग छः माह उस गाँव में रहे । उसके बाद अचानक एक दिन चले गए । उन्हें अपने कुछ और भक्त बनाने थे सो बनाकर चल दिए । अब शिवदास उदास रहने लगा । काम धन्धे पर भी नही जाता । उसके भाईयों ने रामकिषन से विनती की कि शिवदास को कुछ समझायें क्योंकि रामकिशन उसका दोस्त था, शायद उसके समझाने से समझ जाए । एक दिन रामकिशन उसके घर पहूँच गया । शिव्वदास अभी मंदिर से आया था । शिवदास ने उसे बैठक में बिठाया और अंदर चाय के लिए आवाज लगाई ।
‘कहो भई शिवदास कैसे हो । सुबह दस बजे तक तुम्हारी पूजा चलती है ?
‘पूजा कैसे, बस जिसने यह जीवन दिया है उसके प्रति अपना फर्ज निभा रहा हूं ।‘
‘वो तो ठीक है मगर मा-बाप,, पत्नि और बच्चों के प्रति भी तो तुम्हारा कर्तव्य है उसके बारे में क्यों नही सोचते ?‘
‘प्रभू है । उसने जन्म दिया है वही पालेगा भी ।‘
‘ शिवदास जो लोग जीवन में संघर्ष नहीं करना चाहते, वही जीवन से भागते है । हमारे शास्त्रों में अनेक ऋषी--मुनि हुए है जिन्होंने अपने पारिवारिक जीवन का निर्वाह करते हुए भगवान को पाया है । कर्म से, कर्तव्य से भागने की शिक्षा कोई धर्म नही देता ।‘
‘देख रामकिशन तू मेरा दोस्त है, तू ही मुझे सच्चे मार्ग से खींच कर मोह माया के -झूठे जाल में फँसाना चाहता है । धर्म का मार्ग ही सत्य है ।‘‘
‘धर्म ? धर्म का अर्थ भी जानता है ?‘
‘वही तो जानना चाहता हूं । यह मेरा जीवन है । मैं अपने ढंग से इसे जीना चाहता हूँ जब मुझे लगेगा कि मैं भटक रहा हूं तो सबसे पहले तेरे पास ही आऊंगा । बस, अब दोस्ती का वास्ता है, मुझे परेशान मत करो ।‘
‘ठीक है भई, तुम्हारी इच्छा, मगर याद रखना भटकने वालों को कभी मंजिल नही मिलती ।" कहकर रामकिशन चले गए ।
इस बात के अगले दिन ही शिवदास घर छोड़कर चला गया था । बहुत जगह उसे खोजा गया मगर कही उसका पता नही चला । तब से शिवदास को भी कुछ पता नही था कि उसके परिवार का क्या हुआ । पच्चीस वर्ष बाद लौटा है । क्यो ? ... वह नही जानता ।
इन्ही सोचों में डूबा शिवदास पगडंडी पर चला जा रहा था कि सामने से एक 25-28 वर्ष का युवक आता दिखाई दिया..... उसका दिल धड़का .... उसका बेटा भी तो इतना बड़ा हो गया होगा .....
‘बेटा क्या बता सकते हो कि रामकिशन जो स्वतंत्रता सैनानी थे उनका घर कौन सा है ? शिवदास ने पूछा ।
‘रामकिशन ? आप कही गुरू जी की बात तो नही कर रहे ?‘
‘शायद तुम्हारे गुरू हों । उन्होंने शादी नही की, देश सेवा में ही सक्रिय रहे ।‘‘ शिवदास ने कुछ और स्पष्ट किया
‘हां गुरू जी आश्रम में हैं । वहांँ राष्ट्रभक्ति दीक्षाँत समारोह चल रहा है । दाएँ मुड़ जाइए सामने ही आश्रम है । आईए मैं आपको छोड़ देता हूं ।" लड़के ने मुड़ते हुए कहा ।
‘ नही- नही बेटा मैं चला जाऊंगा ।" वह आगे बढ गए और लड़का अपने रास्ते चला दिया । लड़के के शिष्टाचार से शिवदास प्रभावित हुआ । गांँव का लड़का इतना सुसंस्कृ्रत: ....... कैसे हाथ जोड़कर बात कर रहा था । ... यह रामकिशन मुझे नसीहत देता था और खुद गुरू बन गया । क्या इसने भी सन्यास ले लिया ? .... शायद......
