अनन्त आकाश-- भाग-- 4
पिछली कडी मे आपने पढाकि मेरे घर के आँगन मे पेड पर कैसे चिडिया और चिडे का परिवार बढा और कैसे उन्हों ने अपने बच्चों के अंडों से निकलने से ले कर उनके बडे होने तक देख भाल की---- पक्षिओं मे भी बच्चों के लिये इस अनूठे प्यार को देख कर मुझे अपना अतीत याद आने लगता है। ब्च्चों को कैसे पढाया लिखाया ।वो विदेश चले गयी बडे ने वहीं शादी कर ली पिता पुत्र की नाराज़गी मे माँ कैसे पिस रही है--| बडे बेटे के बेटा हुया तो उसने कहा माँ आ जाओ हमे आपकी जरूरत है। मगर तब भी ये जाने को तैयार नही हुये। मन उदास रहने लगा।-- अब आगे पढें-----"राधा ऐसा करो तुम बेटे के पास हो आओ मै टिकेट बुक करवा देता हूँ। तुम्हारा मन बहल जायेगा। मगर मैं नही जाऊँगा।"
" अकेली? मै आपके बिना क्यों जाऊँ? नही नहीं।"
"मै मन से कह रहा हूँ। गुस्सा नही हूँ। बस मेरा मोह टूट चुका है और तुम अभी मोह त्याग नही पा रही हो। जानता हूँ वहाँ विदेशी बहु के पास भी अधिक दिन टिक नही पाओगी।इस लिये नही चाहता था कि तुम जाओ।।"
"सोचूँगी।" कह कर मै काम मे लग गयी।
रात भर सोचती रही-- इनकी बातें भी सही थी-- फिर क्या करूँ यही सोचते नींद आ गयी। कुछ दिन इसी तरह निकल गये। मगर कुछ भी निर्णय नही ले पाई। कई बार इन्हों ने पूछा भी मगर चुप रही
उस दिन ये सुबह काम पर चले गये और मै चाय का कप ले कर बरामदे मै बैठ गयी। चिडिया के बच्चे अब चिडिया के बच्चे उडने लगे थे मगर दूर तक नही जाते। चिडिया उनके पास रहती और चिदा अकेला दाना चुगने जाता था। कितना खुश है ये परिवार फिर अपना ही क्यों बिखर गया। सोचते हुये आँख भर आयी।्रात को ये खाना खा रहे थे---
"देखो राधा मै मन से कह रहा हूँ तुम चली जाओ। मेरी चिन्ता मत करो। मै कोई न कोई इन्तजाम कर लूँगा। न हुया तो कुछ दिन की बात है मै़ ढाबे मे खा लूँगा। आज सोच कर मुझे बता देना कल टिकेट बुक करवा दूँगा।"
मै फिर कुछ न बोली। रात भर सोचती रही। सोच मे चिडिया का घोंसला आ जाता-- चिडिया कैसे घोंसले के पास बैठी रहती--- देखते देखते बच्चे फुदकने लगे हैं---चिडिया उन्हें चोंच मारना खाना और उडना सिखाती----धीरे धीरे जब वो पँख फैलाते तो चिडिया खुश होती--- हम भी ऐसे ही उनको बढते पढते देख कर खुश होते थे----- अब मुझे लगता कि चिडिया की खुशी मे एक पीडा भी थी-- अब उडने लगे हैं --- हमे छोड कर चले जायेंगे-----
आज वही पीडा सामने आ रही थी---
आज मैने देखा चिडा चिडिया और बच्चे इकट्ठे बैठे हुये हैं----चोंच से चोंच मिला कर बात कर रहे हैं--- "चीँ चेँ चीं" चिडिया चिडे की आवाज़ मे उदासी थी।
" चीं चेँ चेँ" मगर बच्चों की आवाज मे जोश था--और उसी जोश से वो उड गये दूर गगन मे---
"चाँ चाँ चाँ----- बच्चो हम इन्तजार करेंगे लौट आना।" चिडिया की आवाज़ रुँध गयी थी। दोनो उदास ,सारा दिन कुछ नही खाया।मौसम बदल गया था प्रवासी पक्षियों का आना भी सतलुज के किनारे होने लगा था। गोविन्द सागर झील के किनारों पर रोनक बढ गयी थी।
थोडी देर बाद चिडा चिडिया की चोंच से चोंच मिला कर चीँ चेँ चेँ कर रहा था---
"चीँ चीं चीं --रानी ऐसा कब तक चलेगा?बच्चे कब तक हमसे चिपके रहते? आखिर हम भी तो ऐसे ही उड आये थे। उनका अपना संसार है उन्हें भी हमारी तरह अपना घर बसाना है-- जो सब के साथ होता है वही अपने साथ हुया है। चलो सतलुज के किनारे चलते हैं। दूर दूर से हमारे भाई बहिन आये हैं उनका दुख सुख सुनते है।।" चिडे ने प्यार से चिडीया के परों को चोंच से सहलाया और दोनो सागर किनारे उड गये।
हाँ ठीक ही बात है-- सारा देश अपना है लोग अपने हैं बस सोच कर उन्हें प्यार से अपनाने की बात है---
मेरे भी आँसू निकल गये थे पोंछ् कर सोचा कि यही संसार का नियम है तो फिर क्यों इतना मोह? आखिर कब तक बच्चे हमारे पल्लू से बन्धे रहेगे। आज कल नौकरियाँ भी ऐसी हैं कहां कहाँ उनके साथ भागते फिरेंगे?। चिडे चिडिया ने जीवन का सच सिखा दिया था।मुझे भी रिटायरमेन्ट के बाद जीने का रास्ता मिल गया था।
सुबह जब नाश्ता कर के बस्ती मे जाने के लिये तैयार हुये तो मैं बोल पडी--
" मुझे भी अपने साथ ले चलें।"
"क्या सच?" इन्हें सहज ही विश्वास नहीं हुया। इनकी खुशी का ठिकाना नही था। इनकी आँखों मे संतोश की झलक देख कर खुशी से हुयी । बच्चों के मोह मे हम दोनो के बीच एक दूरी सी आ गयी थी -- आज उस दूरी को पाट कर हम दोनो एक हो गये थे--- मैं भी चिडिया की तरह उडी जा रही थी इनके साथ अनन्त आकाश की ओर---। समाप्त