17 February, 2011

बन्दे आईना देखा कर---  भाग एक[hindi translation]
writer-- gurpreet greewal-- pati adiye bajare di muthh|
गाडी मे पंजाबी गीत गूँज रहा था"नित नित नी बजारीं औणा बिल्लो खा लै नाशपातियां' [ अर्थात कि हमने रोज़ रोज़ बाजार नही आना ,बिल्लो नाशपातियाँ खा ले} । मै अपने कुछ दोस्तों के साथ जालन्धर जा रहा था ,एक साहित्यिक समागम मे शामिल होना था।गाडी मे साथ सफर कर रहे रंगकर्मी स़. फुलवन्त मनोचा जी ने बहुत विनम्रता से पूछा -- सोढी साहिब का कार्ड आया? '
'अपनी नही बनती किसी सोढी साढी से" 
फुलवन्त जी चुप कर गये। रात नौ बजे हम जालन्धर से वापिस आये। मैने आते ही दरवाजे पर लगा ताला खोला तो जापान के  शहर ओसाका से आये एक खूबसूरत पत्र और नव वर्ष के कार्ड ने मेरा स्वागत किया। ये कार्ड एवं पत्र प्रवासी पंजाबी शायर परमिन्द्र सोढी ने भेजा था। मुझे बहुत शर्म आयी और पंजाबी की मशहूर कहावत याद आयी  इक'चुप सौ सुख"। आदमी बिना सोचे समझी कई बार  कितना कुछ बोल देता है। खैर कडाके की ठँड मै अरामदेह रजाई मे सोने का प्रयास करने लगा। मगर फिर एक बजे उठा ,कमरे की बत्ती जलाई । सोढी को रंग-विरंगे स्केच पेन से एक पत्र लिखा। मैने उसे हूबहू   पूरी बात लिख दी।
  लगभग चार महीने बाद सोढी भारत आया। एक शाम उसका फोन आया । सोढी ने बहुत विनम्रता के साथ पूछा--'कुछ वक्त दे सकोगे?' मै आलू न्यूट्रिला को छौंक लगा रहा था। मैं कडाही मे कडछी छोड कर 'लवर्ज़ पवाईँट' जा पहुँचा। नंगल डैम की सतलुज झील के किनारे  स्थित लवर्ज़ प्वाईँट बहुत खूबसूरत स्थान है। यहाँ बहुत सुन्दरता और शाँति है। रात दस बजे महफिल जमी।सोढी एवं प्रोफेसर मिन्द्र बागी ने आदमी की ज़िन्दगी और बन्दगी के बारे मे गज़ब की बातें सुनाई। जाते जाते शायर सोढी कह गया--'जापान मे आपका स्वागत है, जब कहोगे वीज़ा भेज दूँगा"। महफिल समाप्त हुयी। मैं पैदल चलते हुये घर पहुँचा, सोच रहा था कि आदमी भी क्या चीज़ है! कभी अच्छा सोचता ही नही। जरूरी नही जिनके साथ आपकी जानपहचान या बनती हो वही अच्छा हो।
   अप्रेल महीने मे बोतल, ब्रश,और दरख्तों के लाल लाल फूल देखने वाले होते हैं। घागस के मछली बीज फार्म{ जिला बिलासपुर हिमाचल प्रदेश} मे पहुँचते ही लाल लाल फूलों को देखते ही हमारे चेहरे खिल गये। घागस एक छोटा सा कसबा है जो मनाली जाते हुये बरमाणा के बाद आता है। जा तो मनाली ही रहे थे मगर लंदन से आये घुमक्कड सैलानी स. गुर्दीप सिंह सन्धू ने घागस  मे ही घमासान मचा दिया। हुक्म हुया कि एक रात यहीं रहेंगे।  मछली बीज फार्म ध्योली मे एक छोटा सा गेस्ट हाऊस भी है। हमने कमरा ले लिया। कमरे मे जाते ही उसने फिर शोर मचा दिया कहा कि ये नही वो कमरा चाहिये। घाट घाट का पानी पीने वाले सन्धू साहिब ने बहुत समझाया कि बाबा एक दिन काट लो क्यों शोर मचा रहे हो?मगर आदमी का अहं और ज़िद्द कहाँ  रहने  देती है " मै तो हद दरजे का ज़िदी  --- मै पैसे वाला--- ,बस नही माना।
मैं प्रबन्धक के कमरे मे गया। पत्रकारी की  फिरकी घुमाने के अतिरिक्त प्रबन्धक को मैने उन गेंदों की जानकारी दी जो मैने समय समय पर सरहिन्द की दीवार पर मारी थीं। बात इतनी की प्रबन्धकों ने वहाँ पहले से रह रहे एक सज्जन को कमरा खाली करने का हुक्म सुना दिया। उस शरीफ आदमी ने 10--15 मिन्ट मे कमरा बदल लिया। उस भद्र पुरुष ने लुँगी पहन रखी थी और कागज़- पत्रों का काफी  झमेला डाल रखा था।। खैर हमने मनपसंद कमरा ले लिया। रात घागस के एक मशहूर ढाबे से मक्की की रोटी और देसी घी वाली माँह की दाल खाई। देसी घी की दाल वाला ये ढाबा 24 घन्टे खुला रहता है। खाना खाने के बाद सैर करते हुये मेरी मुलाकात उस भद्र पुरुष से हो गयी।
मुलाकात क्या हुयी मेरे लिये तो डूब  मरने जैसी नौबत आ गयी। लुँगी वाला भद्र पुरुष भारत सरकार  का वैग्यानिक  डा. ए लक्षमी नारायण था। सैंट्रल मैराईन फिशरी रिसर्च इन्स्टीच्यूट कोचीन [केरल} मे बतौर प्रिंसीपल रहे डा. लक्षनी नारायण हिमाचल प्रदेश के 36 दिन के दौरे पर थे। उन्होंने केन्द्र सरकार को ये रिपोर्ट देनी थी कि हिमाचल मे मछली का और उत्पादन कैसे बढ सकता है। इस वैग्यानिक ने मुझे केरल आने का भी आमन्त्रण दिया। देसी घी और माँह की दाल खाओ तो चढ  जाती है-- घूक-- घूक -घूक,  मगर मुझे रात भर नींद नही आयी। सन्धू साहिब तो गलास पी कर कब के सो गये थे। मैं पूरी रात सोचता रहा कि मन क्यों बेचारे वैग्यानिक को तंग करना था, हम तो उस कमरे मे भी ठीक थे। पराँठे  फाडते हुये आधी उम्र बीत गयी मगर अहं और ज़िद्द की दुकान पर ही अटके रहे। कभी पूछा ही नही अक्ल की दुकान का पता।