जैसे ही शिवदास दाएं मुड़ा सामने आश्रम के प्रांगण में भीड़ जुटी थी । सामने मंच पर रामकिशन के साथ कई लोग बैठे थे । एक दो को वह पहचान पाया । आंगन के एक तरफ लाल बत्ती वाली दो गाड़ियांँ व अन्य वाहन खड़े थे । शिवदास असमंजस की स्थिति में था कि आगे जाए या न जाए----- ,तभी वन्देमातरम के लिए सब लोग खड़े हो गए । वन्देमातरम के बाद लोग बाहर निकलने लगे । शिवदास एक तरफ हट कर खड़ा हो गया । उसने देखा, दो सूटड--यबूटड युवकों ने रामकिशन के पांव छूए और लाल बत्ती वाली गाड़ियों में बैठकर चल दिए । धीरे --धीरे वाकी सब लोग भी चले गए । तभी वो लड़का, जिससे रास्ता पूछा था आ गया ‘ बाबा जी, आप गुरू जी से नही मिले ? वो सामने है , चलो मैं मिलवाता हँ । ‘‘ शिवदास उस लड़के के पीछे--पीछे चल पड़े । रामकिशन कुछ युवकों को काम के लिए निर्देष दे रहे थे । लड़के ने रामकिशन के पाँव छूए ....
"गुरूदेव महात्मा जी आपसे मिलना चाहते है ।" लड़के ने षिवदास की ओर संकेत किया ।‘‘
‘ प्रणाम महाराज ,आईए अन्दर चलते है ।‘‘ रामकिशन उसे आश्रम के एक कमरे में ले गए । ‘‘ काम बताईए ।‘‘
‘यहां नही आपके घर चलते है। ‘‘ शिवदास ने कहा ।
‘कोई बात नही चलो ।‘ कहते हुए वह शिवदास को साथ ले कर आश्रम के पीछे की ओर चल दिए ।
आश्रम के पीछे एक छोटा सा साफ सुथरा कमरा था । कमरे में एक तरफ बिस्तर लगा हुआ था । दूसरी तरफ पुस्तकों की अलमारी थी । बाकी कमरे में साफ सुथरी दरी विछी हुई थी । कमरे के आगे एक छोटी सी रसोई और पीछे एक टायलेट था । शिवदास हैरान था कि जिस आदमी को सारा गाँव गुरू जी मानता था और बड़े--बड़े प्रषासनिक अधिकारी जिसके पांँव छूते हैं और जिसके नाम पर इतना बड़ा आश्रम बना हो वह इस छोटे से कमरे में रहता हो ? इससे बडिया तो उसका आश्रम था । जिसमें भक्तों की दया से आराम की हर चीज व वातानुकूल कमरे थे । उसके पास भक्तों द्वारा दान दी गई गाड़ी भी थी । इतना सादा जीवन तो साधू होते हुए भी उसने नही व्यतीत किया । अंतस में कही कुछ विचार उठा जो उसे विचलित कर गया ................... आत्मग्लानि का भाव । वह साधू हो कर भी भौतिक पदार्थों का मोह त्याग नही पाया और रामकिशन साधारण लोक जीवन में भी मोह माया ये दूर है .... वो ही सच्चा आत्म ज्ञानी है ।
‘महाराज बैठिए, आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ‘‘ उन्होंने बिस्तर पर बैठने का संकेत किया ।
‘मुझे पहचाना नही केशी? ‘‘ शिवदास ने धीरे से पूछा । वो रामकिशन को केशी कह कर ही पुकारा करता था ।
‘‘ बूढा हो गया हूँ । यादाश्त भी कमजोर हो गई है । मगर तुम शिवदास तो नही हो ? रामकिशन ने आश्चर्य से पूछा
‘हां, शिववदास हूँ तेरा दोस्त‘‘ कहते हुए शिवदास की आँखें भर आई
‘शिववदास तुम,?" उन्होंने शिवदास को गले लगा लिया
‘अभी इस राज को राज ही रखना । ‘ शिवदास घीरे से फुसफुसाया
‘‘ठीक है, तुम आराम से बैठो ।‘
