21 May, 2009

रोई (ग़ज़ल)

याद आई भूली दास्ताँ कोई
दिल रोया पलकों की जुबाँ रोई

जब भी जली अरमानों की चिता
ज़िन्दगी बन के धूआँ रोई

कभी काँटा लगा डाली से
कली सरे गुलिस्ताँ रोई

देख कर तेरी बेरुखी ज़ालिम
सिर छुपा के गिरेवाँ रोई

अँधेरों से बहुत डर लगता है
देख कर चाँद मेहरवाँ रोई

बेशक बेवफा तू भी नहींहै
तकदीर भर आसमाँ रोई




10 comments:

  1. wah nirmala ji, behatareen bhavabhivyakti.

    bahut khoob.

    mujhe apni purani likhi 4 panktian yaad aa gain.

    aaj ashru ke bhi ashru aa gaye hain
    aaj sapna bhi swapn men kho gaya hai
    hriday par kaisi lagi ye chot gahri
    nayan bhi chhalke nahin pathra gaye hain.

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  2. Waah ! Waah ! Waah !

    Bahut bahut bhavpoorn sundar rachna....

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  3. जब भी जली अरमानों की चिता
    ज़िन्दगी बन के धूआँ रोई
    अच्छी लगी रचना आपकी.

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  4. "बेशक बेवफा तू भी नहींहै
    तकदीर भर आसमाँ रोई"
    बहुत सुन्दर!

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  5. कभी काँटा लगा डाली से
    कली सरे गुलिस्ताँ रोई
    लाजवाब लेखन, उम्दा लेखन ........

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  6. कहते हैं रोने से दिल के गम कम हो जाते हैं।
    रोई केबहाने अच्छी गजल कहीआपने।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  7. मर्मस्पर्शी रचना...एक भूला-बिसरा गीत 'वो भूली दास्ताँ लो फिर याद आ गयी' भी याद आ गया.

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  8. बेशक बेवफा तू भी नहींहै
    तकदीर भर आसमाँ रोई

    bhut khoob.

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आपकी प्रतिक्रिया ही मेरी प्रेरणा है।