दो चेहरे
"पापा आज आप स्टेज पर हीर राँझा गाते हुये रो क्यों पडे थे?"
"समझाईये न पापा"
'तुम नहीं समझोगी"
"समझाईये न पापा"
रनबीर की सात साल की बेटी अचानक अपनी नौकरानी के बेटे गोलू के साथ खेलती हुयी पापा से आ कर पूछने लगी।
'नहीं पापा मुझे बताओ ना" वैसे ये हीर राँझा क्या होते हैं?"
रनबीर ने बेटी की तरफ देखा और उसे बताने लगा
'बेटी हीर राँझा दो प्रेमी थे दोनो एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे मगर दोनो की शादी नहीं हुयी और और दोनो एक दूसरे के लिये तडपते रहे" ये गीत ये गीत हीर राँझा की प्रेम कथा है, उसका दर्द देख कर किसी के भी आँसू निकल जाते हैं। बहुत दर्दनाक प्रेम कहानी है।' रनबीर सिंह अपने ही ख्याल मे डूबा हुया बेटी को बता रहा था।
"पापा उनके माँ बाप कितने बुरे थे?"
'हाँ बेटी बहुत बुरे"। रनबीर ने बेध्यानी मे जवाब दिया
" पापा1 मेरे पापा तो बहुत अच्छे हैं जब मैं गोलू से शादी करूँगी तो आप हमे कुछ नहीं कहेंगे ना?" बेटी ने भोलेपन से कहा
'चटाक' तभी उसके गाल पर एक ज़ोर से चाँटा पडा और बेटी अवाक पिता की तरफ देख रही थी।
उसे क्या पता था कि इन्सान के दो चेहरे होते हैं एक घर मे एक बाहर।
"समझाईये न पापा"
'तुम नहीं समझोगी"
"समझाईये न पापा"
रनबीर की सात साल की बेटी अचानक अपनी नौकरानी के बेटे गोलू के साथ खेलती हुयी पापा से आ कर पूछने लगी।
'नहीं पापा मुझे बताओ ना" वैसे ये हीर राँझा क्या होते हैं?"
रनबीर ने बेटी की तरफ देखा और उसे बताने लगा
'बेटी हीर राँझा दो प्रेमी थे दोनो एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे मगर दोनो की शादी नहीं हुयी और और दोनो एक दूसरे के लिये तडपते रहे" ये गीत ये गीत हीर राँझा की प्रेम कथा है, उसका दर्द देख कर किसी के भी आँसू निकल जाते हैं। बहुत दर्दनाक प्रेम कहानी है।' रनबीर सिंह अपने ही ख्याल मे डूबा हुया बेटी को बता रहा था।
"पापा उनके माँ बाप कितने बुरे थे?"
'हाँ बेटी बहुत बुरे"। रनबीर ने बेध्यानी मे जवाब दिया
" पापा1 मेरे पापा तो बहुत अच्छे हैं जब मैं गोलू से शादी करूँगी तो आप हमे कुछ नहीं कहेंगे ना?" बेटी ने भोलेपन से कहा
'चटाक' तभी उसके गाल पर एक ज़ोर से चाँटा पडा और बेटी अवाक पिता की तरफ देख रही थी।
उसे क्या पता था कि इन्सान के दो चेहरे होते हैं एक घर मे एक बाहर।
ओह!....जबरदस्त!
ReplyDeleteसुन्दर. हमने कल्पना कर ली थी की यही होगा.
ReplyDeleteबहुत अच्छी कहानी है निर्मला जी...ऐसा ही होता है...अक्सर व्यक्ति के दो चेहरे ही होते हैं
ReplyDeleteचटाक में यह अन्तर चटक कर व्यक्त हो गया।
ReplyDeleteव्यक्तित्व दोहरा होता है तो चेहरे भी दो ही हो जाते हैं
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी कहानी |बधाई
आशा
फिल्मों में अक्सर यही होता है कि हम हीरो-हिरोइन के पक्ष में खडे होते हैं लेकिन स्वयं के जीवन में माता-पिता के साथ। अच्छी लघुकथा। बधाई।
ReplyDeleteअच्छी लघुकथा । चेहरे पे एक और चेहेरा, कब वो उतर जाये और आपकी असलियत सामने आ जाये ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सटीक कहानी|
ReplyDeleteब्रह्माण्ड
सही वक्त पर चांटा मारा पापा ने !!!!!
