04 January, 2009


कविता


पूर्व पर पश्चिम का लिबास
कैसा विरोधाभास ?
श्रद्धा हो गयी लुप्त
रह गया केवल् श्राद्ध
आभार पर हो गया
अधिकार का हक
सम्मान पर छा गया
अभिमान नाहक्
रह गया सिर्फ
मतलव का साथ
कैसा विरोधाभास
चेतना मे है सिर्फ स्वार्थ
भूल गये सब परमार्थ
रह गये रिश्ते धन दौलत तक
मैं हडप लूँ उसका हक
प्रेम प्यार सब कल की बातें
आदर्शों का हो गया ह्रास
केसा विरोधभास
पूर्व पश्चिम जब एक हो गये
ना रही शार्म ना रहा लिबास
ना रही मर्यादा
न रिश्तों का एहसास
वेद उपनिश्द सब धूल गये
रह गया बाबाओं का जाल
ओ नासमझो
उस सभ्यता को क्यों अपनायें
जो कर दे पथ से विचलित
इसके दुश्परिणाम से
तुम क्यों नहीं परिचित
रह्ने दो पूरब पर पूरब का लिबास
जिसमे भारत की संस्कृ्ति की है सुबास

8 comments:

  1. स्वागत है आपका

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  2. उस सभ्यता को क्यों अपनायें
    जो कर दे पथ से विचलित
    इसके दुश्परिणाम से
    तुम क्यों नहीं परिचित
    रह्ने दो पूरब पर पूरब का लिबास
    जिसमे भारत की संस्कृ्ति की है सुबास....बहुत सुन्दर. दिल को छूने वाली पंक्तियां !!
    कभी हमारे घर www.kkyadav.blogspot.com पर भी आयें.

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  3. चेतना मे है सिर्फ स्वार्थ
    भूल गये सब परमार्थ
    रह गये रिश्ते धन दौलत तक
    मैं हडप लूँ उसका हक
    प्रेम प्यार सब कल की बातें
    आदर्शों का हो गया ह्रास
    बहुत ही सुंदर भाव, एक नही कई बार पढी आप की कविता, आप ने तो आज का सच लिख दिया,

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  4. पूर्व पश्चिम जब एक हो गये
    ना रही शार्म ना रहा लिबास
    ना रही मर्यादा
    न रिश्तों का एहसास

    very nice...i have no word for say that.....bahut accha...aur ek katu satya.

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  5. उस सभ्यता को क्यों अपनायें
    जो कर दे पथ से विचलित
    इसके दुश्परिणाम से
    तुम क्यों नहीं परिचित
    रह्ने दो पूरब पर पूरब का लिबास
    जिसमे भारत की संस्कृ्ति की है सुबास
    kaash yah baat sabki samajh me bhi aa jaati .sundar rachana ke liye badhaaii

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  6. शिकायत तो जायज़ है मगर इसमें कविता कहां है?

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  7. please, aap mere is blog par follow kijiye:

    http://meridrishtise.blogspot.com

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