03 September, 2009

संवेदनाओं के झरोखे से--संस्मरण--4

नौकरी छोडने की बात मन मे घर करने लगी थी। अगले दिनो मे भी बहुत कुछ देखा मगर वही दीदी की बात कि धीरे धीरे सब ठीक हो जायेगा । 10 --15 दिन ऐसे ही निकल गये।इस संस्मरण को लिखना तो नहीं चाहती थी मगर इसे लिखने का मकसद इतना है कि सेहत विभाग वालों के प्रति एक आम भावना होती है कि ये लोग बहुत बेशर्म या खुले विचारों के होते हैं या इनकी भाशा को ले कर कई चुटकुले घडे जाते हैं । उस समय भी लडकियों को नर्स का कोर्स करवाना बडे बडे घरों मे सम्मान की नज़र से नहीं देखा जाता था। मुझे भी इस कोर्स के लिये पिता जी मान नहीं रहे थे मगर मेरा बडा भाई अमृतसर मेडिकल कालेज मे ही MBBSकर रहा था जब मुझे MBBSमे दाखिला नहीं मिला तो उसने फार्मेसी करने के लिये पिता जी को मना लिया कि इस मे नर्सों जैसा काम नहीं होता बस दवाओं से ही वास्ता रहता है। इस लिये पिताजी मान गये थे।

मगर इस अस्पताल मे हर जगह डयूटी करनी पडती थी । और हर तरह का काम भी जो मुझे अच्छा नहीं लगता था।मैं बहुत शर्मीली और सीधी सादी लडकी थी। एक दिन एमर्जेन्सी मे केस आया । एक बज़ुर्ग को बैल ने मारा था उसके जननेन्द्री पर बहुत बडा घाव् हो गया जहाँ टाँके लगने थे । जैसे ही डाक्टर साहिब उसे देखने लगे मैं बाहर आ गयी। उनके पास वार्ड अटेन्डेट तो था ही। तभी डा़ साहिब ने मुझे बुलाया और गुस्से मे बोले कि तुम्हारी डयूटी यहाँ है बाहर क्या कर रही ह। तुम्हें पता नहीं कि स्टिचिन्ग करनी है। मैने कहा कि मुझे अभी अच्छी तरह स्टिचिन्ग नहीं आती। तो बोले कि असिस्ट तो करवाना है ।-- तुम्हें ये समझ लेना चाहिये कि यहाँ हम स्त्रि या पुरुष नहीं होते केवल डाक्टर होते हैं जिन्हें बस मरीज का इलाज करना होता है। चलो स्टिच का सामान लाओ। काँपते हाथों से केस असिस्ट करवाया अपने से भी अधिक तरस उस बज़ुर्ग पर आ रहा था जो आँखों पर हाथ रखे स्टिच लगवा रहा था । उस दिन तो पक्का ही सोच लिया कि अब ये सब मेरे बस का नहीं । दीदी ने पूछा कि क्या हुआ है तो मैने बता दिया वो फिर हँसने लगी ---- बस इतनी सी बात? तो इसमे क्या हो गया । ये तो हमारा काम है । तुम नयी हो ना धीरे धीरे सब ठीक हो जयेगा। अब इसमे ठीक होने जैसी क्या बात थी। समझ नहीं आया। आखिर शर्म हया भी तो कोई चीज़ होती है। सच मे ही ये लोग बहुत बेशर्म होते हैं।

दो चार दिन फिर ऐसे ही निकल गये। मेरा मन बिलकुल काम मे नहीं लगता था । मैने दीदी से कहा कि अगर धीरे धीरे सब ठीक ही हो जाना है तो फिर अभी मेरी डयूटी एमर्जेन्सी मे मत लगाओ जब सब ठीक हो जायेगा तब लगा देना। शायद दीदी को मुझ पर तरस आ गया उन्होंने मेरी डयूटी ापने वाले मेडिसिन के काऊँटर पर लगा दी । साथ मे दूसरी फार्मासिस्ट भी थी। वहां का महौल ऐसा था कि कई बा र्दीदी की कोई सहेली आ कर बैठ जाती आपस मे खुल कर बातें करती मुझे वो भी अच्छा नहीं लगता दीदी को इतना तो ध्यान करना चाहिये कि मैं एक अविवाहित लडकी उनके पास बैठी हूँ मगर उनके लिये ये सब बातें आम थी।बिमारी के बारे मे प्रेग्नेन्सी के बारे मे डिलिवरी के बारे मे। इतनी भी बेशर्मी क्या कि आप ये भी ना देखो कि किस के सामने बात करनी है। बाहर इतने लोग खडे होते हैं,कई बातें उनके कान मे भी पडती रहती। अब धीरे धीरे समझ आने लगा था कि इन लोगों का ये रोज़ का काम है इन्हें ना तो ये शर्म की बात लगती है, ना बुरा लगता है। अब बिमार औरतें इनके पास आयेंगी तो ऐसी ही बातें करेंगी। सोचा कि चलो देखा जायेगा जब तक चलता है काम करे जाती हूँ।