ReplyDeleteहम भारतीय घोर अनैतिक हैं...हमसे बेहतर वे हैं जो नैतिक होने का दावा तो नहीं करते...
ReplyDeleteचटाक्……………यूं लगा जैसे किसी ने सच का तमाचा ही मारा हो………………हम सबकी ये दोगली नीतियाँ हमारे लिये ही मुसीबत बनती जा रही हैं…………………ये चाँटा तो दिल पर छप गया।
ReplyDeletegr8.........vatvriksh ke liye bhej dijiye
ReplyDeletesunder hai.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लघुकथा...बधाई.
ReplyDelete_____________________________
'पाखी की दुनिया' - बच्चों के ब्लॉगस की चर्चा 'हिंदुस्तान' अख़बार में भी
हीर राँझा की कहानी पे रोने वाला पिता अपनी बेटी को चांटा नहीं मार सकता...ये पक्का है...
ReplyDeleteनीरज
निर्मला जी आपकी लघुकथा बहुत कृत्रिम लगी। पहली बात तो पाठकों ने भी ध्यान नहीं दिया और मान लिया कि आपने गलती की है। शायद की भी है। आपने नौकरानी के बेटी लिखा है बेटे नहीं। सबने मान लिया लिया कि वह बेटा ही हागा। क्योंकि हमारी अवधारणा तो यही है कि शादी एक लड़की और लड़के में ही हो सकती है।
ReplyDeleteदूसरी बात रनबीर अगर इतना संवदेनशील हैं तो आप उसे जबरन इतना असंवदेनशील कैसे बना सकती हैं,यह आम जीवन में असंभव बात है। हां वह स्टेज पर एंक्टिग करने के लिए रो रहा था तो अलग बात है।
तीसरी बात उसके समझदार होने का परिचय आप एक बार फिर देती हैं,जब वह कहता है... कि बेटी तुम नहीं समझोगी। ...और एक बार फिर देती हैं जब वह अपनी बेटी को समझाने लगता है। फिर मुझे समझ नहीं आया कि रनबीर कैसे इतना असंवेदनशील हो सकता है। हां वह भले ही बेटी की शादी गोलू से करने के लिए तैयार न हो पर कम से कम चांटा तो नहीं मारेगा।
वह यह भी समझेगा कि सात साल की उम्र ही क्या होती है। क्या उसकी बेटी,इस तरह के प्रेम,शादी जैसे शब्दों के अर्थ भी समझती है या नहीं।
बहरहाल आप अपनी इस लघुकथा का अंत इस तरह भी कर सकती हैं, जो ज्यादा प्रभावशाली होगाऔर उसे कृत्रिमता से बचाएगा । आखिरी की दो पंक्तियां हटा दीजिए।
माफ कीजिए यह एक सुझाव है और लघुकथा को परखने का अभ्यास।
September 15, 2010 10:44 PM
प्रस्तुति में शायद टाईपिंग मिस्टेक के कारण गोलू के लड़का और लड़की होने में कन्फ़्यूज़न हो गया है।
ReplyDeleteलेकिन रनबीर जैसी दोहरी मानसिकता के लोगों का होना कोई अनहोनी नहीं है। जिन इलाकों में ऑनर किलिंग जैसी चीजें चल रही हैं, वहाँ के लोक संगीत वगैरह में सिर्फ़ मार काट के गीत रागनियां नहीं हैं, प्रेम कहानियां भी बहुत हैं और लोग उन्हें सुनकर झूमते भी हैं, दुखी भी होते हैं। हाँ, जब खुद पर बात आती है तो उनका चरित्र बदल जाता है। यही दोहरा च्यक्तित्व उजागर करना चाहा है आपने और किया भी है।
आभार।
उपयोगी कथा!
ReplyDelete--
दोमुँहें लोगों के चेहरे दिखाने के लिए शुक्रिया!
--
आज दो दिन बाद नेट सही हो पाया है!
--
शाम तक सभी के ब्लॉग पर
हाजिरी लगाने का इरादा है!
