गज़ल
मेहरबानियों का इज़हार ना करो
महफिल मे यूँ शर्मसार ना करो
दोस्त को कुछ भी कहो मगर
दोस्ती पर कभी वार ना करो
प्यार का मतलव नहीं जानते
तो किसी से इकरार ना करो
जो आजमाईश मे ना उतरे खरा
ऐसे दोस्त पर इतबार ना करो
जो आदमी को हैवान बना दें
खुद मे आदतें शुमार ना करो
इन्सान हो तो इन्सानियत निभाओ
इन्सानों से खाली संसार ना करो
कौन रहा है किसी का सदा यहां
जाने वाले का इन्तज़ार ना करो
मरना पडे वतन पर कभी तो
भूल कर भी इन्कार ना करो
पाप का फल वो देता है जरूर
फिर माफी की गुहार ना करो
फिर माफी की गुहार ना करो
5 comments:
बढ़िया पोस्ट अच्छी गजल के लिए धन्यवाद.
भावनाओं की धरातल पर उपजी वेहद सुन्दर ग़ज़ल , बधाईयाँ!
निर्मला जी,बहुत बढिया गज़ल है। हर शेर बहुत बढिया है।बधाई।
Bahut bahut sundar gazal.......harek sher lajawaab !!
एक से बढ़कर एक शेर........शानदार ग़ज़ल...........बहुत अच्छी लगी।
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