एक दिन अपनी भाभी से मैने ऐसे ही मज़ाक मे कुछ कह दिया उनकी प्रेग नेन्सी के बारे मे वो तो मेरे मुह की तरफ देखने लगी--- तुम्हें क्या हो गया आगे तो तुम ऐसी बातें नहीं करती थी । मुझे एक दम झटका लगा ये सब धीरे धीरे का असर था शायद। दो तीन महीने मे मुझे कुछ सहज सा लगने लगा, जो बातें सुन देख कर मुझे गुस्सा आता था वो अब तटस्थ भाव से देख सुन लेती। कई बार सोचती कि अब मुझे गुस्सा क्यों नहीं आता दीदी की बातों पर। शायद अब मैं भी बदल रही थी। उसके बाद कई मौतें हुई एमर्जेन्सी मे । रोने की आवाज़ सुनती तो मन मे दुख तो होता मगर उस तरह से रोना नहीं आता जैसे कि पहले पहले आता था। फिर भी मरीज के रिश्तेदारों को ढाडस बन्धवाना आदि से अपने को रोक नहीं पाती। मगर अब लगने लगा था कि धीरे धीरे कोई चीज़ जरूर है जो इन्सान को पत्थर बना देती है, शायद मैं भी पत्थर बन जाऊँगी ---सब की तरह---
मैं धीरी धीरे कैसे बदल रही हूँ ।

जब ये संस्मरण लिखना शुरू किया था तो लगता था कि छोटा सा ही है म तब इतना ही बताना चाहती थी कि आदमी एक ही जगह एक ही काम करते हुये कैसे उस काम के प्रति और वातावरण के प्रति संवेदनहीन हो जाता है ।मगर अब मुझे लगता है कि जब तक मैं सभी हालात का वर्णन नहीं करूँगी तब तक कैसे समझ आयेगा कि इन्सान को अपने अन्दर आ रहे बदलाव का क्यों पता नहीं चलता। दूसरी बात कि अस्पताल वालों को सब गालियां ही निकालते हैं, कोई उनकी मुश्किलों को क्यों नही समझता । ऐसी बात भी नहीं कि सभी जगह सभी लोग एक जैसे ही होते हैं कई वहाँ भी अच्छी बुरे दोनो तरह के लोग होते हैं मगर ऐसे तो सब जगह ही होते हैं फिर भी अस्पताल वालों की मुश्किलें कोई नही समझता । मेरा अपने लोगों के प्रति दायित्व भी बनता है कि मैं उनकी समस्या को सब के सामने रखूँ ।इस लिये इस आलेख की श्रिंखला को बढाना पडा। शायद आप लोग अच्छे से झील रहे हैं मुझे, इस बात का भी फायदा उठाना चाहती हूँ । सही है या नहीं ये आप बतायें मगर अभी मेर सफर जारी है--- मैं कैसे धीरे धीरे के प्रभाव मे आयी और कैसे निकली। एक सीधी सादी संवेदनशील लडकी कुछ समय के लिये कैसे संवेदनहीन सी बन गयी थी। मगर वो संवेदनहीनता भी नहीं कही जा सकती क्यों कि काम करते हुये खुद को डरपोक या मैदान छोड कर भाग जाने वाली कहलाना भी मुझे अच्छा नहीं लगता था। फिर ऐसे अवसरों पर पिता जी का प्रोत्साहन तो मिलता ही था।

उस दिन कुछ गर्मी अधिक थी। 10 बजते बजते आकाश पर बादल छाने लगे थे। मेरी डय़ूटी एमर्जेन्सी मे थी । साथ मे एक लेडी डाक्टर की डयूटी भी थी। मगर चाय का टाईम भी होने वाला था, तो हम सब लोग OPD मे इकठे हो जाते। डाक्टर कहने लगी कि आज मौसम अच्छा हो रहा है समोसे मगवा लेते हैं। किसी को समोसे लेने भेज दिया। देखते देखते आसमान काला होने लगा। कई मरीज बिना दवा लिये घर भागने लगे। डाक्टर ने बाहर बरामदे मे अपनी कुर्सी रखवा ली और हम लोग भी मौसम का आनन्द लेने लगे।नंगल शहर को नहरों और पहाडों का शहर कहा जाता अस्पताल के सामने पहाड और हरियाली देखते ही बनती है। एक दम ऐसा लगने लगा जैसे रात हो गयी है मन मे हम लोग डर भी गये थे कि बहुत बडा तुफान आने वाला है। OPD पोरी तरह मरीज़ों से खाली हो गयी। शायद डाक्टर ने हमारे तनाव को भाँप लिया था| उन्होंने अचानक हमे एक गीत सुनाना शुरू कर दिया। उनकी आवाज़ इतनी सुरीली थी कि हम लोग उसमे खो गये।