‘गुरूदेव, पानी । ‘ उसी लड़के ने अन्दर आते हुए कहा और पानी पिलाकर चला गया ।
‘ ये लड़का बड़ा भला है । सेवादार है ?‘‘ शिवदास से उत्सुकता से पूछा ।
‘यहां मेरे समेत सभी सेवादार है । तुम भी कितने अभागे हो । जिसे बचपन में ही अनाथ कर गए थे ये वही तुम्हारा बेटा कर्ण है ।‘‘
‘क्या ?‘ शिवदास झटका सा लगा । खून में तरंग सी उठी । उसका जी चाहा कर्ण को आवाज देकर बुला ले और गले से लगा ले । उसका दिल अंदर से रो उठा ।
‘ तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे परिवार ने बहुत मुसीबतें झेली हैं। मगर तुम्हारी पत्नि ने साहस नही छोड़ा । कड़ी मेहनत करके बच्चों को पढाया लिखाया और काम पर लगाया। काम अच्छा चल निकला है । रामकिशन उन्हें बच्चों और उनके काम काज के बारे में बताते रहे । पर षिवदास का मन बेचैन सा हो रहा था कि पत्नि कैसी है -वो कैसे इतना कुछ अकेले कर पाई होगी---- मगर पूछने का साहस नही हो रहा था । पूछें तो भी किस मुंह से ...... उस बेचारी को वेसहारा छोड़कर चले गए थे । आज वो फेसला नही कर पर रहा था कि उसने अपना रास्ता चुनकर ठीक किया या गलत और माँ बेचारी---- उसे एक बार देखने का सपना लिए संसार से विदा हो गई..............।
‘पहले यह बताओ कि तुम बीस--पचीस वर्ष कहाँ रहे ? राम किशन शिवदास के बारे में जानने के उत्सुक थे ।क्रमश:
शिवदास मेहनती नही था । बी.ए. करने के बाद उसने कई जगह हाथ पाँव मारे मगर उसका मन किसी काम में न लगता । तो माँ-बाप ने उसकी शादी कर दी । दो--तीन साल बाद पिता जी के साथ दुकान पर बैठने लगा । उसके दो बेटे भी हो गये मगर उसका मन स्थिर न था न ही उसे कठिन परिश्रम की आदत थी । अब दुकान से भी उसका मन उचाट होने लगा ।
उन्ही दिनों गाँव के मंदिर में एक साधु आकर ठहरे । शिवदास रोज िआश्रम को उनकी सेवा के लिए जाने लगा । घर वाले भी कुछ न कहते । उन्हें लगता शायद साधु बाबा ही उसे कोई बुद्धि दे दें । संयुक्त परिवार में अभी तो सब ठीक-- ठाक चल रहा था मगर शिवदास के काम न करने से भाई भी खर्च को लेकर अलग होने की बात करने लगे थे ।
साधु बाबा की सेवा करते--करते वह उनका दास बन गया । अब उसका सारा दिन मंदिर में ही व्यतीत हो जाता । अब घर वालों को चिन्ता होने लगी । पत्नि भी दुखीः थी । वह पत्नि से भी दूर-दूर रहने लगा । वह साधु लगभग छः माह उस गाँव में रहे । उसके बाद अचानक एक दिन चले गए । उन्हें अपने कुछ और भक्त बनाने थे सो बनाकर चल दिए । अब शिवदास उदास रहने लगा । काम धन्धे पर भी नही जाता । उसके भाईयों ने रामकिषन से विनती की कि शिवदास को कुछ समझायें क्योंकि रामकिशन उसका दोस्त था, शायद उसके समझाने से समझ जाए । एक दिन रामकिशन उसके घर पहूँच गया । शिव्वदास अभी मंदिर से आया था । शिवदास ने उसे बैठक में बिठाया और अंदर चाय के लिए आवाज लगाई ।
‘कहो भई शिवदास कैसे हो । सुबह दस बजे तक तुम्हारी पूजा चलती है ?