...बच्चों की कोमल मासूम भावनाओं को सच में ना जाने कितने ही रणवीर जैसे लोग यूँ ही ठेस पहुचाते हैं!...आपने बहुत अच्छी तरह से समाज में व्याप्त दुमुहें चरित्र को बखूबी प्रस्तुत किया है...
ReplyDeleteक्षमा करें। मेरे सुझाव में यह संशोधन है कि अंतिम दो पंक्तियां हटाकर यह पंक्ति जोड़ें....रनबीर अवाक अपनी बेटी को देख रहा था।
ReplyDeleteचटाख .... सच में ऐसा ही होता है ... हक़ीकत बयान कर दी समाज की ...... सच में इंसान के दो चेहरे होते हैं ....
ReplyDeleteदो चेहरे वाकई ..समाज और हम ऐसे ही हैं ..चाहे कितना आगे बढ़ने का दावा कर लें
ReplyDeleteसही में मनुष्य दो चेहरे वाला होता है....इस कहानी में वास्तविकता है!
ReplyDeleteअच्छी लगी कहानी. सच में इंसान के दो चेहरे होते हैं
ReplyDeleteकम शब्दों में ह्मारे चेहरों की हक़ीक़त उजागर करती लघु कथा!
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
अलाउद्दीन के शासनकाल में सस्ता भारत-१, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
गोलू बेटी को बेटे कर लीजिये मासी.. बाकी लघुकथा अच्छी लगी..
ReplyDeleteSamaaj ki hakeekat bayaan kar di aapne,is kahani ke maadhyam se. bahar log hamesha mukhaute lagaaye hi ghumte hain jabki asli roop kuchh aur hota hai.
ReplyDelete(sorry, roman me likhna pada...net theek se kaam nahi kar raha)
Wah n Aah !!
ReplyDeletedo chehre...sachmuch...bahut achhi rahi laghukath.
ReplyDeleteऐसा ही होता है ..लगता है बेटी को ये तमाचा पड़ता रहेगा
ReplyDeleteप्यार हे क्या? सब से पहले तो यह ही सवाल है...शादी कर के ही प्यार को हांसिल किया जा सकता है? रणवीर ने जो किया वो सही या गलत हम केसे कह सकते है, जब तक हमे प्यार का अर्थ ही मालूम ना हो...क्योकि आज कल तो प्रेमी ही प्रेमी मिलते है जो अपने मां बाप को तो मारते है भाई बहिनो को ज्यदाद के लिये धोखा देते है, ओर प्यार प्यार चिलाते है....
ReplyDeleteपलट कर फटाक से चांटा मारे न मारे...लेकिन इतना तो तय है कि स्वयं हीर गाकर रोता हुआ व्यक्ति भी सहजता से अपने बेटी को नौकर के बेटे से ब्याहने की नहीं सोच सकता....
ReplyDeleteदोहरी सोच दर्शाती अत्यंत प्रभावशाली कथा ...
अच्छी लघुकथा ...गोलू बेटी नहीं बेटा होगा नौकरानी का ....
ReplyDeleteसात साल की उम्र बच्चियों की गुड्डा गुड्डी का खेल खेलने की होती है । पिता को यह बात समझनी चाहिए । पिता तो नासमझ निकला ।
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा लघुकथा, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
आपने इस लघुकथा के माध्यम से मानवी चरित्र को बेहद उम्दा तरीके से उजागर कर दिया.....समाज की हकीकत दर्शाती बढिया कथा..
ReplyDeleteइसका अप्रत्याशित और अनजाना मोड़ या अंत हमें विचलित कर देता है।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
अलाउद्दीन के शासनकाल में सस्ता भारत-१, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
अभिलाषा की तीव्रता एक समीक्षा आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!