------- क्रमश :

28 comments:

  1. "शायद डाक्टर ने हमारे तनाव को भाँप लिया था| उन्होंने अचानक हमे एक गीत सुनाना शुरू कर दिया। उनकी आवाज़ इतनी सुरीली थी कि हम लोग उसमे खो गये।------- "

    संस्मरण रोचक है।
    अगली कड़ी का इन्तजार!

    ReplyDelete
  2. निर्मलाजी जितना आपका दिल खूबसूरत हैं, उतना ही संस्मरण भी...किसी ने खूब कहा है- ज़िंदगी लंबी नहीं बड़ी होनी चाहिए...आपके आशीर्वाद का हमेशा मान रखने की कोशिश करुंगा

    ReplyDelete
  3. निर्मला जी, बड़े लोग बहुत बातें सोचते है.परन्तु नर्स जो बेसहारा और बीमार लोगो को सहारा देती है एक देवी से कम नही होती अगर डॉक्टर को हम भगवान मानते है तो नर्स देवी का अवतार हुई.
    दूसरो की सेवा करना सबसे बड़ा परोपकार है...

    ReplyDelete
  4. निर्मला जी,संस्मरण बहुत यादें पिरोए है..कभी भावुकता और कभी प्रेम के बेहतरीन पलों को दर्शाता है..

    बधाई...हो!!
    अगली कड़ी का इन्तजार!

    ReplyDelete
  5. भाई हमें तो ये संस्मरण पढना अच्छा लग रहा है किसी को लगे ना लगे

    ReplyDelete
  6. बहुत खुब,.....अगली कड़ी का इन्तजार!

    ReplyDelete
  7. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति, बस आपकी लेखनी यूं ही सजीव चित्रण प्रस्‍तुत करती रहे, अगली कड़ी की प्रतीक्षा के साथ आभार.

    ReplyDelete
  8. bahut hi achche dhang se bhavnayein ukerti hain aap.........aapko padhna achcha lagta hai.......agli kadi ka intzaar........

    ReplyDelete
  9. apne kartavy ko pramukhta dena samvanheenta nahi hai .... mera aisaa maanna hai .... kabhi kabhi aur is peshe mein khas kar kartavy ko saamne rakhna hi jyaada uchit hai .... na ki kamjor samvedna dikhlaana ..... aapka sansmaran behad dilchasp hai ... agli kadi ka intezaar rahega ...

    ReplyDelete
  10. आप संवेदनशीलता में उलझ कर रह गई हैं। यह संवेदनहीन होना नहीं है अपितु अधिक संवेदनशील हो जाना है। एक दुखी व्यक्ति को देख कर दुखी हो कर रो देना संवेदनशीलता का छोटा स्तर है और उस के दुःख को दूर करने के प्रयत्न में जुट जाना संवेदनशीलता का उच्च स्तर।

    ReplyDelete
  11. अपने आस पास घटती चीजो को सब देखते है ...उनमे से अर्थ ढूंढ़ना ओर आगे जिंदगी के करीनो में उसे कौन सी जगह देना ...यही संवेदना है....जो जब तक रहेगी ....आदमी आदमी रहेगा

    ReplyDelete
  12. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  13. निर्मला जी .....मै क्या कहू यह सफर बहुत ही अनुभव और सम्वेदनाओ से भरा पडा है .....जो हमे एक अलग अनुभव से परिपूर्ण कर रहा है ........बेहद खुबसूरती से आप बयान कर रही है ....बहुत बहुत शुभकामनाये

    ReplyDelete
  14. निर्मला जी.... क्या कहुं आप का संस्मरण पढ कर पुराने दिन याद आ गये...
    जब मेरा बेटा अस्पताल मे था, जब भी मिलने जाते उस के रोने की आवाज सुन कर बेहाल हो जाते, डा ओर नर्सो को मन ही मन गालिया देते थे, लेकिन फ़िर करीब एक महीना मेरा बेटा वहा रहा, ओर मेने उन सब को देखा समझा, फ़िर मै गया कई बार अस्पताल.... ओर आज मै इन्हे भगवान मानता हुं, नर्सो ओर डा का काम आसान नही, लेकिन इन मै भी भावानाये है इन के दिल मै भी दर्द देखा है, लेकिन इन्हे पत्थर बनाना पडता है हम सब की भलाई के लिये, अब मेरा बेटा जाना चाहता है डा की लाईन मै लेकिन वो भी आओ की तरह से ऊह पोह मै है, ओर मै उसे बहुत समझाता हुं, ओर अब आप के इस लेख से मुझे उसे समझाने के लिये बहुत कुछ मिल गया है, जिन्हे हम जल्लाद कहते है बिना समझे असल मै वो तो हमारे जीवन दाता है. यही बाते अपने बेटे को समझाता हुं कि जब मरीज चिल्लता है डा उस समय हमारी तरह भावुक बन जाये तो इलाज कोन करेगा????
    बहुत अच्छा लगा आप का यह लेख आज तक...अगली कडी का फ़िर से बेसब्री से इंतजार है