‘पूजा कैसे, बस जिसने यह जीवन दिया है उसके प्रति अपना फर्ज निभा रहा हूं ।‘
‘वो तो ठीक है मगर मा-बाप,, पत्नि और बच्चों के प्रति भी तो तुम्हारा कर्तव्य है उसके बारे में क्यों नही सोचते ?‘
‘प्रभू है । उसने जन्म दिया है वही पालेगा भी ।‘
‘ शिवदास जो लोग जीवन में संघर्ष नहीं करना चाहते, वही जीवन से भागते है । हमारे शास्त्रों में अनेक ऋषी--मुनि हुए है जिन्होंने अपने पारिवारिक जीवन का निर्वाह करते हुए भगवान को पाया है । कर्म से, कर्तव्य से भागने की शिक्षा कोई धर्म नही देता ।‘
‘देख रामकिशन तू मेरा दोस्त है, तू ही मुझे सच्चे मार्ग से खींच कर मोह माया के -झूठे जाल में फँसाना चाहता है । धर्म का मार्ग ही सत्य है ।‘‘
‘धर्म ? धर्म का अर्थ भी जानता है ?‘
‘वही तो जानना चाहता हूं । यह मेरा जीवन है । मैं अपने ढंग से इसे जीना चाहता हूँ जब मुझे लगेगा कि मैं भटक रहा हूं तो सबसे पहले तेरे पास ही आऊंगा । बस, अब दोस्ती का वास्ता है, मुझे परेशान मत करो ।‘
‘ठीक है भई, तुम्हारी इच्छा, मगर याद रखना भटकने वालों को कभी मंजिल नही मिलती ।" कहकर रामकिशन चले गए ।
इस बात के अगले दिन ही शिवदास घर छोड़कर चला गया था । बहुत जगह उसे खोजा गया मगर कही उसका पता नही चला । तब से शिवदास को भी कुछ पता नही था कि उसके परिवार का क्या हुआ । पच्चीस वर्ष बाद लौटा है । क्यो ? ... वह नही जानता ।
इन्ही सोचों में डूबा शिवदास पगडंडी पर चला जा रहा था कि सामने से एक 25-28 वर्ष का युवक आता दिखाई दिया..... उसका दिल धड़का .... उसका बेटा भी तो इतना बड़ा हो गया होगा .....
‘बेटा क्या बता सकते हो कि रामकिशन जो स्वतंत्रता सैनानी थे उनका घर कौन सा है ? शिवदास ने पूछा ।
‘रामकिशन ? आप कही गुरू जी की बात तो नही कर रहे ?‘
‘शायद तुम्हारे गुरू हों । उन्होंने शादी नही की, देश सेवा में ही सक्रिय रहे ।‘‘ शिवदास ने कुछ और स्पष्ट किया
‘हां गुरू जी आश्रम में हैं । वहांँ राष्ट्रभक्ति दीक्षाँत समारोह चल रहा है । दाएँ मुड़ जाइए सामने ही आश्रम है । आईए मैं आपको छोड़ देता हूं ।" लड़के ने मुड़ते हुए कहा ।
‘ नही- नही बेटा मैं चला जाऊंगा ।" वह आगे बढ गए और लड़का अपने रास्ते चला दिया । लड़के के शिष्टाचार से शिवदास प्रभावित हुआ । गांँव का लड़का इतना सुसंस्कृ्रत: ....... कैसे हाथ जोड़कर बात कर रहा था । ... यह रामकिशन मुझे नसीहत देता था और खुद गुरू बन गया । क्या इसने भी सन्यास ले लिया ? .... शायद......
जैसे ही शिवदास दाएं मुड़ा सामने आश्रम के प्रांगण में भीड़ जुटी थी । सामने मंच पर रामकिशन के साथ कई लोग बैठे थे । एक दो को वह पहचान पाया । आंगन के एक तरफ लाल बत्ती वाली दो गाड़ियांँ व अन्य वाहन खड़े थे । शिवदास असमंजस की स्थिति में था कि आगे जाए या न जाए----- ,तभी वन्देमातरम के लिए सब लोग खड़े हो गए । वन्देमातरम के बाद लोग बाहर निकलने लगे । शिवदास एक तरफ हट कर खड़ा हो गया । उसने देखा, दो सूटड--यबूटड युवकों ने रामकिशन के पांव छूए और लाल बत्ती वाली गाड़ियों में बैठकर चल दिए । धीरे --धीरे वाकी सब लोग भी चले गए । तभी वो लड़का, जिससे रास्ता पूछा था आ गया ‘ बाबा जी, आप गुरू जी से नही मिले ? वो सामने है , चलो मैं मिलवाता हँ । ‘‘ शिवदास उस लड़के के पीछे--पीछे चल पड़े । रामकिशन कुछ युवकों को काम के लिए निर्देष दे रहे थे । लड़के ने रामकिशन के पाँव छूए ....
