22 May, 2009

( कविता )

मृ्ग अभिलाशा
हम विकास की ओर !
किस मापदंड मे?
वास्तविक्ता या पाखन्ड मे !
तृ्ष्णाओं के सम्मोहन मे
या प्रकृ्ति के दोहन मे
साईँस के अविश्कारों मे
या उससे फलिभूत विकरों मे
मानवता के संस्कारो मे
या सामाजिक विकरों मे
धर्म के मर्म या उत्थान मे
या बढ्ते साम्प्रदायिक उफान मे
पूँजीपती के पोषण मे
या गरीब के शोषण मे
क्या रोटी कपडा और मकान मे
या फुटपाथ पर पडे इन्सान मे
क्या बडी बडी अट्टालिकाओं मे
या झोंपड पट्टी कि बढती सँख्याओं मे
क्या नारीत्व के उत्थान मे
या नारी के घटते परिधान मे
क्या ऊँची उडान की परिभाषा मे
या झूठी मृ्ग अभिलाषा मे
ऎ मानव कर अवलोकन
कर तर्क और वितर्क
फिर देखना फर्क
ये है पाँच तत्वोँ का परिहास
प्राकृ्तिक सम्पदाओँ का ह्रास
ठहर 1 अपनी लालसाओँ को ना बढा
सृ्ष्टि को महाप्रलय की ओर ना लेजा




21 May, 2009

रोई (ग़ज़ल)

याद आई भूली दास्ताँ कोई
दिल रोया पलकों की जुबाँ रोई

जब भी जली अरमानों की चिता
ज़िन्दगी बन के धूआँ रोई

कभी काँटा लगा डाली से
कली सरे गुलिस्ताँ रोई

देख कर तेरी बेरुखी ज़ालिम
सिर छुपा के गिरेवाँ रोई

अँधेरों से बहुत डर लगता है
देख कर चाँद मेहरवाँ रोई

बेशक बेवफा तू भी नहींहै
तकदीर भर आसमाँ रोई




20 May, 2009

मुझे निभाना है प्रण ( कविता )

जीवन मे हमने
आपस मे
बहुत कुछ बाँटा
बहुत कुछ पाया
दुख सुख
कर्तव्य अधिकार
इतने लंबे सफर मे
जब टूटे हैं सब
भ्रमपाश हुये मोह भँग
क्या बचा
एक सन्नाटे के सिवा
मै जानती थी
यही होगा सिला
और मैने सहेज रखे थे
कुछ हसीन पल
कुछ यादें
हम दोनो के
कुछ क्षणो के साक्षी1
मगर अब उन्हें भी
तुम से नहीं बाँट सकती
क्यों कि मै हर दिन
उन पलों को
अपनी कलम मे
सहेजती रही हूँ
जब तुम
मेरे पास होते हुये भी
मेरे पास नही होते
तो ये कलम मेरे
प्रेम गीत लिखती
मुझे बहलाती
मेरे ज़ख्मों को सहलाती
तुम्हारे साथ होने का
एहसास देती
अब कैसे छोडूँइसका साथ्
अब् कैसे दूँ वो पल तुम्हें
मगर अब भी चलूँगी
तुम्हारे साथ साथ्
पहले की तरह्
क्यों की मुझे निभाना है
अग्निपथ पर
किये वादों का प्रण

19 May, 2009

अब और तब ( कविता )

तब रिश्ते
अग्नि के चारों ओर
फेरे दे कर
तपाये जाते
प्रण ले कर
निभाये भी जाते
सात जन्मों तक
ि
कई बार
रिश्तों मे
एक पल निभाना भी
हो जाता है कितना कठिन
िे ताउम्र 
िता 
 
तभी तो आजकल
रिश्ते कागज़ पर
लिखाये जाते हैं
अदालत मे और
बनाये जाते है
वकील दुआरा
अब कितना आसान हो गया
रिश्ते को तोड्ना
कागज़ पर कुछ
शब्द जोड्ना
बन्धन से आज़ाद
और हो जाना

17 May, 2009

कविता


बस जीना है


जीवन के सागर मंथन मे
नारी ने क्या पाया
उसके हिस्से तो बस
विष ही आया
फिर भी जीवन से
डरती नही
मरती नही
क्यों कि
माँ न यही सिखाया
जब रिश्तों की
गठरी को थमाया
फर्ज़ों का सँदूक दिया
खुद से ज़ुदा किया
वो तब भी नही घबराई
फिर से दुनिया बसाई
उमडती घुमड्ती
सपने सँजोती
आशा के मोती पिरोती
जीवन के यथार्थ से टकराती
जब थक जाती
आँखों से तकदीर टपकाती
डरती नही
और ना मरती है
हारती तब है जब्
ये सृ्ष्टि की रचयित
अपनी ही रचना दुआरा
ठगी जाती है
ठुकराई जाती है
पर वो अपने कर्तव्य् को
तब भी नही भूलती
इस सत्य को जानते हुये
कि अगर वो
इस विष को
अमृ्त नही बना पायी
तो वो अपने रचयिता को
क्या मुँह दिखलायेगी
क्यों कि वो जानती है
अपनी रचना दुआरा
रचयिता को
ठगे जाने का दुख
फिर भी
चलती है जीती है
और ये विष पीती है