उत्साही जी मेरी तंकन मे गलती के लिये मेरा ध्यान दिलवाने के लिये शुक्रिया। स्टेज पर कुछ कहना और उसे महसूस करना एक अलग बात है और अपने घर मे कोई समाज के खिलाफ निर्णय लेना अलग बात है क्या आपने कभी ऐसे लोग नहीं देखे जो प्यार के या किसी भी सोच के पक्के हिमायती हैं मगर जब बात अपने बच्चों पर आती है तो सब आदर्श धरे रह जाते हैं।अप क्या सोचते हैं जो ब्लागजगत मे भी प्यार पर बडी बडी रचनायें लिखते हैं या उन्हें सराहते हैं वो क्या अपने वास्त्विक जीवन मे अपने बच्चों को अपनी मर्जी करने देते हैं सभी नहीं संवेदनशील होना और अपने बच्चों के लिये सोचना दोनो अलग तरह की बातें करने वालों की कमी नही। बेशक लोग दहेज के खिलाफ इतने बडे बडी आलेख खिलते हैं लोगों को हतोत्साहित करते हैं लेकिन जब अपनी बारी आती है तो धडल्ले से ट्र्क भे कर ले जाते हैं। फिर आज कल ते ऐसे चेहरे हर जगह देखने को मिल जायेंगे। आज्कल के बच्चों को क्या नही पता? आज के बच्चे उम्र से पहले सब कुछ जानते हैं फिर बेटी ने तो भोलेपन से बात पूछी। ापका धन्यवाद अपना सुझाव देने के लिये। बाकी सब का भी शुक्रिया।
ReplyDeleteभाटिया जी ये लघु कथा है यहाँ बात सिर्फ इतनी कहनी है कि समाज और अपने घर के प्रति आदमी का व्यवहार हमेशा एक समान नही होता। यहाँ बात प्यार की नही है। आपने कहानी पढी और अपना मत दिया धन्यवाद।
नीरज जी आदमी के बाहर और अन्दर दो चेहरे भी होते हैं । संवेदनशील आदमी क्या अपने बच्चों कोअपनी मर्जी के खिलाफ जाने देगा? कभी नहीं। शायद आपने नही देखा हो मगर मैने बहुत से दोगले चेहरे देखे हैं। आपका बहुत बहुत धन्यवाद। मेरी हर रचना मेरे आस पास देखे गये और महसूस किये गये अनुभव पर आधारित होती है। मैं कोई बडी या स्थापित साहित्यकार नही। फिर भी आप लोगों का उत्साह पा कर लिख रही हूँ और लिखती रहूँगी। सब का धन्यवाद।
बहुत ही प्रभावशाली लघुकथा-----व्यक्ति के कहने और करने में बहुत फ़र्क है।
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई
ReplyDeleteकाश माँ-बाप ये समझ पाते की वो क्या गलती कर रहे हैं। बच्ची तो एक प्रश्न लेकर आई थी, मार खाकर हज़ारों उनुत्तरित प्रश्न मन में लेकर चली गयी।
ReplyDeleteउम्दा लघुकथा.............
ReplyDeleteबढ़िया पोस्ट !
आपने जो कहना चाहा और साथ ही सन्देश देना चाहा है वह बहुत ही स्पष्ट है ....अच्छी प्रस्तुति !!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteहमरी यह टिप्पणी आपका लघु कथा अऊर टिप्पणियों को मिलाकर है... अपने दुनों बड़े भाई नीरज जी अऊर उत्साही जी को काट रहे हैं हम.. श्याम बेनेगल के फिल्म मण्डी के सेट पर एक रोज़ क़ैफी आज़मी चले गए. शबाना मेक अप में उनके सामने चली आईं. उस फिल्म में शबाना एगो कोठेवाली का रोल अदा कर रही थीं अऊर श्याम जी के फिल्म में ठेठ कोठेवाली नज़र आ रही थीं. क़ैफी साहब शबाना को देखते हुए मुँह फेर लिए अऊर बोले, “मेरे सामने से हट जाओ. कोई भी बाप, बाप पहिले होता है, कम्युनिस्ट बाद में.”
ReplyDeleteसायद अब हमको अऊर कुछ कहने का जरूरत नहीं है.
सॉरी, मैं इस ज़बरदस्त कहानी को पढ़ने के लिए देर से आया...पहली बात तो इस कहानी पर उंगली उठाने से पहले फिक्शन और रिएल्टी का फर्क समझा जाना चाहिए...फिक्शन में नाटकीयता का पुट होता ही है...इसलिए अगर लघुकथा को उसी संदर्भ में लिया जाए तो बेहतर होगा...वैसे मैं दराल सर के विचार से सहमत हूं...निर्मला जी
ReplyDeleteआपका लेखन क्लाइमेक्स में झटका देता है, यही आपकी स्पेश्यिलेटी है...
