संजीवनी { कहानी }
जैसे ही मानवी आफिस मे आकर बैठी ,उसकी नज़र अपनी टेबल पर पडी डाक पर टिक गयी। डाक प्रतिदिन उसके आने से पहले ही उसकी टेबल पर पहुँच जाती थीपर वो बाकी आवश्यक काम निपटाने के बाद ही डाक देखती थी। आज बरबस ही उसकी नज़र एक सफेद लिफाफे पर टिक गयी जो सब से उपर पडा था।उसके एक कोने पर भेजने वाले के स्थान पर *वी* लिखा था। पहचान गयी,पत्र विकल्प का था। क्या लिखा होगा इस पत्र मे?वो सोच मे पड गयी। कभी पत्र लिखता नहीं है । टेलीफोन पर बात कर लेता है। अब तो चार महीने से न टेलीफोन किया और न ही घर आया । पीछली बार भी एक दिन के लिये आया था और बहस कर चला गया। शायद मुझ पर रहम खाने आया था। सुधाँशू की मौत के बाद अकेली जो हो गयी हूँण ! मुझ से नौकरी छुदवा कर साथ चलने के लिये कह रहा था। हुउउ ! महज औपचारिकता ! जब मुझे मान सम्मान नहीं दे सकता, मेरी हर बात उसे बुरी लगती है-- तो फिर साथ रखने की औपचारिकता कैसी? जैसे ही उसने लिफाफा खोला उस मे से एक और लिफाफा निकला जिस पर लिखा था कि इसे घर जा कर फुरसत मे पढें।
मानवी ने लिफाफा पर्स मे रख लिया मगर दिमाग मे हलचल थी कि पता नहीं इस लिफाफे मे ऐसा क्या है जो फुरसत मे पढने वाला है। एक क्षण के लिये सोचा कि आज कोई काम न कर के पत्र पढा जयी मगर उसी क्षण उसने अपना ईरादा बदल लिया। अपने काम और करियर से बढ कर उसके लिये उसके लिये कुछ मायने नहीं रखता था।तभी तो आज वो कम्पनी की एम डी बनी। ये पत्र तो छोटी सी चीज़ है अपने करियर के लिये उसे अगर विकल्प को भी छोडना पडे तो छोड देगी।
आजकल क्या मायने हैं औलाद के? बच्चे कहाँ माँ बाप का बुढापे मे ध्यान रखते हैं। वो क्यों किसी की परवाह करे। इन्हीं सोचों मे वो अपना काम करने लगी। मानवी ने अपने व्यक्तित्व और अपनी मान्यताओं से एक कदम भी आगे सोचना सीखा ही नहीं था। जीवन मे उसे सब कुछ सहज ही मिला। आधुनिकता और धन दौलत की पिपासा ने उसे संवेदनाओं से दूर कर दिया था। कागज़ के फूलों की तरह थी वो। जीवन के छोटे छोटे मीठे पल. रिश्तों की महक, ज़िन्दगी की मुस्कान सब कुछ उसकी दफ्तर की फाईलों मे गुम हो कर रह गया था। यूँ भी सुधाँशू की मौत के बाद काम के सिवा और रह भी क्या गया था उसकी ज़िन्दगी मे।अब विकल्प भी दूर होता जा रहा है। उसकी हर बात का विपरीत अर्थ लेता है।जैसे उसका विरोध करना ही विकल्प का एक मात्र ध्येय हो। वो सोचती के अपना -- अपना ही होता है! विकल्प उसका नहीं हो सकता। क्या नहीं दिया उन्होंने विकल्प को? इतना बडा घर बार ऐशो आराम की ज़िन्दगी-- हमारे काराण ही तो वो आई. ए. एस . बन पाया है। नहीं तो उसे जन्म देने वाली गरीब औरत उसकी सरकारी स्कूल की फीस भी नहीं दे पाती। सुधाँशू से उसे फिर भी लगाव था।उसका अपना बेटा जो था। तभी पिता की मौत के बाद उसने घर आना भी छोड दिया था।
पी. ए के अन्दर आते ही वो सतर्क हो गयी और अपना काम निपटाने लगी।
पाँच बजे अचानक उसे पर्स मे पडे लिफाफे की याद आयी। मन कुछ बेचैन सा हो गया। पता नहीं शायद सुधाँशू के बाद वो मानसिक तौर पर कुछ कमज़ोर हो गयी है--- क्यों बेचैन है वो पत्र पढने के लिये? वो सात बजे से पहले कभी आफिस से नहीं निकलती थी--- आज पाँच बजे ही उसने पर्स उठाया और आ कर गाडी मे बैठ गयी। पिछली सीट पर बैठते ही उसका मन हुया कि पत्र खोल ले मगर कुछ सोच कर वो रुक गयी। पता नहीं पत्र मे क्या होगा---- कही ड्राईवर ने शीशे मे से उसके चेहरे के भावों को पढ लिया तो? नहीं---- नहीं --।
जैसे ही वो घर का दरवाज़ा खोल कर अन्दर पहुँची बाहर सर्वेन्ट रूम से उसे देख कर बाई भी आ गयी।----
"मेम साहिब् , चाय बना लाऊँ।"
"हाँ चाय बना कर यहाँ रख दो और तुम जाओ। आज खाना बाहर से फोन कर के मंगवा लूँगी।" कह कर वो टायलेट मे चली गयी
चाय रख कर बाई चली गयी। मानसी ने दरवाज़ा अन्दर से बन्द किया और बेड रूम मे पत्र ले कर बैठ गयी। पत्र खोला
"माँ"
चरण स्पर्श।
माँ लिखते हुये पता नहीं क्यों आँखें नम हो रही हैं और हैरत भी हो रही है।--- क्रमश:
