गज़ल
इस गज़ल को भी ादरणीय प्राण भाई साहिब ने संवारा है । आखिरी 3-4 शेर बाद मे लिखे थे जिन्हें अनुज प्रकाश सिंह अर्श ने संवारा है। धन्यवादी हूँ।
गज़ल
दर्द अपने सुनाना नहीं चाहती
ज़ख्म दिल के दिखाना नहीं चाहती
अब न पूछो कि क्या साथ मेरे हुआ
मैं हकीकत बताना नहीं चाहती
मर्ज़ माना हुआ लाइलाज अब मगर
मैं दवा से दबाना नहीं चाहती
वो परिंदा उड़े तो कहीं भी उड़े
मैं जमीं पर गिराना नहीं चाहती
राह मे जो मिले सब मुद्दई मिले
अब उसी राह जाना नहीं चाहती
मौसमी फूल सा प्यार उसका है जी
प्यार उससे जताना नहीं चाहती
कौन बेबस नहीं इस जहाँ मे कहो
बेबसी मैं दिखाना नहीं चाहती
आँधियाँ जलजले और वो हादसे
क्या नहीं था बताना नहीं चाहती
चाहती हूँ, खुशी से कटे ज़िन्दगी
ग़म की महफ़िल में जाना नहीं चाहती
ज़ख्म दिल के दिखाना नहीं चाहती
अब न पूछो कि क्या साथ मेरे हुआ
मैं हकीकत बताना नहीं चाहती
मर्ज़ माना हुआ लाइलाज अब मगर
मैं दवा से दबाना नहीं चाहती
वो परिंदा उड़े तो कहीं भी उड़े
मैं जमीं पर गिराना नहीं चाहती
राह मे जो मिले सब मुद्दई मिले
अब उसी राह जाना नहीं चाहती
मौसमी फूल सा प्यार उसका है जी
प्यार उससे जताना नहीं चाहती
कौन बेबस नहीं इस जहाँ मे कहो
बेबसी मैं दिखाना नहीं चाहती
आँधियाँ जलजले और वो हादसे
क्या नहीं था बताना नहीं चाहती
चाहती हूँ, खुशी से कटे ज़िन्दगी
ग़म की महफ़िल में जाना नहीं चाहती
"कौन बेबस नहीं इस जहां में कहो ..."
ReplyDeleteबहुत खूब!
मम्मा.... बहुत सुंदर ग़ज़ल...वो परिंदा उडे.... मैं ज़मीन पे नहीं गिरना चाहती.. बहुत सुंदर पंक्तियाँ...
ReplyDeleteनोट: लखनऊ से बाहर होने की वजह से .... काफी दिनों तक नहीं आ पाया ....माफ़ी चाहता हूँ....
ab aap gazal ki bhi mahir ustaad ho gayeen hain maasi...
ReplyDeleteJai Hind...
बहुत ही उम्दा रचना!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लगा हर लफ्ज़ निर्मला जी शुक्रिया
ReplyDeleteआशीर्वाद रोज देती हैं, पर माँ हुनर कब सिखाएगी।
ReplyDeleteचैट रोज होती है, लेकिन आवाज माँ की कानों तलक कब आएगी।
वहाँ पर लगे, लिंक मेरे नहीं थे। सब अच्छे अच्छे इधर उधर से लगाए हैं, ताकि अच्छी चीजों को फैला सकूँ।
’वो परिंदे उड़ें तो कहीं भी उड़ें’
ReplyDeleteशानदार रचना , अच्छे भाव
मर्ज़ माना हुआ लाइलाज अब मगर
ReplyDeleteमैं दवा से दबाना नहीं चाहती
बहुत ही सुन्दर निर्मला जी, बस यूँ कहूँ कि लाजबाब !!!
बहुत ही सुन्दर शब्दों के साथ हर पंक्ति बेहतरीन बन पड़ी है 'वो परिंदे उड़े तो कहीं भी उड़े, अनुपम ।
ReplyDelete"कौन बेबस नहीं इस जहां में कहो......"
ReplyDeleteसभी शेर असर कर रहे हैं. बहुत अच्छा लगा.
har sher ek se badhkar ek hai..........jiski bhi tarif na karoon uske sath anyaay hoga......ek behtreen gazal.
ReplyDeleteबहुत उम्दा जी.
ReplyDeleteगजल बहुत सुन्दर बन पड़ी है!
ReplyDeleteनायाब
ReplyDelete---
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बहुत ही बेहतरीन रचना.
ReplyDeleteरामराम.
hum khud nahi chaahate ki aap gum ki mehfil mein kabhi jaayein!
ReplyDeleteचाहती हूँ, खुशी से कटे ज़िन्दगी
ReplyDeleteग़म की महफ़िल में जाना नहीं चाहती
लीजिये टिप्पणी हाजिर है -सुन्दर मनभावन गजल -रोज का रोना धोना भी क्या ?
बहुत सुन्दर .
