08 July, 2017


गज़ल 1
मुहब्बत से रिश्ता बनाया गया
उसे टूटते रोज पाया गया
मुहब्बत पे उसकी उठी अँगुलियाँ
सरे बज़्म रुसवा कराया गया
यहाँ झूठ बिकता बड़े भाव पर
मगर सच को ठेंगा दिखाया गया
दिए घी के उनके घरों में जले
मेरा घर मगर जब जलाया गया
वही वक्त है ज़िंदगी का मजा
हँसी खेल में जो बिताया गया
मैं माँ का वो झूला न भूली कभी
जो बाहों में लेकर झुलाया गया
चुनौती मिली जो निभाया उसे
मेरा हौसला आजमाया गया
गुलाबी गुलाबी सा मौसम यहाँ
चमन को गुलों से सजाया गया
मिली काफिरों को मुआफ़ी मगर
कहर बेकसूरों पे ढाया गया
गज़ल2
सर आँखों पे पहले बिठाया गया
तो काजल सा फिर मैं बहाया गया
मिली काफिरों को मुआफ़ी मगर
कहर बे कसूरों पे ढाया गया
उड़ानों पे पहरे लगाए मेरी
मुझे अर्श से यूं गिराया गया
रादीफें खफा काफ़िए से हुईं
ग़ज़ल को मगर यूं सताया गया
वचन सात फेरों में हमने लिए
वफ़ा से वो रिश्ता निभाया गया
जिसे ज़िंदगी भर न कपड़ा मिला
मरा जब कफ़न से सजाया गया
शरर नफरतों का गिरा कर कोई
यहाँ हिन्दू मुस्लिम लड़ाया गया

6 comments:

  1. दोनों गज़ल बेहतरीन

    काजल सा फिर मैं बहाया गया
    ज़बरदस्त

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-07-2017) को 'पाठक का रोजनामचा' (चर्चा अंक-2661) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. शानदार गज़लें

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  4. बहुत ही लाजवाब गजलें, बहुत शुभकामनाएं.
    रामराम
    #हिन्दी_ब्लॉगिंग

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  5. कमाल की गजलें ।

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आपकी प्रतिक्रिया ही मेरी प्रेरणा है।