03 February, 2010

गज़ल
इस गज़ल को भी ादरणीय प्राण भाई साहिब ने संवारा है । आखिरी 3-4 शेर बाद मे लिखे थे जिन्हें  अनुज प्रकाश सिंह अर्श ने संवारा है। धन्यवादी हूँ।
गज़ल
दर्द अपने सुनाना नहीं चाहती
ज़ख्म दिल के दिखाना नहीं चाहती

अब न पूछो  कि क्या साथ मेरे हुआ
मैं  हकीकत बताना नहीं   चाहती

मर्ज़ माना हुआ लाइलाज अब मगर
मैं दवा से दबाना  नहीं   चाहती

वो परिंदा  उड़े  तो कहीं  भी   उड़े
मैं जमीं पर गिराना नहीं  चाहती

राह मे जो मिले सब मुद्दई मिले    
 अब उसी राह जाना नहीं चाहती      
           
 मौसमी फूल सा प्यार उसका है जी
 प्यार उससे जताना  नहीं चाहती
              
  कौन बेबस नहीं इस जहाँ मे कहो  
   बेबसी मैं दिखाना नहीं चाहती

आँधियाँ जलजले और वो हादसे
क्या नहीं था बताना नहीं चाहती

चाहती हूँ, खुशी  से कटे  ज़िन्दगी
ग़म की महफ़िल में जाना नहीं चाहती

43 comments:

  1. "कौन बेबस नहीं इस जहां में कहो ..."

    बहुत खूब!

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  2. मम्मा.... बहुत सुंदर ग़ज़ल...वो परिंदा उडे.... मैं ज़मीन पे नहीं गिरना चाहती.. बहुत सुंदर पंक्तियाँ...


    नोट: लखनऊ से बाहर होने की वजह से .... काफी दिनों तक नहीं आ पाया ....माफ़ी चाहता हूँ....

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  3. ab aap gazal ki bhi mahir ustaad ho gayeen hain maasi...
    Jai Hind...

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  4. बहुत ही उम्दा रचना!

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  5. बहुत सुन्दर लगा हर लफ्ज़ निर्मला जी शुक्रिया

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  6. आशीर्वाद रोज देती हैं, पर माँ हुनर कब सिखाएगी।
    चैट रोज होती है, लेकिन आवाज माँ की कानों तलक कब आएगी।



    वहाँ पर लगे, लिंक मेरे नहीं थे। सब अच्छे अच्छे इधर उधर से लगाए हैं, ताकि अच्छी चीजों को फैला सकूँ।

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  7. ’वो परिंदे उड़ें तो कहीं भी उड़ें’
    शानदार रचना , अच्छे भाव

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  8. मर्ज़ माना हुआ लाइलाज अब मगर
    मैं दवा से दबाना नहीं चाहती

    बहुत ही सुन्दर निर्मला जी, बस यूँ कहूँ कि लाजबाब !!!

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  9. बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों के साथ हर पंक्ति बेहतरीन बन पड़ी है 'वो परिंदे उड़े तो कहीं भी उड़े, अनुपम ।

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  10. "कौन बेबस नहीं इस जहां में कहो......"

    सभी शेर असर कर रहे हैं. बहुत अच्छा लगा.

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  11. har sher ek se badhkar ek hai..........jiski bhi tarif na karoon uske sath anyaay hoga......ek behtreen gazal.

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  12. बहुत ही बेहतरीन रचना.

    रामराम.

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  13. hum khud nahi chaahate ki aap gum ki mehfil mein kabhi jaayein!

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  14. चाहती हूँ, खुशी से कटे ज़िन्दगी
    ग़म की महफ़िल में जाना नहीं चाहती
    लीजिये टिप्पणी हाजिर है -सुन्दर मनभावन गजल -रोज का रोना धोना भी क्या ?

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  15. बहुत सुन्दर .
    krantidut.blogspot.com

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  16. गम की महफिल में जाना नहीं चाहती। वाकई निर्मला जी इस उम्र में आकर सुकून भरी जिन्‍दगी की तलाश रहती है, इसलिए जहाँ गम हैं वहाँ जाने का मन नही करता। अच्‍छी गजल, बधाई।

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  17. बहुत उम्दा ग़ज़ल है.....ऐसे हों एहसास तो जिंदगी खुशनुमा गुजार जाती है....