भाग दो पा ती अडिये बाजरे दी मुट्ठ का हिन्दी अनुवाद
-- भाग दो
आपकी फुरसत का अर्थ हमारी फुरसत  नहीं
पटियाला से एक प्रेमी सज्जन का फोन आया। उसने एक ही साँस मे अपनी बात कह डाली--- "परसों आ रहे हैं हम --- डैम शैंम देखेंगे--  दो दिन रहेंगे भी---- कतला मछली देख लेना आगर आचार डल जाये तो।"
सज्जन ने एक बार भी नही पूछा कि आपके पास फुरसत है या नही। मेरे भी एक बार मुँह से नही फूटा कि भाई रुक ---अभी बहुत व्यस्ततायें हैं। खैर्! प्रेमी सज्जन की मेज़बानी करनी पडी। मैं अक्सर पढे लिखे लोगों के व्यवहार के बारे मे  सोच कर बहुत हैरान होता हूँ। अच्छे भले इन्सान मन मे ये भ्रम पाल लेते हैं कि जब उनकी फुरसत  होती है तो सभी लोग  फुरसत मे होते हैं। एक सज्जन रात 9-10 बजे बिना बताये ही आ गये। मस्ती मे सोफे पर पसर कर  बोले--" खाना खा कर सैर करने निकले थे सोचा महांपुरुषों के दर्शन ही करते चलें।" अगर आपके घर आया कोई आदमी आपको महांपुरुष कहे तो आप क्या करेंगे? न तो गुस्सा कर सकते हैं और न ही  उसे जाने के लिये कह सकते हैं। आप गेस्टहाऊस मे बैठे जैसे बन जाते हो। आपका खाने का समय है और आप चाय पानी तैयार करने मे लग जाते हैं। आये गये के साथ  चाय तो पीनी ही पडती है। 9-10  बजे चाय और फिर खाना मेजबान तो माथे पर हाथ मार कर ही बिस्तर मे  घुसता है। कितना अच्छा हो अगर आने वाला  आने से पहले एक फोन ही कर ले।
जब से भारत सरकार निगम लिमि. ने 311 रुपये का फोन  दिया है मेरे लिये तो मुसीबत ही बन गयी है। ये सकीम तो अच्छी है कि 311 रुपये दो और महीने भर जितनी मर्जी बातें करो।इस सहुलियत का दुरुपयोग कोई अच्छी बात नही। कई लोग तो बात ही यहाँ से शुरू करते हैं--" निट्ठले बैठे थे सोचा आपको फोन ही कर ले।" मोबाईल तो बहुत बडी सिरदर्दी है। जब से मैने मोबाअल फोन लिया है मुझे ये लगने लागा है कि मैं पत्रकार नहीं बल्कि फायर ब्रिगेड का मुलाजिम हूँ। सज्जन ठाह सोटा मारते हैं---"फटा फट चंद मिन्ट लगाओ --- आ जाओ--- आ जाओ--- आ जाओ--"\कोई कोई मोबाईल फोन करते समय पूछता है---"बहुत बिज़ी तो नहीं--- किसी-- संसकार मे तो नही खडे? ---- बाथरूम मे तो नही हो---- ड्राईविन्ग तो नही कर रहे?"
एक अखबार मे काम करते बहुत ही सूझवान उप सम्पादक मेरे जानकार है।एक बजे दफ्तर मे आते ही वो अपना मोबाईल बन्द कर्के दराज मे रख देते हैं। मैने इसका कारण पूछा तो बोले---" बताओ अब दफ्तर का काम करें या मोबाईल सुने।"
उपसम्पादक मोबाईल पर लम्बी पीँघ डालने वालों से बहुत ही तंग थे।उन्हों ने बतायअ कि अच्छे अच्छे डाक्टर,लेखक, प्रोफेसर ,बुद्धीजीवी सरकारी फोन ही घुमाते रहते है।ये बुद्धेजीवी इतना भी नही समझते कि हमारा काम का समय है--- काम की कोई बात हो तो सुन भी लें --- बस ऐसे ही पूछते रहेंगे--- और फिर---- और फिर ---।
प्रवासी भारती दोस्त भी कई बार लोटे मे सिर ही फसा देते हैं
 सीधा ही कहेंगे---" आज  हो गयी 27, 29 को आ रहे हैं हम ---- सीधे दिल्ली एयरपोर्ट पहुँच जाना।" भाई रब के बन्दे दस बीस दिन पहले बता दो। इस बन्दे का भी कोई प्रोग्राम होता है। अब किस किस से माथा पच्ची करें। कोई नही सुनता यहांम।कई बार सोचा बर्फ सोडा मंगवाया करूँ और दो पैग लगाया करूँ और सोने से पहले गाया करूँ------ किस किस को रोईये,---- आराम बडी चाज़ है---- मुंह ढांप के सोईये। मैने ये आज तक सोचा तो है मगर किया नहीं। पर ये भी झगडे की जड है
व्यवस्था और निट्ठले पन  सभ्याचार को बदलने के लिये होश मे रह कर ही प्रयत्न करने की जरूरत है।

