28 December, 2008

poem--- man manthan


कविता

मेरी तृ्ष्णाओ,मेरी स्पर्धाओ,
मुझ से दूर जाओ, अब ना बुलाओ
कर रहा, मन मन्थन चेतना मे क्र्न्दन्
अन्तरात्मा में स्पन्दन
मेरी पीःडा मेरे क्लेश
मेरी चिन्ता,मेरे द्वेश

मेरी आत्मा
, नहीं स्वीकार रही है
बार बार मुझे धिक्कार रही
प्रभु के ग्यान का आलोक
मुझे जगा रहा है
माया का भयानक रूप
नजर आ रहा है
कैसे बनाया तुने
मानव को दानव
अब समझ आ रहा है
जाओ मुझे इस आलोक में
बह जाने दो
इस दानव को मानव कहलाने दो

4 comments:

  1. माया का भयानक रूप
    नजर आ रहा है
    कैसे बनाया तुने
    मानव को दानव

    बहुत मार्मिक और संवेदन्शील !

    रामराम !

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  2. अब समझ आ रहा है
    जाओ मुझे इस आलोक में
    बह जाने दो
    इस दानव को मानव कहलाने दो

    bahut badhiya likha hai.

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  3. ऎसी भावनात्मक एवं हृ्दयस्पर्शी रचना हेतु आप सचमुच बधाई की पात्र हैं.
    खूब लिखें,अच्छा लिखें
    आपको एवं समस्त मित्र/अमित्र इत्यादी सबको नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाऎं.
    ईश्वर से कामना करता हूं कि नूतन वर्ष में सब लोग एक सुदृड राष्ट्र एवं समाज के निर्माण मे अपनी महती भूमिका का भली भांती निर्वहण कर सकें.

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  4. बहुत बढ़िया पोस्ट पढ़कर अच्छी लगी. धन्यवाद. नववर्ष की ढेरो शुभकामनाये और बधाइयाँ स्वीकार करे . आपके परिवार में सुख सम्रद्धि आये और आपका जीवन वैभवपूर्ण रहे . मंगल्कामानाओ के साथ .
    महेंद्र मिश्रा,जबलपुर.

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