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  18. बहुत ही बेहतरीन रचना है।बधाई।

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  19. अब न पूछो क्या मेरे साथ हुवा ....
    बहुत ही लाजवाब ...... सच के धरातल पर खड़ा है ये शेर ........ वैसे आपका लिखा हमेशा यथार्थ के दामन पर खड़ा नज़र आता है ..... लाजवाब ग़ज़ल है ........

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  20. बहुत बढ़िया।
    घुघूती बासूती

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  21. जिन्दगी को एक नए नज़रिए से देखने की ताक़त देता है।

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  22. चाहती हूँ, खुशी से कटे ज़िन्दगी
    ग़म की महफ़िल में जाना नहीं चाहती

    सुंदर सुंदर विचारों से सज़ा कर पेश किया है आपने यह बेहतरीन ग़ज़ल..मैं बहुत बहुत धन्यवाद कहता हूँ सभी को जिन्होने इस ग़ज़ल को सँवारा है परन्तु माता जी अलंकार से पहले भाव आते है जो निश्चित रूप से आपके अपने है जिन भावों ने ग़ज़ल में जान फूँक दी....मैं इस सुंदर भाव के लिए आपको धन्यवाद कहता हूँ और साथ ही साथ आगे भी ऐसे लाज़वाब ग़ज़लों की राह देख रहा हूँ....सादर प्रणाम

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  23. बहुत ख़ूबसूरत भाव और उनसे भी ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति | बहुत बहुत बधाई और आभार |

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  24. लाजवाब लगी माँ जी ।

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  25. "कौन बेबस नहीं इस जहां में कहो......"
    वो परिंदे उड़ें तो कहीं भी उड़ें.....

    बहुत ही बढिया.....यूँ तो सारी गजल ही बेहतरीन बन पडी है लेकिन उपरोक्त ये दो पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी..

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  26. ये तो बहुत ही "बहुत ही" बढ़िया गजल निकल कर आई है और बहर भी कठिन रखी है आपने,, इस बार कुछ शेर ने तो लाजवाब कर दिया और बार बार दोहराने के लिए मजबूर भी

    जैसे -
    अब ना पूछो कि क्या साथ मेरे हुआ
    मै हकीकत बताना नहीं चाहती

    वाह क्या बात है


    इस बार तरही मुशायरे में भी आपकी गजल बहुत पसंद आयी बधाई कबूल करिये

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  27. पूरी जिंदगी या यूँ कहें कविता का निचोड़ है ...
    जिंदगी ख़ुशी से कट जाए ...ग़म की महफ़िल सजाये आपकी दुश्मन ....
    सादर ...शुभकामनायें ....!!

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  28. चाहती हूँ, खुशी से कटे ज़िन्दगी
    ग़म की महफ़िल में जाना नहीं चाहती
    kapila ji,
    bahut hi sundar.Badhai!

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  29. bahut sunder rachana.........
    Badhai

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  30. सुन्दर. आपके साथ प्राण जी को भी धन्यवाद.

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  31. aisi paripakv ghazalon se ek bat to spasht hai ki achchhe log jo bhi likhenge achchha hi likhenge.
    bahut pyari ghazal hui hai.
    चाहती हूँ, खुशी से कटे ज़िन्दगी
    ग़म की महफ़िल में जाना नहीं चाहती
    ye sher to laajavab hai apni saafgoi ke karan.
    maaf kariyega in dinon net par zyada aana jana nahin ho pa raha hai.

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  32. .... सुन्दर गजल, प्रसंशनीय !!!

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  33. wah bahut umda gazel...her sher bahut mano himmat liye hue hai..mano khud ko samjhane ka ek bahut nayab tareeka...khas taur se ye sher ki...bebasi me dikhana nahi chaahti..wah...is par ek sher yaad aaya...

    mat dikha logo ko gam apne
    log haatho me namak liye firte hai..

    nirmala ji bahut bahut badhayi.

    Anamika
    http://anamika7577.blogspot.com/2010/02/blog-post.html

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  34. चाहती ङूं खुशी से कटे जिंदगी
    गम की महपिल में जाना नही चाहती ।
    वाह ।

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आपकी प्रतिक्रिया ही मेरी प्रेरणा है।