जय हिंद...
Bahut bhadiya laghukatha vakai ek insaan ke alag alag rup hote hai ...sahi pahelu ukera hai aapane is laghukatha me
ReplyDeleteAabhar
किसी और का गला भी कटता हो तो आदमी को दर्द नहीं होता। अगर अपनी छाया पर भी पैर पड़ जाता है तो तिलमिलाने लगता है।
ReplyDeleteएक सार्थक संदेश देती हूई लघुकथा के लिए आभार
बहुत यथार्थपरक लघु कथा निर्मला दी ! आप सत्य कह रही हैं ! समाज में ऐसे मुखौटे चढ़ा कर रहने वाले दोहरे चरित्र और दोहरी मानसिकता वाले लोगों की कमी नहीं है ! अपने आस पास घर परिवार में ही मिल जायेंगे जो औरों के सामने बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और जब उनकी खुद की बारी आती है तो उनके सारे सिद्धांत और आदर्श एक ओर धरे रह जाते हैं !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, शानदार और प्रभावशाली लघुकथा प्रस्तुत किया है आपने ! सुन्दर सन्देश देती हुई उम्दा पोस्ट के लिए आभार!
ReplyDeleteSAMAAJ KAA ASLEE CHEHRA CHHUPA HAI
ReplyDeleteAAPKEE IS LAGHU KATHA MEIN.AAPNE
TO GAAGAR MEIN SAAGAR BHAR DIYA
HAI. SASHAKT LAGHU KATHA HAI.MEREE
BADHAAEE AUR SHUBH KAMNAAYEN
SWEEKAAR KIJIYEGA.
निर्मला जी आप हमारी आदरणीय हैं और हमेशा रहेंगी। आपकी लघुकथा इस बात में तो कम से कम सफल हुई कि उसके बहाने इतनी चर्चा हुई। लेकिन बहुत आदर के साथ कुछ बातें कहना चाहता हूं। इस टिप्पणी में जो विचार आपने व्यक्त किए हैं। वे बहुत उलझे हुए लगते हैं। लगता है आप एक दुविधा की स्थिति में हैं। अगर समाज में यह सब ही होना है तो फिर हम लोग तो केवल यहां मन बहलाने का काम कर रहे हैं,क्योंकि समाज को वैसे ही चलने देना चाहते हैं जैसा वह चल रहा है। हम बदलने के लिए कुछ नहीं करना चाहते।
ReplyDeleteऔरों की बात मैं नहीं जानता लेकिन मैं एक लेखक हूं और अपने लेखन और विचारों के माध्यम से जो है उसे बेहतर बनाना चाहता हूं।
आप सही कह रही हैं कि यहां प्रेम पर अद्भुत कविताएं लिखने वाले बहुत से लोग अपने जीवन में शायद प्रेम का नाम जानते भी नहीं होंगे। तो फिर हम उनकी रचनाओं पर वाह वाह करने पर क्यों तुले रहते हैं। यह ढोंग किसलिए। जारी.....
खुशदीप जी ने कहा कि फिक्शन और रियल्टी में फर्क होता है। सही बात है। पर यहां आप उसे लघुकथा कह रहे हैं सत्यकथा नहीं। लघुकथा फिक्श न होती है । निर्मला जी आप मुझसे बेहतर जानती हैं कि कहानी कल्पना में नहीं बनती। वह आती यथार्थ से ही है,हम उसमें कल्पना के तत्व जोड़ते हैं। अगर हम वास्तव में लेखक का दायित्व समझते हैं तो एक लेखक उसमें कल्पाना का वो पुट देता जिससे वह घटना औरों को गहरे तक प्रभावित करती है। पाठक के सामने एक सवाल खड़ा करती है।
ReplyDeleteअगर आपकी लघुकथा की बात करें तो वह हमें वहीं चौंकाती है जब बेटी अपने पिता से कहती है कि वह तो शादी करने से मना नहीं करेंगे ना। और रनबीर जैसे एक संवदेनशील पिता को वहां केवल निरुत्तर ही हो जाना है। लेकिन आप जब रनबीर से चांटा लगवा देतीं हैं तो एक निर्णय पर ही पहुंचा देती हैं। वहां पाठक के पास सोचने को कुछ बचता ही नहीं। केवल दो ही पक्ष हैं कि रनबीर ने ठीक किया या नहीं। जबकि निरुत्तर छोड़ देने पर पाठक के सामने भी एक सवाल होता है कि रनबीर क्या करेगा या उसे क्या करना चाहिए। जारी.....
