26 September, 2009

आज कल कुछ व्यस्त हूँ मया लिख नहीं पा रही इसलिये एक पुरानी कविता ठेल रही हूँ कृप्या झेल ले।जहाँ सिर्फ मै हूँ

कितनी बेबस हो गयी हूँ
क्यों इतनी लाचार हो गयी हूँ
जब से गया है
वो काट कर् मेरे पँख्
बैठ गया आसमान पर
ले गया यशोधा होने का गर्व
जानती हूँ कभी नहीं आयेगा
कभी माँ नहीँ बुलायेगा
फिर भी खींचती रहती हूँ लकीर
जानते हुये कि
नहीं बदला करती तकदीर्
और ढूँढने लगती हूँ उधार के
कुछ और कृ्ष्ण
फिर सहम जाती हूँ
दहल जाती हूँ
कि आखिर कब तक
अपनी तृ्ष्णा को बहकाऊँगी
और जब वो भी खो जायेगा
दुनिया की भीड मे तो
क्या और दुख उठा पाऊँगी?
एक दिन उसे ना देख कर
सहम जाती हूँ
दहल जाती हूँ
बहुत डर गयी हूँ
इन उधार के रिश्तों से
मन मे एक् दहशत
इन को खो देने की
कहाँ कब बन पाये ये मेरे
क्यों पाले बैठी हूँ ये मृ्गत्रिश्णा
जानती हूँ मेरे नसीब मे
नहीं है इनका साथ
होता तो वो ज़िन्दा रहता
नहीं नहीं
मुझे इन तृ्ष्णाओं से
दूर जाना है बहुत दूर
और चली जा रही हूँ
अपने अंतस की गहराईयों मे
जहाँ बस मै हूँ
और मेरे जीवन का अंधकार है
कुछ भी तो नहीं उधार



34 comments:

  1. पुरानी ठेल भी मन को पसंद आई है . बहुत बढ़िया पुनः प्रस्तुति ....

    ReplyDelete
  2. "और चली जा रही हूँ
    अपने अंतस की गहराईयों मे
    जहाँ बस मै हूँ
    और मेरे जीवन का अंधकार है
    कुछ भी तो नहीं उधार "

    पुराने चावलों की सुगन्ध आ रही है।
    बहुत बधाई!

    ReplyDelete
  3. बेहद भावुकता लिए यह कविता,
    माँ,नारी के अंतर्मन को लेकर एक भाव पिरोती हुई..
    बहुत सुंदर कविता ...बधाई!!!

    ReplyDelete
  4. यशोदा मैया के पास जब कृष्‍ण नहीं थे तब उन्‍होंने उनके बाल रूप का पूजन प्रारम्‍भ किया था। वे उनकी मूर्ति का नहलाती थी, भोग लगाती थी, सुलाती थी और आज यह परम्‍परा में है। आपकी कविता इतनी सुन्‍दर है कि मेरे पास कोई शब्‍द नहीं है। रोज ही कविताएं पढते हैं लेकिन इसमे जो है, वह बहुत दिनों बाद मिला है। एक माँ प्रतिदिन कन्‍हैया ही तो खोजती है। निर्मला जी आपको बधाई।

    ReplyDelete
  5. Dhokha?
    :(
    kahani bolte ho aur kavita post karte ho?
    waise to poori kavita behterin hai par ye line mujhe pata nahi kyun khaas lagi... //aapko hansi bhi aa rahi hogi...
    एक दिन उसे ना देख कर सहम जाती हूँ...
    kisi ko dekh kar seham jaana...
    ...aur usi ka saar poori kavit main !!

    ReplyDelete
  6. बहुत सुंदर कविता .बहुत बधाई!

    ReplyDelete
  7. क्या कहूँ आपकी इस रचना के बारे मे शब्द ही नहीं मिल रहे है। अन्ततः यही कहना चाहूँगा आपकी ये रचना दिक तक उतर आयी।

    ReplyDelete
  8. वाह.. हमारे लिए तो यह कविता नई ही रही.. हैपी ब्लॉगिंग

    ReplyDelete
  9. पुराने अचार की तरह पुरानी कविता का भी अपना महत्व है। अच्छी है, बधाई।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

    ReplyDelete
  10. बहुत ही भावमय प्रस्‍तुति, आभार

    ReplyDelete
  11. nishabd ho gayi hun...........dard aur vedna ka athah sagar aur usmein itne gahre doob jana........kuch nhi kah sakti.ye sirf aap hi kar sakti hain.

