गज़ल
हाज़िर जी कह कर फिर गैर हाज़िर हो गयी जिसके लिये क्षमा चाहती हूँ । आप सब की दया से अब ठीक हूँ।एक आध घंटा रोज़ बैठने की कोशिश करूँगी। बहुत समय से कुछ लिखा भी नही है लगता है जैसे कुछ लिख ही नही पाऊँगी। एक हल्की सी गज़ल प्रस्तुत कर रही हूँ। --- हाँ कोई अगर बता सके तो बहुत आभारी हूँगी कि मेरे ब्लाग पर पोस्ट का कलर अपने आप बदल जाता है कमेन्त्स आदि का भी रंग बदल जाता है टेम्प्लेट भी बदला लेकिन अभी भी वही हाल है क्या कोई मेरी मदद कर सकता है?
गज़ल
आज रिश्ते कर गये फिर से किनारा
और कितना इम्तिहां होगा हमारा
ज़ख़्म उसने ही हमें बेशक दिये पर
आह जब निकली उसे ही फिर पुकारा
हम झुके दुनिया ने जितना भी झुकाया )
जान कर लोगों से सच खुद को सुधारा
कौन पोंछेगा ये आंसू बिन तुम्हारे
है घड़ी दुख की तुम्हीं कुछ दो सहारा )
दांव पर लगता रहा जीवन सदा ही )
मौत से जीता मगर तुमसे ही हारा )
मोह ममता के परिंदे उड़ गये सब )
किस तरह मां बाप का होगा गुज़ारा )
चल पड़ा है खुद अंधेरा सुब्ह लाने
दुख में समझो है ये कुदरत का इशारा
हाथ से अपने सजा दूं आज तुमको
लाके बिंदिया पर लगा दूं कोई तारा
चांदनी से जिस्म पर ये श्वेत चूनर
ज्यों किसी ने चांद धरती पर उतारा