"गुरूदेव महात्मा जी आपसे मिलना चाहते है ।" लड़के ने षिवदास की ओर संकेत किया ।‘‘
‘ प्रणाम महाराज ,आईए अन्दर चलते है ।‘‘ रामकिशन उसे आश्रम के एक कमरे में ले गए । ‘‘ काम बताईए ।‘‘
‘यहां नही आपके घर चलते है। ‘‘ शिवदास ने कहा ।
‘कोई बात नही चलो ।‘ कहते हुए वह शिवदास को साथ ले कर आश्रम के पीछे की ओर चल दिए ।
आश्रम के पीछे एक छोटा सा साफ सुथरा कमरा था । कमरे में एक तरफ बिस्तर लगा हुआ था । दूसरी तरफ पुस्तकों की अलमारी थी । बाकी कमरे में साफ सुथरी दरी विछी हुई थी । कमरे के आगे एक छोटी सी रसोई और पीछे एक टायलेट था । शिवदास हैरान था कि जिस आदमी को सारा गाँव गुरू जी मानता था और बड़े--बड़े प्रषासनिक अधिकारी जिसके पांँव छूते हैं और जिसके नाम पर इतना बड़ा आश्रम बना हो वह इस छोटे से कमरे में रहता हो ? इससे बडिया तो उसका आश्रम था । जिसमें भक्तों की दया से आराम की हर चीज व वातानुकूल कमरे थे । उसके पास भक्तों द्वारा दान दी गई गाड़ी भी थी । इतना सादा जीवन तो साधू होते हुए भी उसने नही व्यतीत किया । अंतस में कही कुछ विचार उठा जो उसे विचलित कर गया ................... आत्मग्लानि का भाव । वह साधू हो कर भी भौतिक पदार्थों का मोह त्याग नही पाया और रामकिशन साधारण लोक जीवन में भी मोह माया ये दूर है .... वो ही सच्चा आत्म ज्ञानी है ।
‘महाराज बैठिए, आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ‘‘ उन्होंने बिस्तर पर बैठने का संकेत किया ।
‘मुझे पहचाना नही केशी? ‘‘ शिवदास ने धीरे से पूछा । वो रामकिशन को केशी कह कर ही पुकारा करता था ।
‘‘ बूढा हो गया हूँ । यादाश्त भी कमजोर हो गई है । मगर तुम शिवदास तो नही हो ? रामकिशन ने आश्चर्य से पूछा
‘हां, शिववदास हूँ तेरा दोस्त‘‘ कहते हुए शिवदास की आँखें भर आई
‘शिववदास तुम,?" उन्होंने शिवदास को गले लगा लिया
‘अभी इस राज को राज ही रखना । ‘ शिवदास घीरे से फुसफुसाया
‘‘ठीक है, तुम आराम से बैठो ।‘
‘गुरूदेव, पानी । ‘ उसी लड़के ने अन्दर आते हुए कहा और पानी पिलाकर चला गया ।
‘ ये लड़का बड़ा भला है । सेवादार है ?‘‘ शिवदास से उत्सुकता से पूछा ।
‘यहां मेरे समेत सभी सेवादार है । तुम भी कितने अभागे हो । जिसे बचपन में ही अनाथ कर गए थे ये वही तुम्हारा बेटा कर्ण है ।‘‘
‘क्या ?‘ शिवदास झटका सा लगा । खून में तरंग सी उठी । उसका जी चाहा कर्ण को आवाज देकर बुला ले और गले से लगा ले । उसका दिल अंदर से रो उठा ।
‘ तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे परिवार ने बहुत मुसीबतें झेली हैं। मगर तुम्हारी पत्नि ने साहस नही छोड़ा । कड़ी मेहनत करके बच्चों को पढाया लिखाया और काम पर लगाया। काम अच्छा चल निकला है । रामकिशन उन्हें बच्चों और उनके काम काज के बारे में बताते रहे । पर षिवदास का मन बेचैन सा हो रहा था कि पत्नि कैसी है -वो कैसे इतना कुछ अकेले कर पाई होगी---- मगर पूछने का साहस नही हो रहा था । पूछें तो भी किस मुंह से ...... उस बेचारी को वेसहारा छोड़कर चले गए थे । आज वो फेसला नही कर पर रहा था कि उसने अपना रास्ता चुनकर ठीक किया या गलत और माँ बेचारी---- उसे एक बार देखने का सपना लिए संसार से विदा हो गई..............।
‘पहले यह बताओ कि तुम बीस--पचीस वर्ष कहाँ रहे ? राम किशन शिवदास के बारे में जानने के उत्सुक थे ।क्रमश:
nice..................
ReplyDeleteकहानी का यह भाग सुंदर है। कहानी अपने क्रम से आगे बढ़ रही है।
ReplyDeleteसुंदर ... देखते हैं क्या होता है
ReplyDeletebilkul ek saans me pad gaee bahut bandhe rakhatee hai aapkee lekhan shailee.........