    ReplyDelete
  15. Doob utra rahi hun aapke aalekh sang...bas aap likhti jaiye...

    ReplyDelete
  16. मार्मिक प्रस्तुति।
    ( Treasurer-S. T. )

    ReplyDelete
  17. आपके यात्रा संस्मरण से हम भी लाभवन्तित हो रहे हॆ.

    ReplyDelete
  18. माफ करियेगा, दूसरी पोस्ट की टिप्पणी आप को पोस्ट हो गई.
    संवेदनाओं के झरोखे से--संस्मरण--4 मे आपके
    संस्मरण पढ़ा , कही भावुकता कही प्रेम के बेहतरीन
    पल, विनोद जी ने सही कहा. अगली कडी का इंतजार

    ReplyDelete
  19. निर्मला जी ,
    आप का मन
    निर्मल प्रेम से भरा है ..
    नर्स और डाक्टर ,
    मरीजों की नज़रों में ,
    फ़रिश्ते या देवदूत से दीखते हैं

    कई भले होते हैं कई -
    - वैसे ही :-(

    आपके संस्मरण अत्यंत जीवंत व रोचक हैं
    ये जिन्दगी के मेले ,
    दुनिया में कम न होंगें
    - लावण्या

    ReplyDelete
  20. अत्यंत सहज और सरल भाषा मे आपने अपने विगत का वर्णन किया है । मै समझ सकता हूँ यह सहजता आपके जीवन मे भी शामिल है । इसे बनाये रखिये इसीकी आज ज़रूरत है ।

    ReplyDelete
  21. बहुत सुंदर ढंग से आपने वर्णन किया है! आपका संस्मरण बड़ा ही रोचक है! पढ़ते पढ़तें मैं तो पूरी तरह से आपकी लिखी हुई कहानी में डूब गई ! बस आप लिखते जाइये और हमें आपके अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा!

    ReplyDelete
  22. आदरणीय निर्मला जी,

    आपके संस्मरण को पढ़ते हुये ऐसा कहीं भी नही लगा कि कोई लिख रहा है और हम पढ़ रहे हैं, वो मंजर को देखा जा सकता है शब्दों के बीच उभरते हुये।

    यह बात सही है कि पेशागत तकलीफों को बाहर से कोई दूसरा नही महसूस कर सकता है, जैसे किसी कसाई को भी अपने पहले दिन बहुत तकलीफें हुई होंगी अंततः वो भी जिन्दा रहने के लिये कत्ल करने लगता है, यानी अपनी संवेदनाओं की बलि चढा देता है।

    अगमी कड़ी का इंतजार....

    सादर,


    मुकेश कुमार तिवारी

    ReplyDelete
  23. संस्मरण अति रोचक है ...अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा ..!!
    रही बात संवेदनाओं की तो यह सच है लगातार एक परिस्थिति से गुजरते रहने के बाद संवेदना भावविहीनता की स्थिति में आ जाती है ...अब देखिये न ...कश्मीर में रोज कितने जवान और सेना के अफसर मारे जाते हैं ..शुरू शुरू में पढ़कर बहुत दुःख होता था ..अब तो रोजमर्रा की बात है यह ..दुःख अब भी बहुत है मगर अपनी संवेदना के खोने का ..!!

    ReplyDelete
  24. अगर आपका दिल संवेदनशील हैं तो आप मरीज़ को मरीज़ के रिस्श्तेदारों को प्यार से समझायेंगी । ढाढस बंधायेंगी, पर अपने काम में इस संवेदना को बाधा बनने नही देंगी । इसमें एक प्रोफेशनल रवैया अपनाना होगा ।

    ReplyDelete
  25. बहुत ही सुन्‍दर,
    भावनाओं से जुड़े इंसान के अन्दर तक की आवाज !
    किसी भी चीज से मन का लगाव एक बारी हो जाए तो मोह भंग इतना आसान नहीं रहता !

    ReplyDelete

आपकी प्रतिक्रिया ही मेरी प्रेरणा है।