ReplyDeletekrantidut.blogspot.com
सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDelete--------
घूँघट में रहने वाली इतिहास बनाने निकली हैं।
खाने पीने में लोग इतने पीछे हैं, पता नहीं था।
गम की महफिल में जाना नहीं चाहती। वाकई निर्मला जी इस उम्र में आकर सुकून भरी जिन्दगी की तलाश रहती है, इसलिए जहाँ गम हैं वहाँ जाने का मन नही करता। अच्छी गजल, बधाई।
ReplyDeleteबहुत उम्दा ग़ज़ल है.....ऐसे हों एहसास तो जिंदगी खुशनुमा गुजार जाती है....
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन रचना है।बधाई।
ReplyDeleteअब न पूछो क्या मेरे साथ हुवा ....
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब ...... सच के धरातल पर खड़ा है ये शेर ........ वैसे आपका लिखा हमेशा यथार्थ के दामन पर खड़ा नज़र आता है ..... लाजवाब ग़ज़ल है ........
बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
सुन्दर अतिसुन्दर.
ReplyDeleteजिन्दगी को एक नए नज़रिए से देखने की ताक़त देता है।
ReplyDeletesabhi sher umda lajawaab, badhaai.
ReplyDeleteबोले तो -बेहतरीन.
ReplyDeleteचाहती हूँ, खुशी से कटे ज़िन्दगी
ReplyDeleteग़म की महफ़िल में जाना नहीं चाहती
सुंदर सुंदर विचारों से सज़ा कर पेश किया है आपने यह बेहतरीन ग़ज़ल..मैं बहुत बहुत धन्यवाद कहता हूँ सभी को जिन्होने इस ग़ज़ल को सँवारा है परन्तु माता जी अलंकार से पहले भाव आते है जो निश्चित रूप से आपके अपने है जिन भावों ने ग़ज़ल में जान फूँक दी....मैं इस सुंदर भाव के लिए आपको धन्यवाद कहता हूँ और साथ ही साथ आगे भी ऐसे लाज़वाब ग़ज़लों की राह देख रहा हूँ....सादर प्रणाम
बहुत ख़ूबसूरत भाव और उनसे भी ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति | बहुत बहुत बधाई और आभार |
ReplyDeleteलाजवाब लगी माँ जी ।
ReplyDelete"कौन बेबस नहीं इस जहां में कहो......"
ReplyDeleteवो परिंदे उड़ें तो कहीं भी उड़ें.....
बहुत ही बढिया.....यूँ तो सारी गजल ही बेहतरीन बन पडी है लेकिन उपरोक्त ये दो पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी..
ये तो बहुत ही "बहुत ही" बढ़िया गजल निकल कर आई है और बहर भी कठिन रखी है आपने,, इस बार कुछ शेर ने तो लाजवाब कर दिया और बार बार दोहराने के लिए मजबूर भी
ReplyDeleteजैसे -
अब ना पूछो कि क्या साथ मेरे हुआ
मै हकीकत बताना नहीं चाहती
वाह क्या बात है
इस बार तरही मुशायरे में भी आपकी गजल बहुत पसंद आयी बधाई कबूल करिये
पूरी जिंदगी या यूँ कहें कविता का निचोड़ है ...
ReplyDeleteजिंदगी ख़ुशी से कट जाए ...ग़म की महफ़िल सजाये आपकी दुश्मन ....
सादर ...शुभकामनायें ....!!
चाहती हूँ, खुशी से कटे ज़िन्दगी
ReplyDeleteग़म की महफ़िल में जाना नहीं चाहती
kapila ji,
bahut hi sundar.Badhai!
behtareen
ReplyDeletebahut sunder rachana.........
ReplyDeleteBadhai
सुन्दर. आपके साथ प्राण जी को भी धन्यवाद.
ReplyDeleteaisi paripakv ghazalon se ek bat to spasht hai ki achchhe log jo bhi likhenge achchha hi likhenge.
ReplyDeletebahut pyari ghazal hui hai.
चाहती हूँ, खुशी से कटे ज़िन्दगी
ग़म की महफ़िल में जाना नहीं चाहती
ye sher to laajavab hai apni saafgoi ke karan.
maaf kariyega in dinon net par zyada aana jana nahin ho pa raha hai.
.... सुन्दर गजल, प्रसंशनीय !!!
ReplyDeletewah bahut umda gazel...her sher bahut mano himmat liye hue hai..mano khud ko samjhane ka ek bahut nayab tareeka...khas taur se ye sher ki...bebasi me dikhana nahi chaahti..wah...is par ek sher yaad aaya...
ReplyDeletemat dikha logo ko gam apne
log haatho me namak liye firte hai..
nirmala ji bahut bahut badhayi.
Anamika
http://anamika7577.blogspot.com/2010/02/blog-post.html
MATE BAHUT SUNDAR
ReplyDeleteचाहती ङूं खुशी से कटे जिंदगी
ReplyDeleteगम की महपिल में जाना नही चाहती ।
वाह ।