ReplyDeleterochakta barkarara hai padhane me maza aaraha hai .....agale ank ki pratiksha me
ReplyDeletesadar
बहुत बेहतरीन प्रवाह है कहानी मे, आगे का इंतजार है.
ReplyDeleteरामराम.
रोचकता बरकरार है ......आगे कि कड़ी का इन्तेजार है .
ReplyDeletewah wah wah...
ReplyDeleteagli ka intezaar....
जितनी संवेदना आपके भीतर है उसका सोर्ट क्या है ...ये कहानी पढ़कर मालूम चलता है ........एक कन्फ्यूज़न है ...आपका जन्मदिन आ कर गया है क्या .यदि हाँ तो देरी से बधाई स्वीकार करे...
ReplyDelete.आपके ब्लॉग पर मेरी हाजिरी न के बराबर होती है .पर आपका स्नेह ओर आशीर्वाद हमेशा बना रहता है .आप उन व्यक्तियों में से है जो एक अच्छे इन्सान भी है ..जैसे कागजो में है वैसे असल जिंदगी में भी......
कहानी बहुत ही प्रेरक चल रही है ... कर्म को प्रेरित प्रतीत हो रही है ... रोचक ...
ReplyDeleteअगली कड़ी की प्रतीक्षा है ...
कहानी प्रवाहमयी है....आगे इंतज़ार है...
ReplyDeletebahut besabri se agli kadi ka intzaar hai
ReplyDeleteकहानी में प्रवाह बना हुआ है. एक ही साँस में पढ़ गई हूँ.अगली कड़ी की प्रतीक्षा है.
ReplyDeleteआभार
दिलचस्प..कहानी अंत तक बांधे रहती है..अगली कड़ी का इंतजार.
ReplyDelete"शिवदास जो लोग जीवन में संघर्ष नहीं करना चाहते, वही जीवन से भागते हैं। हमारे शास्त्रों में अनेक ॠषि-मुनि हुये हैं जिन्होंनें अपने पारिवारिक जीवन का निर्वाह करते हुये भगवान को पाया है। कर्म से, कर्त्तव्य से भागने की शिक्षा कोई धर्म नही देता"
ReplyDeleteआपकी कहानियों से बहुत प्रेरणा और शिक्षायें मिलती है जी
प्रणाम
कहानी में काफी रोचकता है...,इन्तजार रहेगा.
ReplyDeleteज़िदगी अकस्मातों का ख़जाना होती है
ReplyDelete. देखे और कितने अकस्मात निकलते हें
बहुत सुन्दर....Mom.....कहानी अंत तक बांधे रहती है..अगली कड़ी का इंतजार.
ReplyDeleteबिलकुल सच्ची घटना जैसी लग रही है कहानी।
ReplyDeleteबहुत रोचक और हकीकत के समीप।
माँ जी चरण स्पर्श
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरिन कहानी लग रही है, आप तो हर विधा में पारंगत हो , क्रम बनायें रखिए , अगले भाग का इन्तजार रहेगा ।
निर्मला जी आप की कहानी पढते पढ्ते मेरे रोंगटे खडे हो गये केसे लोग हॆ इस दुनिया मै जो सिर्फ़ अपना सोचते है.... यह शिवराम अब आ गया अब उसे कोई हक नही बेठे हुये पानी मै अपने प्यार का कंकर फ़ॆंकने का..... कुछ समझ मै नही आता इस दुनिया का रुप.
ReplyDeleteकहानी ने बांधे रखा ओर अंत मै पढ कर इस शिवराम से कोई सहानूभुति नही जागी.
अगली कडी का बेसवरी से इंतजार है
kahani ati rochakata liye hai
ReplyDeleteआगे इन्तजार कर रहे हैं..
ReplyDeletepratiksha mein
ReplyDeleteबहुत अच्छी चल रही है कहानी ...अगली कड़ी का इंतज़ार है ..
ReplyDeleteकहानी प्रवाहमयी है....आगे इंतज़ार है
ReplyDeleteआपकी कहानियों से बहुत प्रेरणा और शिक्षायें मिलती है mummy जी
ReplyDeleteउत्सुकता है कि अपने जिम्मेदारियों को त्याग कर शिवराम ने क्या किया २५ साल तक ...अगली कड़ी की प्रतीक्षा है
ReplyDelete