14 February, 2011

लघु कथा

 दोहरे मापदंड

शुची बहुत दिनो बाद आयी थी। कितने दिन से मन था उसके पास बैठूँगी अपने दिल की बात करूँगी\ मगर आजकल वो बहुत परेशान है, अपनी मकान  मालकिन से। शहरों मे पानी की कितनी किल्लत रहती है। इसके चलते रोज़ उसका मकान मालकिन से झगडा हो जाता है। अब और कहीं अच्छा घर मिल नही रहा। वैसे भी रिओज़ रोज़ घर बदलना कौन सा आसान है। एक बार मैने कहा भी था कि थोडा खुद को उसकी जगह रख कर देखो, शायद वो भी सही हो! उसने बताया कि मकानमाल्किन का हुक्म है कि सुबह जब पानी आता है तभी उठ कर अपना काम निपटा लिया करे। बस एक घन्ट ही वो ऊपर पानी देंगे बाद मे टंकी भरने के लिये ही रखेंगे। टंकी के पानी से काम करना उन्हें बिलकुल अच्छा नही लगता कई बार टंकी भरी न हो तो पानी खत्म हो जाता है फिर दिक्कत होती है। आजकल बच्चों को जल्दी उठने की भी आदत नही रही। कई बार एक घन्टे मे काम खत्म नही होता तो मुश्किल। सुबह वो मुझे यही बात बता रही थी और नहाने के लिये बाल्टी भरने को लगा दी। तभी पानी खत्म हो गया।
:माँ पानी नही आ रहा।'
" चला गया?अब 12 बजे आयेगा।"
" तो क्या टंकी भी खाली है?"
हो गयी होगी। हमारी ऊपरवाली किरायेदार देर से उठती है तो सारा काम टंकी से ही चलता है इस लिये खत्म हो गया होगा।"
" तो आप उनसे कहती क्यों नही?"
" कई बार कहा है।"
 " आप नीचे से उनका पानी बन्द कर दिया करो?"
" कैसे करूँ तुम्हारी बातें सुन कर सोचती हूँ वो भी मुझे उसी तरह कोसेगी जैसे तुम अपनी मकानमालकिन को कोसती हो।"
 अब शुची मेरी तरफ देख कर कुछ सोचने लगी थी। यही बात तो मै उसे समझाना चाहती थी थोडा खुद को बदले। बार बार कहाँ घर बदलती रहेगी और ऐसे ही परेशान रहेगी। हो सकता है मकानमालकिन अपनी जगह सही हो।