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteऔर निर्मला जी आज के समय में जब आप खुद कह रही हैं आज के बच्चे सब कुछ जानते हैं तब तो यह बात और महत्वपूर्ण हो जाती है कि मां-बाप को उनकी बात को गंभीरता से लेना चाहिए। लेकिन क्या गंभीरता का मतलब है ऑनर किलिंग है या जो रनबीर ने किया वह है या कुछ और।
ReplyDeleteहो सकता है आप और बहुत सारे पाठक मेरी बात से अब भी सहमत न हों। लेकिन मेरी यह टिप्प णी तीन बातों के संदर्भ में है एक यह कि हमारी रचना प्रक्रिया क्या हो, दो कि उसका सामाजिक सरोकार क्या हो और तीसरी यह कि हम अपनी रचनाओं में यथार्थ को कैसे चित्रित करें।
चलते चलते मैं बताना चाहता हूं कि अपने घर में जैसा हूं वैसा ही समाज में हूं। मेरी शादी पच्चीस साल पहले हुई थी बिना किसी दहेज के। मेरी दो बहनों की शादी हुई बिना दहेज के। मेरे दो बेटे हैं। वे जो पढ़ना चाहते हैं पढ़ रहे हैं उन पर मेरा या मेरी पत्नी का कोई दवाब नहीं है कि तुम्हें यही करना है। मैं जात पात में विश्वास नहीं करता। इसलिए कम से कम अपने नाम से मैंने पिछले लगभग पैंतीस साल से जाति सूचक शब्द को हटा दिया है। मेरे अपने विचार मेरे हैं मैं उन्हें न तो किसी पर थोपता हूं और न हीं थोपना चाहता हूं। विचारों का आदान-प्रदान एक तार्किक प्रक्रिया है। अगर आप मेरे तर्क से सहमत हों तो मानें, न हों तो न मानें। औरों से भी यही अपेक्षा होती है कि वे भी तर्क सम्मत बात करें,केवल भावनाओं में बहकर नहीं।
आदर एवं शुभकामनाओं के साथ।
दोहरा व्यक्तित्व !!!
ReplyDeleteहमारे समाज के दोहरे मापदंड को छोटी सी लघुकथा में अच्छी तरह समजाय आपने ...!
ReplyDeleteआभार !
राजेश जी धन्यवाद आपने कहानी मे सुझाव दिये मगर मैने ऐसे दोहरे व्यक्तित्व अपने आस पास खूब देखे हैं अगर ऐसा न होता तो ये समाज आज जिस कगार पर खदा है खडा न रहता। समाज मे हर तरह के लोग रहते हैं सब मे आप एक जैसा व्यवहार नही देख सकते। कभी अप्र्त्याशित बात होती है तो अचानक गुस्सा आना कोई बडी बात नहीं। इस कहानी मे भी मैने दोहरे चेहरे वाले लोगों को नंगा किया है। मुझे बतायें जो फिल्मों मे मुन्नी बाई को देख कर झूमते हैं क्या वो अपनी बेटी या बहन को ऐसा करने पर ताली बजायेंगे?। धन्यवाद आशा है कि आप भविष्य मे भी इसी तरह अपनी प्रतिक्रिया देंगे। मैने जिस तक ये बात पहुँचानी थी पहुंच गयी बस मेरे लिये इतना ही काफी है। मेरी सभी कहानियां मेरे आस पास की है। उनमे कहीं भी कोई समाज से बाहर का चेहरा नहीं। धन्यवाद।
ReplyDeleteक्या विसंगति का चित्र आपने खींचा है। सचमुच इंसान के दो चेहरे हैं यही नहीं कई बार तो चेहरों की गिनती भी नहीं हो पाती। दशानन तक हैरान है।।बधाई।
ReplyDeleteवाह, मन को उद्वेलित करने वाली बेहतरीन लघुकथा।...बधाई।
ReplyDeleteSach Kahaa.............
ReplyDeleteDo chahre.........