गज़ल
अपना इतिहास पुराना भूल गये
लोग विरासत का खज़ाना भूल गये
रिश्तों के पतझड मे ऐसे बिखरे
लोग बसंतों का जमाना भूल गये
दौलत की अँधी दौड मे उलझे वो
मानवता को ही निभाना भूल गये
भूल गये आज़ादी की वो गरिमा
कर्ज़ शहीदों का चुकाना भूल गये
वो बन बैठे ठेकेदार जु धर्म के
वो अपना धर्म निभाना भूल गये
बीवी के आँचल मे ऐसे उलझे
माँ का ही ठौर ठिकाना भूल गये
परयावरण बचाओ, देते भाषण
पर खुद वो पेड लगाना भूल गये
भूल गये सब प्यार मुहब्बत की बात्
अब वो हसना हंसाना भूल गये
अपना इतिहास पुराना भूल गये
लोग विरासत का खज़ाना भूल गये
रिश्तों के पतझड मे ऐसे बिखरे
लोग बसंतों का जमाना भूल गये
दौलत की अँधी दौड मे उलझे वो
मानवता को ही निभाना भूल गये
भूल गये आज़ादी की वो गरिमा
कर्ज़ शहीदों का चुकाना भूल गये
वो बन बैठे ठेकेदार जु धर्म के
वो अपना धर्म निभाना भूल गये
बीवी के आँचल मे ऐसे उलझे
माँ का ही ठौर ठिकाना भूल गये
परयावरण बचाओ, देते भाषण
पर खुद वो पेड लगाना भूल गये
भूल गये सब प्यार मुहब्बत की बात्
अब वो हसना हंसाना भूल गये
behatareen. nirmala ji, badhaai sweekaren.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeleteयथार्थवादी रचना के लिए शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteपर्यावरण पर भाषण देते पेड़ लगाना भूल गये ..
ReplyDeleteबीबी के आँचल मे मा को भूल गये ...
क्या क्या भूल गये ...!!
"भूल गये सब प्यार मुहब्बत की बात
ReplyDeleteअब वो हँसना हँसाना भूल गये"
बहुत खूब!
बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteपर खुद वो पेड़ लगाना भूल गये, बहुत ही भावमय प्रस्तुति, सत्यता के बेहद निकट,आभार ।
ReplyDeleteबेहद उम्दा गजल लगी ,। बधाई
ReplyDeletemom ..... बहुत सुंदर लगी यह ग़ज़ल.....
ReplyDeleteभूल गये आज़ादी की वो गरिमा
ReplyDeleteकर्ज़ शहीदों का चुकाना भूल गये
बहुत अच्छी और सच्ची ग़ज़ल
sab kuchh samet liya ....bahut sundar!!
ReplyDeleteबदलते दौर का एहसास
ReplyDeletewaah !
ReplyDeletebahut hi umdaa gazal.........
रिश्तों के पतझड मे ऐसे बिखरे
लोग बसंतों का जमाना भूल गये
kyaa baat hai !
यथार्थवादी शेरों के साथ आपकी ग़ज़ल बहुत ही लाजवाब बन पड़ी है ......... उम्दा लिखा ........
ReplyDeleteयथार्थ कां चित्रित कर दिया आपने !!
ReplyDeleteआपकी विचार भरपूर रचना बहुत अच्छी लगी।
ReplyDeleteभूल गए आजादी वो गरिमा,
कर्ज शहीदों का चुकाना भूल गए
इसकी जगह अगर आपको अच्छा लगे तो
आजादी के नशे में हुए धुत्त ऐसे
कर्ज शहीदों का चुकाना भूल गए
आज की परिस्थिति पर लिखी सटीक रचना...बधाई
ReplyDeleteबेहतरीन ग़ज़ल है,बिलकुल यथार्थपरक ...सबकी आँखें खोलती हुई
ReplyDeleteउम्दा रचना.
ReplyDeletebahut hi sundar aur yatharthparak gazal.
ReplyDeleteवाह बहुत लाजवाब.
ReplyDeleteरामराम.
अच्छी फटकार लगाई है , निर्मला जी।
ReplyDeleteसामयिक और सार्थक।
बेहद खूबसुरत गजल लिखी है आपने
ReplyDeleteबहुत बहुत सुंदर ग़ज़ल है। याद दिलाती है उन लक्ष्यों की जिन्हें हमने खुद आजादी के आंदोलन के दौरान तय किया था। लेकिन आजादी को केवल कुछ लोगों ने अपना बना कर बाकी सब को धता बता दी।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना ...आभार
ReplyDeleteअच्छे खयाल
ReplyDeleteकुर्सी से चिपके इस तरह, कहीं आना-जाना भूल गए.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!
satya ke bahut kareeb,hum kitne ehsaan bhul gayi,sunder rachana.
ReplyDelete"भूल गये आज़ादी की वो गरिमा
ReplyDeleteकर्ज़ शहीदों का चुकाना भूल गये"
वाह! लाजवाब गजल्!
जिसका हर शेर वास्तविकता को चित्रित कर रहा है....
आभार्!
इस भुलक्कड़ स्वभाव के कारण ही हम कई भूल कर रहे हैं... अफ़सोस..
ReplyDeleteपर बहुत ही सुन्दर कृति..
आभार..
bahut bahut badhiya rachna...
ReplyDeletebahut si cheejein yaad aa jayengi ji..bahut hi achhi rachna :)
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteअति सुन्दर ! अपनी भूलों का अहसास कराने के लिये आपका जितना आभार माना जाये कम होगा । आपने अपना दायित्व बखूबी निभाया है । आपका कोटिश: धन्यवाद !
ReplyDeleteSahi kaha...log rishton kee patjhad me basant bhool jate hain....harek pankti marmik hai!
ReplyDeleteKhoob gaye pardesh ki apne deewar-o-dar bhool gaye,
ReplyDeleteSheesh mahal ne aisa ghera,
Mitti ke ghar blhol gaye.
पता नही कैसे एस बेहतरीन रचना तक इतना देर से पहुँच पाया..बहुत बढ़िया रचना..बधाई
ReplyDelete