    ReplyDelete
  12. बहुत सुंदर रचना है। माँ के दर्द को बहुत तीव्रता के साथ अभिव्यक्त किया है। आप न बताती तो हम तो इसे नयी ही समझते।

    ReplyDelete
  13. bilkul naee navelee lag rahee hai....bahut khoobsurat kavita hai

    ReplyDelete
  14. बहुत सुन्दर मैडम जी,
    हम पहली बार पड़ने वालों के लिए तो नयी ही है....
    बहुत पसंद आयी......
    धन्यवाद...

    ReplyDelete
  15. आप की यह कविता बेहद भावुकता लिये है, बहुत सुंदर.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  16. बहुत भावुक रचना, शुभकामनाएं.

    रामराम.

    ReplyDelete
  17. पढने के बाद मूँह से जो शब्द निकली वह यही है बस वाह ..........आपकी कविता धाराप्रवाह है मानो एक सुर मे आए खिचती चली गयी........

    बेहद खुब्सूरत अभिव्यक्ति!

    ReplyDelete
  18. bhavpurn sunder rachana,kabhi kabhi khud ke andhere mein khona bhi mann bhata hai.

    ReplyDelete
  19. अजी पुराने में भी नये का लुत्फ है..आनन्द आ गया इस भावपूर्ण प्रवाहमयी रचना को पढ़कर. बहुत बधाई.

    ReplyDelete
  20. नारी के अंतर्मन को आप बहुत सुन्दरता से पेश करती हैं ........... सुन्दर कविता है .........

    ReplyDelete
  21. निर्मला जी,

    दिल की गहराईयों से लिखे हुये जज्बात कभी पुराने नही होते हैं, जबा भी बयाँ होते है दिल छू लेते हैं, कुछ ऐसी ही है आपकी यह रचना।

    बहुत डर गयी हूँ
    इन उधार के रिश्तों से
    मन मे एक् दहशत
    इन को खो देने की

    सच एक इतना अच्छा प्रस्तुतीकरण, मन भीग गया।

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

    ReplyDelete
  22. मातृ पीडा को अभिव्यक्त करती हुई ये रचना बहुत ही सुन्दर बन पडी है.....
    जिसे हम बहुत ही अच्छे से झेल गये:))

    ReplyDelete
  23. नहीं नहीं
    मुझे इन तृ्ष्णाओं से
    दूर जाना है बहुत दूर
    और चली जा रही हूँ
    बेहद भावुक कर देने वाली और भावाभिव्यक्ति प्रदान करती रचना

    ReplyDelete
  24. nirmala ji, yah rachna to bahut dard saheje hai, ye nahin kahunga ki aapse iska sambandh hai, lekin itna zaroor kahoonga ye dard bina anubhav ke vyakt nahin kiya ja sakta. dil ko chhoo gai.

    ReplyDelete
  25. और चली जा रही हूँ
    अपने अंतस की गहराईयों मे
    जहाँ बस मै हूँ
    और मेरे जीवन का अंधकार है
    कुछ भी तो नहीं उधार "

    निर्मला जी , आपकी रचनाओं में काफी गहराई होती है ....और फिर कविता कभी पुराणी हुई है भला ....हर बार वह एक न्य अर्थ दे जाती है हमें .....!!

    ReplyDelete
  26. un sari mao ke dard ko abhivykt kar diya jo is dansh ko jhelti hai .
    old is gold.
    abhar

    ReplyDelete
  27. निर्मला जी, बहुत ही सुन्दर रचना|

    ReplyDelete
  28. बहुत ही गहरे भाव और अभिव्यक्ति के साथ लिखी हुई आपकी ये रचना बहुत अच्छी लगी! अत्यन्त सुंदर!

    ReplyDelete
  29. बहुत खूबसूरत रचना.. मुश्किल है टिप्पणी से बचना

    ReplyDelete
  30. shukria.

    veer bahuti ki khubsurat tasveeron
    ki tarah aapki puraani rachana bhi
    khubroo lagi.

    ReplyDelete
  31. कविता हमारे लिए नयी ही है ...यशोदा मैया के अतृप्त मातृत्व को शब्दों में व्यक्त करती भावपूर्ण कविता

    ReplyDelete

आपकी प्रतिक्रिया ही मेरी प्रेरणा है।