जैसे ही मानवी आफिस मे आकर बैठी ,उसकी नज़र अपनी टेबल पर पडी डाक पर टिक गयी। डाक प्रतिदिन उसके आने से पहले ही उसकी टेबल पर पहुँच जाती थीपर वो बाकी आवश्यक काम निपटाने के बाद ही डाक देखती थी। आज बरबस ही उसकी नज़र एक सफेद लिफाफे पर टिक गयी जो सब से उपर पडा था।उसके एक कोने पर भेजने वाले के स्थान पर *वी* लिखा था। पहचान गयी,पत्र विकल्प का था। क्या लिखा होगा इस पत्र मे?वो सोच मे पड गयी। कभी पत्र लिखता नहीं है । टेलीफोन पर बात कर लेता है। अब तो चार महीने से न टेलीफोन किया और न ही घर आया । पीछली बार भी एक दिन के लिये आया था और बहस कर चला गया। शायद मुझ पर रहम खाने आया था। सुधाँशू की मौत के बाद अकेली जो हो गयी हूँण ! मुझ से नौकरी छुदवा कर साथ चलने के लिये कह रहा था। हुउउ ! महज औपचारिकता ! जब मुझे मान सम्मान नहीं दे सकता, मेरी हर बात उसे बुरी लगती है-- तो फिर साथ रखने की औपचारिकता कैसी? जैसे ही उसने लिफाफा खोला उस मे से एक और लिफाफा निकला जिस पर लिखा था कि इसे घर जा कर फुरसत मे पढें।
मानवी ने लिफाफा पर्स मे रख लिया मगर दिमाग मे हलचल थी कि पता नहीं इस लिफाफे मे ऐसा क्या है जो फुरसत मे पढने वाला है। एक क्षण के लिये सोचा कि आज कोई काम न कर के पत्र पढा जयी मगर उसी क्षण उसने अपना ईरादा बदल लिया। अपने काम और करियर से बढ कर उसके लिये उसके लिये कुछ मायने नहीं रखता था।तभी तो आज वो कम्पनी की एम डी बनी। ये पत्र तो छोटी सी चीज़ है अपने करियर के लिये उसे अगर विकल्प को भी छोडना पडे तो छोड देगी।
आजकल क्या मायने हैं औलाद के? बच्चे कहाँ माँ बाप का बुढापे मे ध्यान रखते हैं। वो क्यों किसी की परवाह करे। इन्हीं सोचों मे वो अपना काम करने लगी। मानवी ने अपने व्यक्तित्व और अपनी मान्यताओं से एक कदम भी आगे सोचना सीखा ही नहीं था। जीवन मे उसे सब कुछ सहज ही मिला। आधुनिकता और धन दौलत की पिपासा ने उसे संवेदनाओं से दूर कर दिया था। कागज़ के फूलों की तरह थी वो। जीवन के छोटे छोटे मीठे पल. रिश्तों की महक, ज़िन्दगी की मुस्कान सब कुछ उसकी दफ्तर की फाईलों मे गुम हो कर रह गया था। यूँ भी सुधाँशू की मौत के बाद काम के सिवा और रह भी क्या गया था उसकी ज़िन्दगी मे।अब विकल्प भी दूर होता जा रहा है। उसकी हर बात का विपरीत अर्थ लेता है।जैसे उसका विरोध करना ही विकल्प का एक मात्र ध्येय हो। वो सोचती के अपना -- अपना ही होता है! विकल्प उसका नहीं हो सकता। क्या नहीं दिया उन्होंने विकल्प को? इतना बडा घर बार ऐशो आराम की ज़िन्दगी-- हमारे काराण ही तो वो आई. ए. एस . बन पाया है। नहीं तो उसे जन्म देने वाली गरीब औरत उसकी सरकारी स्कूल की फीस भी नहीं दे पाती। सुधाँशू से उसे फिर भी लगाव था।उसका अपना बेटा जो था। तभी पिता की मौत के बाद उसने घर आना भी छोड दिया था।
पी. ए के अन्दर आते ही वो सतर्क हो गयी और अपना काम निपटाने लगी।
पाँच बजे अचानक उसे पर्स मे पडे लिफाफे की याद आयी। मन कुछ बेचैन सा हो गया। पता नहीं शायद सुधाँशू के बाद वो मानसिक तौर पर कुछ कमज़ोर हो गयी है--- क्यों बेचैन है वो पत्र पढने के लिये? वो सात बजे से पहले कभी आफिस से नहीं निकलती थी--- आज पाँच बजे ही उसने पर्स उठाया और आ कर गाडी मे बैठ गयी। पिछली सीट पर बैठते ही उसका मन हुया कि पत्र खोल ले मगर कुछ सोच कर वो रुक गयी। पता नहीं पत्र मे क्या होगा---- कही ड्राईवर ने शीशे मे से उसके चेहरे के भावों को पढ लिया तो? नहीं---- नहीं --।
जैसे ही वो घर का दरवाज़ा खोल कर अन्दर पहुँची बाहर सर्वेन्ट रूम से उसे देख कर बाई भी आ गयी।----
"मेम साहिब् , चाय बना लाऊँ।"
"हाँ चाय बना कर यहाँ रख दो और तुम जाओ। आज खाना बाहर से फोन कर के मंगवा लूँगी।" कह कर वो टायलेट मे चली गयी
चाय रख कर बाई चली गयी। मानसी ने दरवाज़ा अन्दर से बन्द किया और बेड रूम मे पत्र ले कर बैठ गयी। पत्र खोला
"माँ"
चरण स्पर्श।
माँ लिखते हुये पता नहीं क्यों आँखें नम हो रही हैं और हैरत भी हो रही है।--- क्रमश: